बुधवार, 16 जनवरी 2013

जेंडर से ऊपर उठकर सोचता है सुधारक




पिछले दिनों दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना के बाद माहौल गरमाया और देश में शायद पहली बार स्त्रियों के प्रति पुलिस, प्रशासन और समाज के रुख को लेकर इतनी चर्चाएं हुईं, जो कि अभी जारी हैं। इस मंथन से स्त्री के प्रति समाज और सत्ता के व्यवहार और अन्याय पूर्ण रवैए से जुड़ी कई बातें खुलकर सामने आईं। मगर धार्मिक और राजनीतिक सत्ता से जुड़ी कुछ हस्तियों ने ऐसे  बयान भी दिए जिनसे उनकी बौखलाहट स्पष्ट हुई। इन्हीं में से एक बयान यह आया कि यह सारा आंदोलन पुरुष विरोधी है। जो यह कहते हैं स्त्रियों के बचाव, स्त्रियों की पहचान उनके सम्मान की बात करना पुरुष विरोधी है, वह सिर्फ बांटों और राज करो की राजनीति करना चाहते हैं। पिछले दिनों जो चेतना की किरण समाज में पहली बार दिखी उसे पुरुष विरोधी कहना उन सैकड़ों-हजारों युवकों का भी अपमान है जो युवतियों के कंधे से कंधा मिलाकर न्याय की मांग करते दिखे, उन पुरुषों का भी जिन्होंने तर्क और न्याय की बात की। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के संपादक, एंकर, वार्ताकार, अखबारों, पत्रिकाओं के लेखक-संपादक, कॉलेज और कार्यालय जाने वाले लाखों-लाख युवा और भी कई सामान्य बातचीत में शामिल होने वाले पुरुष ऐसे थे जिन्होंने भारतीय समाज में महिलाओं से जुड़े रूढ़िवाद, उनके दमन वाली सामाजिकता के विरोध में खुलकर बात की। यह लड़ाई स्त्री बनाम पुरुष की लड़ाई नहीं है, इंसानियत बनाम हैवानियत की है। यह लड़ाई पुरुषों के खिलाफ नहीं, उस व्यवस्था के खिलाफ है जो सुरक्षा दे पा रही है न्याय। यह लड़ाई उस समाज के खिलाफ है जो ऊंचा-नीचा है। लड़कों और लड़कियों में स्पष्ट, दिखाई देने वाला और बेशरम भेदभाव करता है। यह लड़ाई उस असंवेदनशील समाज के प्रति है जो बलात्कार जैसे भीषण हिंसक अत्याचार का दोष भी स्त्री पर ही थोप देना चाहता है। दोष सीता का नहीं था कि उन्होंने लक्ष्मण रेखा लांघी। दोष तो रावण का था जिसने साधु वेश बनाया। रूप बदलने का यह छल होता तो क्या सीता भिक्षा देतीं! मगर हमने आज तक भी रामायण से यह सीख ग्रहण नहीं की कि साधु वेश के भीतर कपटी हो सकता है। इसलिए आज तक भी हमारे यहां साधु वेश के पीछे दुराचारी सिर्फ छुप कर रह सकता है, बल्कि फलता-फूलता और राज करता है। हम तो सारा दोष सीता के लक्ष्मण रेखा लांघने को देकर खुश हो जाते हैं।
बात-बात में भारतीय संस्कृति और परंपरा का हवाला देने वालों से यह पूछने का मन करता है कि पौराणिक काल तो बहुत पहले की बात है, उसमें क्या जाना? थोड़ा सा गर्दन को कष्ट दें, मुड़कर देखें तो बहुत ताजा इतिहास में ही भारत में सती-परंपरा थी उन्नाीसवीं सदी तक। इतनी जघन्य परंपरा कि पति के रहने पर एक इंसान को ही जिंदा जला दिया जाए! उस समय का भारतीय समाज इसमें नृशंसता नहीं, एक महान परंपरा देखता था। इसे खत्म करने को राजी नहीं था। हम रोज-रोज संस्कृति का हवाला देते हैं तब ये बातें भी देख लेना चाहिए। स्त्री बनाम पुरुष की तो बात ही कहां है इसमें, सती प्रथा के खात्मे में एक पुरुष- राजा राममोहन राय की ही सबसे बड़ी भूमिका थी। सुधारक एक तार्किक, सुलझा हुआ इंसान होता/होती है। वह धर्म, जाति, समुदाय, जेंडर की नहीं न्याय और इंसानियत की नजर से चीजों को देखता है। अपने तात्कालिक स्वार्थ और वर्चस्व भावना से ऊपर उठकर सोचता है।
आज भी भारत में बलात्कार की शिकार स्त्री जीवन भर नर्क की आग में जलती है। इज्जत, पवित्रता, कलंक जैसे शब्द उसका पीछा करते हैं। बलात्कार के लिए इज्जत लुटना जैसे शब्द क्यों? इज्जत तो उसकी जाना चाहिए जो ऐसा दुष्कर्म करता है। बलात्कृता को भारत में लोग ऐसी फुसफसाहटों के साथ देखते हैं, 'अरे वो है, इसके साथ ऐसा हुआ था।" जैसे दुर्घटना होने से वह कोई अजूबा हो गई हो। घर वालों को चिंता हो जाती है अब उसके साथ कोई विवाह नहीं करेगा। बलात्कार से लड़की के अपवित्र हो जाने की यह सामाजिक अवधारणा उस अपराध से भी ज्यादा जघन्य है। बिना अपराध ही लड़की उन नृशंस क्षणों को जीवन भर ढोती है, असल अपराधी छुट्टा घूमता है, क्योंकि शर्म उल्टा शिकार ढोता है इसलिए रपट लिखवा कर अपराधी को सलाखों के पीछे भेजना मुश्किल होता है। तिस पर भी अपराधी यदि न्याय को अपनी मुट्ठी में रखने वाला महाबली हो तब तो बात समाने आना ही मुश्किल है। दंड मिलता ही नहीं इसलिए अपराधियों के हौंसले बुलंद होते हैं। महाबली दुष्टों का कुछ नहीं बिगड़ता, व्यवस्था अंधी-बहरी है- विश्वास का यही संकट तो इतने लोगों को सड़क पर ले आया। अब अपनी असंवेदनशीलता अपनी सुरक्षा संबंधी खामियों को तरह-तरह के बहानों से दबाने से क्या फायदा। तालिबानी, खाप पंचायत, वर्चस्ववादी मानसिकता कहती है लड़कियों को मोबाइल मत दो। उनसे पूछना चाहिए उस दिन उस लड़की का मोबाइल छीना जाता तो क्या अच्छा नहीं होता? वह रिपोर्ट तो कर पाती। लड़कियों के पास तो मोबाइल होना ही चाहिए और वे सारे अस्त्र भी जैसे, शिक्षा, साहस, स्वतंत्रता, आय के स्रोत आदि। वह दुराचारियों के पैरों में गिरकर गिड़गिड़ाती जैसी अपेक्षाएं करके वर्चस्ववादी लोग उसे अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी वाली दौर में क्यों लौटाना चाहते हैं। इन दिनों उठी नई चेतना की मांग है कि समाज से स्त्री को संवेदना, सम्मान और न्याय मिले।
निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 10 जनवरी 2013

अश्लील तो सामंती मानसिकता है

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समाज में अश्लीलता बढ़ाने के संदर्भ में इन दिनों हिन्दी फिल्मों में भरे जाने वाले आइटम सॉन्ग्स की काफी आलोचना हो रही है। मगर आइटम सॉन्ग्स तो वो हैं जो लाउड होने की वजह से बहस के लिए पकड़ में रहे हैं। औरत को मात्र एक वस्तु, औरत को सिर्फ एक देह मानने वाली मानसिकता का असल उदाहरण तो और कहीं है। हिन्दी फिल्मों में हीरो-हीरोइन के उम्र के अंतर को इसी रुप में देखा जाना चाहिए। फिल्म देस परदेस में देवानंद 55 वर्ष के थे उनकी हीरोइन टीना मुनीम 21 की। मेरा नाम जोकर में राजकपूर की मां बनी अचला सचदेव उनसे सिर्फ चार साल बड़ी थी। हिन्दी फिल्मों में हीरोइन के बाप के बराबर, कभी-कभी तो दादा के बराबर का आदमी भी सोलह साल, बीस साल की कन्या के साथ रोमांस करता है। हिन्दी फिल्में इस पुराने सामंती सोच पर काम करती हैं जो कहता था कि आदमी कभी बूढ़ा नहीं होता। यही वह सोच है जो मानता था कि लड़की सोलह की पैदा हो और तीस की मर जाए। यहां तो पचास के हीरो के साथ कई बार तीस की हीरोइन भी नहीं होती। तीस पर भी उम्रदराज मान ली जाती है। अधेड़ पांडेजी कमसिन किशोरियों के साथ सीटी बजाते रहते हैं। अक्षय कुमार, शाहरुख खान, सलमान खान रोमांस से रिटायरमेंट लेने को तैयार नहीं। इनके साथ की जूही चावला, उर्मिला मातोंडकर, रवीना टंडन मुख्य हीरोइनों की भूमिकाओं से बाहर हो चुकी हैं। हीरो के साथ रोमांस करने के लिए अनुष्का शर्मा, कैटरीना कैफ, सोनाक्षी सिन्हा चुकी हैं। फिल्म डर्टी पिक्चर, जो कि फिल्म इंडस्ट्री की अंदर की कहानी पर आधारित है, में इस बात पर व्यंग्य करता हुआ एक बहुत बढ़िया सीन है। शूटिंग चल रही है, बूढ़ा एक्टर जो कि युवा रोमांटिक नायक का रोल कर रहा है, उसे एक शॉट में अपनी मां बनी स्त्री की गोद में जाकर गिरना है। नायक मां बनी जिस स्त्री की गोद में मां कहकर गिरता है उस पर कैमरा जाता है तो पता चलता है वह सफेद बालों का बिग लगाए एक युवती है, जो हीरो की मां का रोल कर रही है!
कोई यह कहेगा कि ये फिल्में हिट भी तो हो रही हैं यानी दर्शक भी यही चाहता है। तो दर्शक भी तो उसी सामंती मानसिकता का शिकार है जो फिल्म इंडस्ट्री में पसरी है। बहुत दिन नहीं हुए जब भारतीय समाज में यह आम बात थी कि स्त्री चाहे बाल-विधवा हो या जवानी में विधवा हो जाए उसका पुनर्विवाह सपने में भी संभव नहीं था। मगर पुरुष की एक पत्नी मर जाए तो दूसरी, वह मरे तो तीसरी-चौथी भी संभव थी। अधिकांश पुरुष तो पत्नी मरने के बाद साल भर भी इंतजार नहीं करते थे। चूंकि वे किसी विधवा से तो विवाह करते नहीं थे, कुंवारी लड़की ही चाहिए होती थी अत: कमसिन लड़कियों का चालीस-पचास पार अधेड़ दूजबर से ब्याह होना सामान्य घटना थी, जो इक्की-दुक्की नहीं बहुतायत में होती थी। अपनी फिल्म 'दुनिया माने" में ऐसी ही एक युवती का विद्रोह वी. शांताराम ने बहुत साहस के साथ प्रदर्शित किया है। भारत में एक समुदाय में तो व्यक्ति की पत्नी की अंतिम क्रिया के समय ही किसी कन्या का पिता उसके कंधे पर रखा तौलिया निचौड़ दे तो इसका मतलब होता था कि ताजे-ताजे विधुर हुए व्यक्ति को उसे अपनी बेटी देना है। फिर चाहे उस युवती के लिए दांपत्य का मतलब जीवन भर का बलात्कार हो या अतृप्ति से उपजा हिस्टीरिया इससे समाज को मतलब नहीं। क्योंकि स्त्री तो महज देह है, इंसान नहीं। आज इन पुराने संदर्भों के हिसाब से भारत में बहुत सुधार हुए हैं। मगर उम्रदराज हीरो का कमसिन हीरोइन के साथ फिल्म करके हिट होना यह बताता है कि हमारा सामंती मन ऐसी बातों को 'माइंड" नहीं करता। आज माधुरी दीक्षित की जोड़ी रणबीर कपूर, रवीना टंडन की जोड़ी इमरान खान के साथ लगातार बनने लगे तो? सोच कर ही अजीब लगता है ना? मगर पुरुषों के बारे में यह अजीब नहीं लगता। तो यह सब हमारी मानसिकता का ही सवाल है, उसी का खेल।
कुछ साल पहले की बात है राजस्थान की ऐक शादी देखने का मौका आया। शादी के दिवसों में एक दिन एक हॉल में कुछ कार्यक्रम चल रहा था। महिलाओं को बताया गया कि यह कार्यक्रम सिर्फ पुरुषों के लिए है। यह एक स्त्री के नाच का कार्यक्रम था सिर्फ पुरुष दर्शकों के लिए! महिलाओं ने बताया कि यहां शादियों में यह बात आम है। आजकल नेताओं की सभाओं के पहले भी लड़कियों के नाच का कार्यक्रम होता है। गौर किया जाए शास्त्रीय नृत्य का कार्यक्रम नहीं। कमसिन लड़कियों से अश्लील ठुमके लगवाए जाने का कार्यक्रम। सोच लीजिए फिल्मों में आयटम सॉन्ग कहां से आए।
हमारे यहां शादी केा विज्ञापनों में खुले आम गोरी और स्लिम वधु की मांग की जाती है। यह अलिखित नियम है कि लड़की लड़के से उम्र में छोटी ही होना चाहिए। अब फिर भी समवयस्क लड़के-लड़कियां विवाह करने लगे हैं, मगर कुछ समय पहले तक भी हमारे यहां पत्नी की उम्र पति से पांच साल कम होना एक सहज सामान्य अंतर माना जाता रहा है। यह अपेक्षा रहती थी कि इतना अंतर तो होना ही चाहिए। अरेंज शादियों में भी, मतलब जहां प्रेम हो जाना वर-वधु के चुनाव का बायस नहीं, वहां भी ढेरों पत्नियां पति से दस-बारह साल छोटी होती रही हैं। इसके पीछे यह इच्छा रही होगी कि पत्नी का यौवन अधिक समय तक पुरुष को फायदा पहुंचाए! जो भी हो क्या यह अश्लील नहीं? क्या इस तरह पुरुष उम्र की मर्यादा का हनन नहीं करता? जिस लड़की को आपके पैर छूने चाहिए और जिसके सिर पर आपका हाथ होना चाहिए उससे वासना का संबंध बना लिया जाना सबसे बड़ी अश्लीलता है। सारा दोष फिल्मों और पाश्चात्य संस्कृति को देकर हम बरी नहीं हो सकते। फिल्में समाज का ही आईना हैं।
निर्मला भुराड़िया

रफ़्तार

मंगलवार, 1 जनवरी 2013

बात दबाना नहीं सड़न हटाना है

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दिल्ली में हुई गैंग रैप की घटना के बाद से देश उबल रहा है। इसे इस घटना विशेष की ही प्रतिक्रिया नहीं माना जाना चाहिए। इस घटना ने तो ढक्कन खोल लिया है। भीतर ही भीतर तो देश सदियों से उबल रहा था। यह कहना सरासर गलत होगा कि बलात्कार की घटनाएं अब बढ़ गई हैं। वे दिख रही हैं क्योंकि वे सामने रही हैं। पहले ऐसी हर घटना घर-परिवार, समाज-परिजन द्वारा दबा दी जाती थी। अब भी अधिकांश मामलों में परिजनों को यही करना होता है, क्योंकि हमारा असंवेदशील समाज शिकार से ही त्याज्य सा व्यवहार करता है। बलात्कार क्यों होते हैं इसके लिए भी सारा दोष महिलाओं पर मढ़ने वाले झूठे, असंवेदनशील और दंभी और तर्क दिए जाते हैं। सही कारणों में जाने का कष्ट कम ही किया जाता है क्योंकि दोष की मटकी फोड़ने के लिए लड़कियों का सिर तो है ही। तुमने फलां कपड़े पहने थे, तुम वहां क्यों गई थी वगैरह। बजाए इसके सही कारणों में जाना जरूरी है, ताकि हम एक सभ्य समाज का निर्माण कर सकें!
हिंदुस्तान में लड़कियों की हर हरकत को उनके स्वयं के लिए दैहिक जोखिम पुरुषों के लिए उकसावे के रूप में देखा जाता है। वह हंस क्यों रही है, चहक क्यों रही है, गा क्यों रही है, सज क्यों रही है? हर बात में पाबंदी, हर बात में आज्ञा लेना जरूरी। गोया लड़कियों का जीना और सांस लेना भी उकसावा हो। औरतों द्वारा उकसाने वाली बात इसलिए भी गलत है कि बलात्कार के पीछे हमेशा सिर्फ कामेच्छा ही नहीं होती, इसे एक हिंसक हथियार की तरह भी इस्तेमाल किया जाता है। बदला निकालने, औकात बताने के लिए तथाकथित जेंडर सुपीरियोरिटी के घमंड में भी ऐसा किया जाता है। युद्ध और दंगों में इसीलिए बलात्कार होते हैं। जहां अराजकता हो, कानून का डर हो, वहां भी भीतर का हैवान जागृत हो जाता है, वह जानता है कि उसका कोई कुछ बिगाड़ नहीं सकता।
पिछले वर्ष कलकत्ता के एक परिवार के साथ एक बुजुर्ग महिला आई थी जो दाई का काम करके, तेल मालिश आदि करके अपनी आजीविका कमाती है। उसने बताया कि उसे मछली-भात बहुत पसंद है पर युवावस्था में ही उसके पति की मृत्यु हो गई थी, तबसे ही उसके परिवार ने उसका मछली खाना बंद करवा दिया, लोग कहते हैं मछली खाएगी तो मस्त हो जाएगी! बंगाल में यह सामान्य बात रही है। वहां विधवा की रसोई अलग होती है। एक और समुदाय है जिसमें बच्ची का : साल की होते ही खतना यानी योनी-क्षत कर दिया जाता है! उस समुदाय की भारतीय जनसंख्या में भी यह इतना आम है जिसकी आप-हम कल्पना भी नहीं कर सकते। बात उठाई भी नहीं जा सकती क्योंकि पपोलीकरण की राजनीति ने इन्हें अति असहिष्णु बना दिया है। इनकी कुप्रथाएं आपको आंखों देखी मक्खी की तरह निगलना होती है। समाज में व्याभिचार की नदी को बहने से रोकने के नाम पर स्त्री की दैहिक आकांक्षाओं की बलि लेना हमारे दक्षिण एशियाई समाजों में आम है। हालांकि इससे व्याभिचार रुकता है, यौन शोषण, बलात्कार। जिन समाजों में वैधव्य आते ही स्त्री के केश मुंडवा दिए जाते थे। ताजीवन श्र्ाृंगार करना मना हो जाता था, उनका भी यौन शोषण होता था। यानी यह कहना गलत होगा कि रसहीन, श्र्ाृंगार रहित जीवन उन्हें बचा लेता था। स्त्रियों के पहनावे को बलात्कार से जोड़ना इसलिए भी गलत है। यदि वे लोग कहना चाहते हैं कि बलात्कारी आदमी तो बड़ा भला जीव होता है, गलत कपड़े पहन कर औरतें ही उन्हें उकसाती हैं, तो फिर उन्हें इस बात का भी जवाब देना चाहिए कि चार साल, सात साल की बच्चियों के साथ बलात्कार कैसे हो जाता है। वह भी सामूहिक बलात्कार। एक आदमी हो तो खट् से यह सिफारिश दे दी जाती है कि इस हैवान का ही भेजा खराब है। मगर इतनी नन्हीं बच्ची के साथ सामूहिक बलात्कार होना और एक का भी विवेक और प्रज्ञा जागना यह बताता है कि सड़न व्यक्तिगत नहीं सामाजिक है। और हम जिसे दुर्गंध सता रही है उसी की नाक का दोष देख रहे हैं, दुर्गंध के स्रोत को पहचानने और साफ करने के बजाए।
एक महिला ने यह बयान दे दिया कि वे : लोग थे तो लड़की को प्रतिरोध नहीं समर्पण कर देना था! यही तो दोष है भारतीय समाज में। लड़कियों को यह नहीं सिखाया जाता कि मुकाबला करो, मजा चखाओ चाहे जान क्यों चली जाए। उन्हें हमेशा यह सीख दी जाती है कि दब्बू बनी रहो, घूंघट की आड़ में छुप जाओ, अंधेरे से डर जाओ। आत्मरक्षा के पैंतरे सिखाने और गलत का प्रतिरोध करने की ट्रेनिंग दी जाने के बजाए उन्हें डर-डर कर जीना सिखाया जाता है। इसका कोई फायदा नहीं होता डरावनी चीज तो फिर भी घटित हो ही जाती है। पर सबसे बड़ा संकट तो विश्वास का संकट है। प्रशासन और न्याय व्यवस्था पर से देश का विश्वास उठ गया है। रपट लिखाने कहां जाएं जब रक्षक ही भक्षक हों। दिमाग में कूट-कूटकर भरा स्त्री-पुरुष भेद, व्यवस्था में पोल ही पोल। वहां देर भी, अंधेर भी। यही वजह है कि देश के युवाओं का गुस्सा यूं फूट पड़ा। यह आक्रोश तात्कालिक हो। क्रांति की कोख से सुधार जन्म लें, तभी इसका कुछ मतलब होगा।
निर्मला भुराड़िया

रफ़्तार