कैथलिक क्रिश्चियन थियोलॉजी
की मान्यता
अनुसार जो
बच्चा बपतिस्मा
होने के
पूर्व ही
मर जाता
है उसे
न स्वर्ग
में जगह
मिलती है
न नर्क
में, वह
जिस स्थान
में रह
जाता है
उसे कहते
हैं लिम्बो।
यानी उसका
निस्तार नहीं
होता। शायद
इसीलिए अंग्रेजी
में 'इन
लिम्बो" का आशय है अनिर्णित
रहना। कहीं
का न
होना, बीच
में झूलते
रह जाने
वाली ध्वनियाँ
भी इससे
आती हैं।
हिन्दू आख्यानों
में भी
एक त्रिशंकु
हैं, जो
आसमान से
धकेले गए
पर धरती
पर भी
ना टपके,
सो बीच
में ही
झूलते रहे।
हमारी भाषा
में आर-पार न
होने की
स्थितियों में त्रिशंकु शब्द का
उपयोग किया
जाता है।
लेकिन कोरी
भाषा के
पार जाकर
सोचें तो
एक त्रिशंकु
का दर्द
दूसरा त्रिशंकु
ही समझ
सकता है,
हालाँकि मनुष्यता
के नाते
एक समदु:खभागी को
ही नहीं
सभी को
यह पीड़ा
समझना चाहिए।
मनुष्यता नाम
ही इसी
का है।
एशियाड खेलों की
गोल्ड मैडलिस्ट
धावक पिंकी
प्रमानिक ओलिम्पिक
शुरू होने
के ठीक
पहले एक
विवाद में
फँस गई
हैं। तीन
साल से
उनकी रूममेट
रही एक
लड़की ने
अचानक यह
इल्जाम लगा
दिया है
कि पिंकी
पुरुष है
और उसने
अपनी पार्टनर
के साथ
ज्यादती की!
पिंकी लड़की
है या
लड़का इस
बारे में
जाँच का
रिजल्ट इन
पंक्तियों के लिखे जाने तक
आया नहीं
है। मगर
रिजल्ट जो
भी हो,
ऐसा नहीं
लगता कि
मैडल जीतने
के लिए
स्त्री वेश
बनाकर पिंकी
ने धोखेबाजी
की हो।
वह शुरू
से ही
लड़कियों के
स्कूल में
पढ़ी। लड़की
के रूप
में ही
पली-बढ़ी
और धाविका
बनी है।
साउथ अफ्रीका की
एक खिलाड़ी
केस्टर सेमन्या
को एक
बार ऐसे
ही सेक्स
डिटरमिनेशन टेस्ट से गुजरना पड़ा
था। जिसके
नतीजों में
क्रोमोसोम के विचित्र पैटर्न्स के
अलावा यह
पाया गया
कि उसके
शरीर पर
स्त्री के
अंग हैं,
मगर शरीर
के भीतर
ओवरी और
गर्भाशय नहीं
है। मगर
बाहरी संरचना
में स्त्री
अंगों के
साथ ही,
अविकसित रूप
में सही
पुरुष अंडकोष
भी हैं!
अब इस
अजीब संरचना
के साथ
केस्टर कैसे
निर्णय करती
कि वह
कौन है।
अत: उसने
स्त्री रूप
में खिलाड़ी
बनना पसंद
किया, तो
कोई धोखा
तो नहीं
किया। भारत
में तो
स्थितियाँ और मुश्किल हैं। तीसरे
जेंडर के
लोग भारत
में सिर्फ
उपेक्षित ही
नहीं हैं।
पूरी तरह
अलग-थलग
कर दिए
गए हैं,
नतीजतन आम
लोगों से
अलग समांतर
समाज में
रहने को
विवश हैं।
अपने कुनबों
के भीतर
ही इन्हें
मित्रता और
सहायता मिलती
है और
अपने कुनबों
की रूढ़ियों,
अंधविश्वास और कुप्रथाओं में ही
इन्हें आजीवन
जीना पड़ता
है। आम
जन से
तो इन्हें
दुत्कार ही
मिलती है,
नतीजतन वे
और उग्र
हो जाते
हैं तो
और ज्यादा
घृणा और
दुत्कार मिलती
है। इन्हें
वह बर्ताव
नहीं मिलता
जो एक
मनुष्य को
दूसरे मनुष्य
से करना
चाहिए। उन्हें
कहीं काम
नहीं मिलता,
कहीं भर्ती
नहीं मिलती,
कहीं पढ़ाई
लिखाई के
मौके नहीं
मिलते। समाज
की मुख्यधारा
उन्हें सम्मानपूर्वक
अपने भीतर
समाहित नहीं
करती। आखिर
किस दोष
की वजह
से? यदि
प्रकृति ने
उन्हें कोई
शारीरिक कमी
या शारीरिक
भिन्नाता दी
है तो
यह उनका
दोष तो
कदापि नहीं
है। फिर
यह अपमानजनक
व्यवहार क्यों?
कहीं भी
प्रवेश चाहिए
तो हमारे
यहाँ 'एफ"
या 'एम"
के अलावा
तीसरा ऑपशन
कहाँ है?
तमिलनाडु सरकार
ने जरूर
अभी-अभी
कॉलेजों में
प्रवेश हेतु
अपने फॉर्म
में यह
सुविधा दी
है। चुनावों
में भी
अब जाकर
इस केटेगरी
के वोट
देने की
पात्रता बनी
है। मगर
इतने भर
से कुछ
भी नहीं
होता। थर्ड
जेंडर के
लोग बिना
अपराध के
कड़ा दंड
भुगत रहे
हैं। यदि
वे लड़कियों
के बाथरूम
में चले
जाएँ तो
लड़कियाँ चिल्ला
पड़ेंगी और
उन्हें निकाल
बाहर करेंगी।
पुरुषों के
बाथरूम का
इस्तेमाल करने
में उन्हें
कुछ लोगों
से खतरा
भी हो
सकता है
और यह
उनके लिए
शारीरिक रूप
से असुविधाजनक
भी हो
सकता है।
क्या हमारे
यहाँ जेंडर
न्यूट्रल बाथरूम
हैं? यदि
नहीं तो
वे एफ
या एम
किसी केटेगरी
में तो
जाएँगे ही?
फीमेल केटेगरी
में गए
तो उन
पर जाँच
बैठा दी
जाएगी। तो
फिर वे
क्या करें?
आजकल सेक्स
रिअसाईमेंट सर्जरी भी होती है।
मगर यह
भी सामाजिक,
आर्थिक सहयोग
और गहन
मनोचिकित्सीय परामर्श के बाद ही
संभव है।
थर्ड जेंडर
के आम
व्यक्ति के
लिए दूर
की कौड़ी
है। इसकी
जटिलताओं के
चलते यह
हर किसी
के लिए
संभव भी
नहीं है।
अत: इस
तरह के
व्यक्ति को
समाज का
सहयोग, शिक्षा-दीक्षा, रोजगार,
सम्मान ही
मिल जाए
तो वह
सुखपूर्वक जी सकता है।
निर्मला भुराड़िया
दुखद परिस्थिति किन्नर जीवन, सहते रहते कष्ट अजीब |
जवाब देंहटाएंनहीं स्वर्ग का नरक नहीं फिर, लटक रहा त्रिशंकु सलीब |
पुरुष रूप में अंश नारि के, या नारी मन पुरुष शरीर --
इनपर थोड़ी कृपा कीजिये, रखिये दिल के तनिक करीब ||