गुरुवार, 19 जुलाई 2012

दाग अच्छे हैं पार्टी!


भतीजी मौलश्री ने अपनी नन्ही-मुन्नाी बिटिया, दो वर्षीय अन्वी का बर्थडे एक अनूठे ही अंदाज में मनाया। उसने पार्टी का शीर्षक दिया, 'दाग अच्छे हैं" वैसे आमतौर पर इन दिनों बच्चों की बर्थडे पार्टी में यह होता है कि बच्चे सज-धज कर आते हैं, ऐसे कपड़े पहनकर जिस पर कुछ गिर जाए यह डर माँ-बाप को रहता है। पार्टियों के प्लानर होते हैं, बच्चों की पार्टियाँ भी इवेंट मैनेजमेंट के हिस्से में आती हैं। कुल मिलाकर औपचारिकता और दिखावा ज्यादा मौज मस्ती कम। इस वजह से इन पार्टियों में बच्चे खुल कर खेल नहीं पाते। हर वक्त डर में रहते हैं कि कुछ टूट जाए, कुछ गिर जाए, कपड़े खराब हो जाएँ। जो खेल बड़े खिलवाते हैं वही वे खेलते हैं। मगर दाग अच्छे हैं पार्टी में ऐसा कुछ नहीं था। इस पार्टी में बच्चों को खुलकर खेलने, ढोलने, बिखेरने, गपड़-सपड़ करने का मौका था। जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट है, दाग अच्छे हैं पार्टी का मकसद ही यही था कि बच्चे खुल कर खेलें। इस पार्टी में बच्चों के खेलने के लिए ऐसी ही चीजें उपलब्ध करवाई गई थीं जो आजकल शहरी बच्चों को यूँ ही खेलने के लिए नसीब नहीं होती। इन्हें अलग-अलग गतिविधियों के रूप में बाँटा गया था, ताकि बच्चे अपनी मर्जी की एक्टिविटी चुन कर उसका मजा ले सकें। जैसे पॉट प्लांट- इस गतिविधि के लिए मिट्टी, पौधे और छोटे-छोटे गमले रखे थे। जिस बच्चे की इच्छा हो वह पौधा रोपे। या यँू कहें पौधा रोपने के खेल में लग जाए। एक और एक्टिविटी थी पॉट योर पॉट। इसमें कुम्हार की मिट्टी थी। बच्चे चाहें तो आड़े-तिरछे, आँके-बाँकें मिट्टी के बरतन बनाएँ, और कुछ नहीं तो मिट्टी थेप कर मजे से हाथ गंदे करें। एक था पेंट योर पेपर। यहाँ बच्चों को रंग, पानी, पेपर आदि दे दिए गए थे। ढोलो, रंगो, बनाओ। या कागज पर अपने नन्हे हाथ का छापा लगाओ। चाहो तो अपनी नाक पर रंगीन हथेली रगड़ मारो या अपनी ड्रेस पर ठप्पा मार लो। कोई कुछ कहेगा नहीं। आमंत्रितों की मम्मियों को पहले ही कह दिया गया था कि चाहें तो बच्चों को एप्रेन पहना कर भेजें। भई यह तो दाग अच्छे हैं पार्टी है। एक कोने में इनफ्लेटेड पूल भी रखा गया था, जिसमें पानी और झाग थे। बच्चे इसमें चाहें तो खेलें, झाग उड़ाएँ, संतरंगी बुलबुले बनाएँ और फोड़ें! उनकी मर्जी। यहाँ कौन कहेगा गीले मत होओ, सर्दी लग जाएगी! एक तरफ पानी के साथ मछलियाँ भी रखी गई थीं, नकली प्लास्टिक की मगर रंग-बिरंगी मछलियाँ। साथ में बच्चों की खिलौना मछली पकड़ने की बंसी। इसमें प्लास्टिक की फिश अटक जाती तो बच्चों को बहुत मजा आता। और भी गतिविधियाँ थीं। मतलब यही कि मिट्टी, पानी, पौधे, जैसी नैसर्गिक चीजों का साथ और इनसे मनचाहे ढंग से खेलने की उन्मुक्तता। बच्चों को इससे ज्यादा मजेदार और क्या लग सकता है?
एक-दो दशक पहले तक का बचपन आज जितना बंधा हुआ नहीं था, ही बच्चों से उन तमाम औपचारिकताओं की उम्मीद की जाती थी जो बच्चे का मन भले रखें रखें माँ-बाप का स्टेटस जरुर बनाए रखें। धूल-धमासा, मिट्टी-पानी उपलब्ध भी थे और इन्हें छूना मना भी नहीं था। आज बच्चों के लिए शिक्षा आदि के अवसर जरूर बढ़ रहे हैं, मगर खुलकर खेलने के अवसर कम हो रहे हैं। बहुत से बच्चे जानते ही नहीं कि उन्मुक्त बचपन क्या होता है। ऐसे में कभी-कभी दाग अच्छे हैं वाली छूट बड़ी प्यारी होती है। बच्चों का लालन-पालन करने के लिए बच्चों का मनोविज्ञान समझना जरुरी होता है। यही नहीं आपको अपने बचपन में जाकर, बच्चा बन कर सोचना होता है कि एक बालक क्या चाहता है। किन स्थितियों में वह खुश होता है, किन स्थितियों में अपमानित होता है, किन स्थितियों में कसमसाता है पर प्रतिवाद नहीं कर पाता, क्योंकि वह बच्चा है, पर निर्भर और कमजोर है।
परिवार के स्तर पर ही नहीं देश के स्तर पर भी हमारे यहाँ बच्चे की एक नागरिक और भावी कर्णधार की तरह चिंता नहीं की जाती। रोज बच्चे बोरवेल में गिर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद सुरक्षा संबंधी गाइड लाईंस का पालन नहीं हो रहा। बंगाल में एक वॉर्डन ने रात में बिस्तर गीला करने वाली बच्ची को स्वमूत्र पान की घिनौनी सजा दे डाली! बच्ची की बीमारी और मनोविज्ञान समझ कर उचित चिकित्सा करवाने के बजाए। लाख कानूनों के बावजूद देश से बाल मजदूरी विदा हुई है बाल विवाह। आखिर हम कब बच्चों को भी एक संपूर्ण मनुष्य समझ कर उनसे आदर और प्यार भरा व्यवहार करना सीखेंगे।
निर्मला भुराड़िया
रफ़्तार

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