गुरुवार, 30 जून 2011

बेटों से बाँटें बातें सुख-दु:ख की



मेरी एक परिचित के तीन बेटे हैं। तीसरा बेटा बेटी की चाह में हुआ है। जब ये तीनों बच्चे दस-पंद्रह साल के आसपास के रहे होंगे, तब ये परिचित बीमार पड़ीं। अस्पताल से आने के बाद भी लंबे अर्से तक वे अक्सर थकान से ग्रस्त रहती थीं। ऐसे में अक्सर छोटे-मोटे कामों के लिए अपने बेटों में से किसी को आवाज लगा देती थीं, कि जरा जाना स्टोर रूम से पापड़ का थक्का ले आना या चूल्हे पर दूध चढ़ा देना वगैरह। इनके बच्चों को छोटे-छोटे घरेलू कामों की अच्छी ट्रेनिंग थी। साथ ही यह बोध भी था कि माँ को कुछ शारीरिक कष्ट है तो हमें सहायता कर देना चाहिए। कभी-कभी कोई मेहमान आते तो लगभग हँसी उड़ाते कि वे लड़कों से लड़कियों वाले काम करवा रही हैं! मगर उनके हँसी उड़ाने को परिवार ज्यादा तवज्जो नहीं देता था। लड़कों के पिता ने भी हमेशा माँ का हाथ बँटाने पर बेटों का हौसला ही बढ़ाया, कोई विपरीत कमेंट नहीं किया, लेकिन यह परिवार हमारे सामाजिक रवैए का प्रतिनिधित्व नहीं करता। हमने तो हर चीज को औरताना और मर्दाना में बुरी तरह बाँट रखा है। काम तो काम संवेदनाओं तक को हमने इस तरह लड़का-लड़की में बाँटा है कि हम ये तक भूल जाते हैं कि कोई भी व्यक्ति लड़का या लड़की बाद में है, इंसान पहले है।

अक्सर पुत्रों पर यह आरोप लगाया जाता है कि वे माँ-बाप के सुख-दु:ख की बातें उस तरह नहीं सुनते जैसे बेटियाँ सुनती हैं। वैसे तो यह आरोप गलत है, बेटों में भी भावनात्मकता होती है। हाँ, हमारा समाज जरूर इनसे यह उम्मीद करता है कि वे कड़क बने रहें। उन्हें संघर्ष के काबिल बनाने के नाम पर उन्हें भावनात्मकता से काटकर रखा जाता है। जैसे मान लीजिए कोई बेटा परिवार के साथ बैठकर गपशप करता है तो कोई न कोई कह ही देता है क्या औरतों के बीच बैठा रहता है हमेशा! सीरियल साराभाई वर्सेज साराभाई में ममाज बॉय को दब्बू और कमजोर बताया गया है। उसे बड़े नाटकीय ढंग से आवाज पतली करके और कमर हिलाकर चलते हुए बताया गया है। जैसे कि माँ को प्यार करना सिर्फ स्त्रियों का ही गुण हो और पुरुषों के लिए भावनात्मक कमजोरी हो। माँ-बेटे के अलावा पिता और पुत्र के बीच भी सुख-दु:ख की बातें करने का चलन कम ही है। इसकी वजह पुरुष स्वभाव नहीं है, क्योंकि भावनाएँ तो सबके भीतर होती हैं और होना चाहिए, पर अक्सर पिता और पुत्र मन की बातें करने के बजाए करियर, व्यापार ऐसे ही मुद्दों पर बातें करते हैं, क्योंकि हमारी सामाजिकता पिता और पुत्र के बीच भी भावनात्मक तरलता के बजाए रोके गए आवेगों की सख्त दीवार की अपेक्षा करती है। बेटों में भावनात्मक जड़ता पैदा करने वाला यह समाज ही एक दिन उन पर संवेदनहीन और माँ-बाप के सुख-दु:ख न समझने वाला होने का इल्जाम लगा देता है। यह गलत है। बेटों में कोमल भावनाओं के विकसित होने को उनकी कमजोरी नहीं मानना चाहिए, बल्कि यह तो अच्छे इंसान होने का सबूत है। परिवार तो व्यक्ति की ताकत है, परिवार से जुड़ाव तो व्यक्ति को अधिक आत्मविश्वासी और अधिक पुख्ता नींव वाला बना देता है। कमजोर नहीं बनाता। तो फिर बेटों की भावनात्मकता से क्यों घबराना?

* निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 28 जून 2011

बुलबुले में रहने वाले


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सतरंगी बुलबुले यानी समझो इंद्रधनुष के बाल-बच्चे। हवा के ये गुब्बारे सभी को आकर्षित करते हैं। नन्हे-नन्हे, चमकीले, पारदर्शी, गोलमटोल बुलबुले नहाते हुए साबुन पर भी उतर आएँ तो व्यक्ति एक पल ठहर कर उन्हें देखता जरूर है। बच्चे बुलबुलों को अपनी फूँक से उड़ाकर उन्हें हवा में तैरते हुए देखकर बहुत खुश होते हैं। इसीलिए उनके लिए एक ऐसा खेल उपकरण भी बाजारों में अक्सर दिखता है, जिसमें फूँक मारो तो छोटे-बड़े, सतरंगी बुलबुले उड़ने लगते हैं। उड़ते हुए बुलबुलों को देखना ऐसा आनंद है जिसमें निश्छलता है। बुलबुला सुख का प्रतीक है। लेकिन बुलबुले में रहने वाले उन लोगों को कहा जाता है जो सदा अपने आरामगृह में रहते हैं। जिन्होंने संघर्ष नहीं किया होता है। जिन्होंने ज्यादा ऊँच-नीच नहीं देखी होती है। जिनके अपने उन्हें हथेली पर रखते हैं, वह भी कालीन बिछाकर। ऐसे बुलबुलावासियों को किसी दिन सचमुच के जीवन की वास्तविकताओं का सामना करना पड़े तो उनके लिए संघर्षों से पार पाना बहुत मुश्किल हो जाता है। और यह घड़ी तो कभी न कभी आती ही है, क्योंकि बुलबुले में चाहे कितनी ही खूबियाँ क्यों न हों, उसमें एक खामी भी है। बुलबुला क्षणभंगुर है। एक दिन वह फूट ही जाता है। तब बुलबुलावासी को सुख-दु:ख के झोंकों का सामना करना ही होता है, जिसके लिए कि उसकी कोई तैयारी नहीं होती। अब तक आभासी जीवन जी रहे व्यक्ति को असल जिंदगी से रूबरू होना ही पड़ता है। कहते हैं बुद्ध के पिता राजा शुद्धोधन ने अपने पुत्र के लिए ऐसा महल बनवाया था जो बाकी दीन-दुनिया से अलग-थलग हो। वे नहीं चाहते थे कि बेटे को पता चले कि दुनिया में दु:ख, बुढ़ापा, बीमारी और मृत्यु जैसी चीजें भी हैं, अत: उन्होंने उसके महल में सब युवाओं को नियुक्त किया। बूढ़ों को कभी भी राजकुमार के सामने आने नहीं दिया जाता था। मृत्यु की कोई खबर उन्हें नहीं दी जाती। महल में भोग-विलास के सब साधन और नाना प्रकार के सुख उपलब्ध करवाए गए। मगर कभी न कभी दु:खी, मृत, रोगी और बूढ़े जर्जर मनुष्यों से बुद्ध का सामना हो ही गया। जिससे उन्हें बहुत गहरा झटका लगा।

सच यही है कि सच की खुरदुरी जमीन पर चलने का स्वावलंबन, इंसान को असीम आत्मविश्वास देता है। चलता है वह गिरता है। जो गिरता है वह उठता भी है। जो चलता ही नहीं, उसकी पालकी जिस दिन टूट जाए वह हतप्रभ रह जाता है। आभासी जिंदगी से एक न एक दिन बाहर आना ही पड़ता है। बुलबुले के भीतर की आभासी जिंदगी के अलावा इन दिनों एक और प्रकार का आभासी जीवन उभरकर आया है। टीवी और कम्प्यूटर का वर्चुअल वर्ल्ड। यह वर्चुअल वर्ल्ड थोड़ी देर के लिए सुखद हो सकता है, उपयोगी भी वह है ही, मगर सदा इसी में रहने के अपने नुकसान हैं। कई गृहिणियाँ सदा टीवी से चिपकी रहती हैं। अपने असली संसार से ज्यादा वे टीवी सीरियलों के नकली और षड्यंत्रकारी संसार में रहती हैं। कुछ टीन एजर मैदानी खेल भी खुद खेलने की बजाय उन्हें वीडियो पर खेलते हैं, कम्प्यूटर के आभासी पुतलों को दौड़ा-दौड़ाकर। किसी के यहाँ मेहमान पहुँच जाएँ तो भी मेजबान टीवी देखते रहते हैं। पार्टियों में जाकर भी लोग एक-दूसरे से मिलने-जुलने की बजाय अपने-अपने मोबाइल से कहीं न कहीं बात करते रहते हैं। सहयात्रियों से बतियाने का प्रचलन भी कम हो गया है क्योंकि सामने बैठे असल आदमी से बात करने की बजाय लोग टेक्सटिंग करने, यानी दूर कहीं बैठे व्यक्ति से एसएमएस के जरिए वार्तालाप करने में मशगूल हो जाते हैं। इससे इंसान की जीवंतता की घड़ियाँ कम हो रही हैं और मशीनी घड़ियाँ बढ़ रही हैं। अधिक से अधिक समय तक मशीनी जीवन में व्यस्त रहने के कारण शारीरिक और मानसिक दोनों ही परेशानियाँ बढ़ रही हैं। मिलने-जुलने, हँसने-बोलने और सामाजिकता से वंचित लोग जीवन की छुअन खो रहे हैं। अत: मनोवैज्ञानिक अब सुझाने लगे हैं कि पर्दे पर दौड़ने वाली हलचलों से कुछ देर हटकर जीवन की असल हलचलों को भी थोड़ा महत्व दिया जाए। सच है आभासी और वास्तविक जिंदगी में तालमेल बैठाना आज की आवश्यकता है।

- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 9 जून 2011

पत्थर दिल क्या खाक इंसान बनेंगे!


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नोबेल पुरस्कार विजेता लेखक 'सर विद्याधर सूरज प्रसाद नायपाल" अपने असंवेदनशील बयानों द्वारा सनसनी फैलाने के लिए कुख्यात हैं। इस बार फिर उन्होंने महिला लेखकों अर्थात लेखिकाओं को कमतर बताने वाला बयान देकर खुद की थू-थू करवाई है। नायपाल महाशय का कहना है, 'महिलाएँ अच्छा नहीं लिखतीं। चूँकि वे भावुक होती हैं, इसलिए उनका नजरिया सीमित होता है और मानसिकता संकीर्ण। वो तो घर की भी नियंता नहीं होती, अत: यह बात उनके लेखन में भी झलकती है। मैं किसी भी महिला लेखक को अपनी बराबरी पर नहीं मानता। आप मुझे नाम हटाकर किसी महिला का लिखा पढ़ने को दें तो भी मैं समझ जाऊँगा कि यह किसी स्त्री ने लिखा है।"
वाह नायपाल साहब वाह, इस बयान पर तो तालियाँ पड़नी चाहिए, पड़ भी रही हैं, मगर सर विदिया के गाल पर। इस बयान के खिलाफ चारों तरफ से तड़तड़ की आवाजें सुनाई पड़ने लगी हैं। मगर नायपाल को इस बयान पर आड़े हाथों लेने वालों में सिर्फ स्त्रियाँ ही नहीं हैं पुरुष लेखक भी हतप्रभ होकर इस बयान के खिलाफ गए हैं। जातीय जिंदगी में भी नायपालजी का रिकॉर्ड स्त्रियों के प्रति असंवेदनशीलता का रहा है। उनकी पहली पत्नी पेट्रेशिया उनके सारे लेखन की अघोषित संपादक रही हैं, उनके जीते-जी ही नायपाल के ताल्लुकात मार्गरेट नाम की महिला से रहे। नायपाल की आधिकारिक जीवनी के अनुसार वे लंदन में वेश्यागमन भी करते रहे। पेट्रेशिया को कैंसर हो गया, उस दौरान नायपाल एक पाकिस्तानी पत्रकार नादिरा खानम से मिले, घर में बीमार बीवी और लंबे समय साथ रहने वाली प्रेमिका के बावजूद नायपाल की नादिरा से प्रेम की पींगे बढ़ने लगीं। पेट्रेशिया की मौत के दो महीने बाद नायपाल ने नादिरा से शादी भी कर ली।
खैर आएँ नायपाल साहब के बयान पर। लगता है नायपाल पुरुषों की उस जमात से हैं, जो अक्सर ''औरतों की अक्ल चोटी में होती"" जैसे बयान देकर औरतों को कमतर, तुच्छ, कमअक्ल साबित करने की कवायद करते रहते हैं। इस तरह के लोग मिसोजिनिस्ट अथवा नारी द्वेषी होते हैं। ये स्त्रियों के बारे में धारणाएं बना लेते हैं, फिर उन रूढ़िबद्ध धारणाओं के अनुसार ही सोच और व्यवहार करते हैं। ये स्त्रियों के सामर्थ्य पर सदा शक करते हैं। इनके शक को ध्वस्त करते हुए कोई स्त्री आगे बढ़ जाए तो फिर यह काम औरतों का नहीं, यह काम औरतों के बस का नहीं, तुमसे नहीं होगा, यह आपको नहीं आता, जैसी बातें करके मनोबल तोड़ने की कोशिश करते हैं। ऐसे लोग महिलाओं की योग्यता को खारिज करने के लिए कोई भी कदम उठा सकते हैं।
नायपालजी ने अपने बयान में यह जो कहा है कि औरतें भावुक होती हैं, इसलिए उनका नजरिया संकीर्ण होता है, जरा इस बात की भी मीमांसा करें। सच तो यह है कि भावप्रवणता तो अपने आसपास चल रही सामाजिक, भावनात्मक, वैचारिक और मनोवैज्ञानिक हलचलों को और अधिक सोखने की क्षमता देती है। एक लेखक का और किसी भी इंसान का दायरा इससे बढ़ता है, घटता नहीं। भावप्रवणता स्त्री लेखकों में अधिक होती है, यह कहना पुरुष लेखकों के साथ अन्याय भी होगा। रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचंद्र, टॉलस्टॉय ने जिस भावप्रवणता के साथ लिखा है वह सिर्फ स्त्रियों की ही बपौती नहीं है। कर्ण के भनोभावों को शिवाजी सावंत ने जिस शिद्दत के साथ उतारा है वह उनकी मानवीय संवेदनाओं की असीम समझ की परिचायक हैं। गेब्रियल गार्सिया मार्केज ने 'लव इन टाइम ऑफ कॉलेरा" में प्रेम की तीव्रता की ऐसी कहानी लिखी है, जो बुढ़ापे में भी उसी शिद्दत से बरकरार रहता है, जैसे चौदह साल की उम्र में। कहना होगा कि संवेदनशीलता तो लेखक को पात्र और पाठक के दिल तक पहुँचने की गहराई देती है। उसे संकीर्ण नहीं, उदार और विस्तृत बनाती है। संवेदनशीलता और करुणा तो मानवता का गुण है इसे स्त्री और पुरुष में बाँटना गलत है। संवेदनशीलता और भावप्रवणता ही इंसान को इंसान बनाती है और लेखक को लेखक! पत्थर दिल क्या खाक इंसान बनेंगे?

निर्मला भुराडिया