सोमवार, 23 अगस्त 2010

आजाद सुंदरी

'लड़कियों के दुबलेपन का एक आवश्यक सामाजिक आग्रह होना न सिर्फ एक सामाजिक सनक है, बल्कि एक बंधन है, क्योंकि इसमें सुंदर होना भी समाज की आज्ञाकारिता की तरह है, स्त्री की चाहत के ‍िलए नहीं'- यह कहना है नाओमी वूल्फ का। सच कहती हैं वूल्फ। पिछली सदियों में तो अधिकांश देशों में स्त्री को सुंदर बनना पड़ेगा यह अलिखित सामाजिक आदेश रहा है। और इस आदेश की पूर्ति के लिए स्त्रियों को तरह-तरह की यातनाएँ भी सहना पड़ी हैं। चीनी लेखिका युंग-चांग लिखती हैं ‍िक उनकी दादी के काल तक भी चीनी लेखिका युंग-चाग लिखती हैं कि उनकी दादी के काल तक भी चीन में ‍िस्त्रयों के छोटे-तीन इंच के पैरों को खूबसूरत माना जाता था। बच्ची दो साल की हुई ‍िक अँगूठे के अलावा उसके पैर की सब उँगलियों को मोड़कर बीस फुट लंबे सफेद कपड़े से बाँध दिया जाता था। एक बड़ा पत्थर उभरे हुए हिस्से को कुचलने के लिए पैर पर रखा जाता था। हड्‍डियाँ कुचलने के बाद भी मोटे कपड़े से तो पाँव को ‍िदन-रात बाँध रखा जाता था, क्योंकि कपड़ा खोलते ही पैर बढ़ने लगते.... और यह प्रक्रिया बार-बार दोहराई जाती थी ताकि पैर तीन इंच रहें। लड़की की शादी होने के लिए ये तीन इंच के पाँव जरूरी थे, क्योंकि यह माना जाता था ‍िक तीन इंच के ये सोने के फूल (यानी पाँव) पुरुषों पर उत्तेजक प्रभाव डालते थे। माँ-बाप भी रोती-चिल्लाती बच्चियों को यह मानकर यातना देते रहते कि यह वे लड़की के भविष्य के लिए उसके भले के लिए ही कर रहे हैं।

विक्टोरियन काल के योरप में लड़कियों का नाजुक और दुबली ‍िदखना आवश्यक था। इसके ‍िलए वे फ्रॉक के भीतर कॉरसेट पहनती थीं, जो भारी कैनवस और व्हेल की हड्‍डियों का बना होता था, जिससे महिलाओं का जिस्म एक तरह के ‍िपंजर में ही सीमित रहता था और उसी में विकसित होता था। तीन-चार साल की बच्चियों को ही कॉरसेट पहनाना शुरू कर ‍िदया जाता था, ताकि उनकी कमर 17 इंच की ही रहे! उस काल में यह माना जाता था ‍िक बड़े घर की औरत की नजाकत यह है कि वह बगैर सहायक के चल भी न पाए! और कॉरसेट इस बात को शब्दश: सत्य कर देता था। क्योंकि इन्हें पहनने वाली महिलाएँ नाजुक तो क्या कहें इतनी कमजोर और भुरभुरी हो जाती थीं ‍िक वे कॉरसेट के सहारे के बगैर ठीक से खड़ी भी नहीं हो पाती थीं। पुराने रोम और ग्रीस में भी कॉरसेट चलते थे, ‍िजन्हें पहनना स्त्रियों की एक तरह की सामाजिक आज्ञा थी। इन कॉरसेटों से उन्हें पुरुष की मुट्‍ठियों में आ जाने वाली कमर तो मिलती थी पर साथ में मिलती थी बीमारियाँ भी इससे उनके फेफड़े, लीवर, आमाशय, आँतें और ब्लैडर पिचक जाता था और शरीर का तंत्र ठीक से काम नहीं करता था। और भी कई जनजातियों यहाँ तक कि सभ्य समाजों में स्त्री को सुंदर बनाने के ‍िलए निचले होंठ को छेदकर उनमें बालियाँ लटकाना, गर्दन में नलीदार पाइप पहनाए रखना, पाँवों में भारी-भरकम कड़े डालना सामाजिक रस्म की तरह ‍िकया जाता रहा है।

समय के साथ इनमें से अधिकांश परंपराएँ समेट भी ली गई हैं। लेकिन यह अदृश्य कॉरसेट अब भी है, ‍िजसमें कैद स्त्री सोचती है कि उसकी कमर 26 इंच की नहीं तो वह सुंदर स्त्री नहीं है, क्योंकि वैश्विक समाज ने यह तय कर दिया है कि 36-24-36 के साथ 45 किलो वजन और पाँच फुट दस इंच हाइट वाली स्त्री ही सुंदर स्त्री कहलाने की कहदार है। आज की स्त्री को चाहिए कि इस अदृश्य कॉरसेट को ठुकरा दे और उतनी ही दुबली हो जितनी वह नस्लगत और स्वाभाविक तौर पर हो सकती है। ‍िजतना ‍िक उसका स्वास्थ्य गवारा करे। उतनी ही पतली कमर अच्छी होगी ‍िजतनी कि ‍िकसी भी लड़की के व्यक्तिगत स्वाभाविक फ्रेम के अनुकूल होगी। अपने शरीर के अनुपात से ‍िकतने इंच की कमर में आप सुंदर लगेंगी, यह आप तय कीजिए, समाज को मत करने दीजिए। तभी आप वह सुंदरी होंगी, जो एक आजाद सुंदरी है।

- निर्मला भुराड़िया

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