आत्मा सोई हो तो धर्म कैसे जागे?
ईश्वर एक विश्वास है जिसके सहारे अधिकांश लोग जीते हैं। हम से ऊपर कोई है, यह अवधारणा इंसान के अहं को गलाती है। धर्म पहले-पहल अस्तित्व में क्यों आया होगा? शांति और करुणा के लिए ही न! भक्ति सिर्फ समर्पण का दूसरा रूप ही रहा होगा। पूजा और ध्यान निश्चित ही दिव्य आभास को पाने के मार्ग रहे होंगे। मगर आज क्या मनुष्य शर्तिया यह कह सकता है कि धर्म सिर्फ और सिर्फ हमारी आत्मा के सुकून के लिए है? नहीं। धर्म में दुनियाभर की राजनीति घुस आई है; भक्ति में पाखंड, पूजा में अंधविश्वास, कर्मकांडों का ऐसा बोलबाला है कि इसमें अध्यात्म ढूंढना मुश्किल काम हो गया है। बहुत थोड़े लोग हैं जो आध्यात्मिक आनंद में अपनी पूजा, अपना ईश्वर और मनुष्यता में अपना धर्म देख पाते हैं। जो अपने को आस्तिक कहते हैं, उनमें ईश्वर के प्रति प्रेम के बजाय एक अज्ञात सत्ता के प्रति भय अधिक दिखाई देता है। लगता है लोग 'विश्वास ही है आस्था का आधार' के बजाय, 'भय बिनु होय न प्रीति' के हामी हैं।
वैसे तो अपने आसपास फैली अंधश्रद्धा, रूढ़िवाद, कर्मकांड के हम रोज किसी न किसी रूप में दर्शन करते ही रहते हैं मगर फिलहाल उपरोक्त विचार आए एक मंदिर में घी के चढ़ावे वाला समाचार पढ़कर। इस मंदिर में अखंड ज्योति जलती है, इस हेतु भक्तों ने इतना घी चढ़ाया है और चढ़ा रहे हैं कि यहां घी के कुएं बनाने पड़े। और अब शुद्ध घी से नौ कुएं भर गए हैं! शुद्ध घी...! भारतीय परंपरा में इसे स्वाद और पौष्टिकता का राजा माना गया है। मगर यह दिव्य आहार निम्न आर्य वर्ग तो छोड़ो मध्यमवर्ग को भी सीधे से कहां नसीब होता है। आज के जमाने में जलेबियां और पूरियां तक तेल की खाकर लोग संतोष कर लेते हैं। मगर इलेक्ट्रिसिटी के जमाने में भी मंदिर में दिए जलाए जाते हैं, वह भी शुद्ध घी के। प्रथा में परिवर्तन करने से लोग डरते हैं, क्योंकि वे धार्मिक नहीं धर्मभीरू होते हैं। सही और तार्किक कदम भी नहीं उठाते क्योंकि अनिष्ट की आशंका से डरते हैं। जबकि समय-समय पर नई स्थितियों के अनुसार बदलाव हर रूढ़ हो चुकी चीज में होना चाहिए, चाहे वह धर्म से जुड़ी हुई ही क्यों न हो। मगर जो कट्टरपंथी हैं, वे धर्म के नाम पर कुछ नहीं सुनना चाहते, बदलाव तो दूर की बात है। हो सकता है हिन्दुस्तान में किसी वक्त घी-दूध की नदियां बहती हों। तब ऐसी कोई प्रथाएं विकसित हुई हों। मगर आज भी मूर्तियों पर दूध बहाया जाता है और मंदिर के बाहर बैठा नन्हा ईश्वर बिलखता है। एक पर्वत की परिक्रमा लोग दूध की धार बहाते हुए करते हैं, इतना कि परिक्रमा पथ पर दूध का कीच हो जाता है। क्या आपका ईश्वर इससे खुश होता होगा? जरा सोचकर देखिए। गर्मियां आ रही हैं नींबू महंगे हो जाएंगे, मगर क्या व्यापारीगण अपनी दुकानों के आगे नींबू मिर्ची के टोटके लगाना बंद कर देंगे? खाने वाले को चाहे चीजें न मिले, मगर हमारा अंधविश्वास दिन ब दिन और पुष्ट होता रहे, यही व्यवस्था हम निभाते हैं।कुछ दिनों पहले ही एक खबर पढ़ी थी कि मुरैना के एक कस्बे में एक दूध-फैक्टरी पर छापा मारा गया। वहां नकली दूध बन रहा ता। नकली भी ऐसा कि पढ़कर आपकी सांसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह जाएं। यहां दूध के नाम पर जहर बनाया, बेचा और पिलाया जा रहा था। फैक्टरी में ग्लूकोज पॉवडर में टॉयलेट क्लीनर, साइट्रिक एसिड व हाइड्रोजन पेरॉक्साइड आदि मिलाकर दूध के रंग का द्रव्य बनाया जा रहा था और उसे दूध कहकर बेचा जा रहा था! ऐसा दूध बनाने-बेचने वालों की आत्मा जाने कैसे ऐसा करने की गवाही देती है। क्या उन्हें इस दूध का सेवन करने वाले हजारों अनजान बच्चों के स्वास्थ्य के लिए डर नहीं लगता? नहीं, क्योंकि हममें से कई हैं जो व्यावहारिक जीवन में इंसान के प्रति बड़ी से बड़ी गलती करते हुए भी नहीं डरते, मगर मामला तथाकथित धर्म का हो तो पाषाण प्रतिमा के प्रति भी गलती करने से डरते हैं।
ऊपर शुद्ध घी के जिन कुंओं का वर्णन हुआ है, वहां नौ-नौ कुएं भर घी में भी न कोई मिलावट, न बेईमानी, न कोई चोरी होती है क्योंकि लोग मानते हैं कि घी के चढ़ावे में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी करने पर उन्हें श्राप लगता है। कुष्ठ, चर्म रोग आदि बीमारियां हो जाती हैं। मगर असल जीवन में बेईमानी करने में उन्हें डर नहीं लगता। खूब मजे से चोरी, भ्रष्टाचार, मिलावट होता है और किसी श्राप का डर नहीं लगता क्योंकि हमने आम जीवन की संवेदना और मनुष्यता को धर्म के दायरे से बाहर खदेड़ दिया है।
-निर्मला भुराड़िया
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