कराची
से संदेश है- हिरानी
साहब डटे रहें!
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फिल्म
बगैर देखे विरोध करने वालों के कुछ मुगालते साफ कर दिए जाने चाहिए। जैसे यह कि यह
फिल्म हिन्दू धर्म का विरोध करती है। तो पहली बात तो यह किसी भी धर्म का विरोध
नहीं करती। हां धर्म के नाम पर पनपी कुरीतियों पर जरूर चोट करती है, मगर सिर्फ हिन्दु धर्म की कुरीतियों पर
ही नहीं, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई सभी
की विसंगतियां इसके व्यंग्यबाणों के निशाने पर हैं। उदाहरण के तौर पर वह दृश्य
जिसमें यह बताया जाता है कि कुछ भी शाश्वत सत्य नहीं, सब की अलग-अलग मान्यताएं हैं, उसी के आधार पर हरेक का सच बदल जाता
है। इसमें नायक को एक सफेद साड़ी वाली स्त्री मिलती है तो बताया जाता है कि वह विधवा
है। वह चर्च के द्वार पर सफेद ड्रेस पहने दुल्हन को देखता है तो पूछता है आप विधवा
हैं तो चांटा खाता है और उसे कहा जाता है शोक का रंग तो काला होता है। तभी उसे
काले बुर्के में तीन स्त्रियां दिखती हैं। वह उनसे पूछता है, 'क्या आपके पति मर गए हैं', इस पर एक आदमी बल्लियां चमकाते हुए आगे
आता है, 'मैं हूं इनका पति!' यहां एक आदमी की तीन पत्नियां होने पर
तंज किया गया है। हम सब जानते हैं कि यह तंज किस समुदाय पर हुआ। विरोधियों को एक
शिकायत और है कि फिल्म में ईश्वर और धर्म का अपमान किया गया है। मगर हम अपनी संकीर्णता
परे रखकर देखें तो पता चलेगा कि ऐसा नहीं है। नायक कहता है उसे ईश्वर पर विश्वास
है। साथ ही वह एक कमर्शियल टाइप बाबा की ओर इशारा करके कहता है, मैं ईश्वर को मानता हूं मगर उस ईश्वर
को जिसने मुझे बनाया है, उस ईश्वर को नहीं
जिसे इन्होंने बनाया है। एक दृश्य में अंतरिक्ष से आया भोला नायक एक नवजात, वस्त्रहीन बच्चे को उठाकर उलट-पलट कर देखता है कि क्या इस पर कोई
ठप्पा लगा है जिससे पता चलता हो कि यह किस धर्म का है? इसी तरह के हल्के-फुल्के अंदाज में फिल्माए गए दृश्यों
से इस फिल्म में गहरे संदेश दिए गए हैं।
धरती
पर, मनुष्यों में धर्म
की अवधारणा क्यों आई होगी? निश्चित ही मानसिक
शांति के लिए। निश्चित ही दया, करुणा, धीरज, सहिष्णुता, सेवा, सहायता, मनुष्यता जैसे सदगुणों के लिए।
मगर धीरे-धीरे धर्म के नाम पर हिंसा और
असहिष्णुता ही प्रबल हो गई। धर्म की मूल प्रकृति तो छूट ही गई। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, पैगम्बर मुहम्मद, नानक, ईसा सभी अपने-अपने जमाने के सुधारवादी थे। मगर इनके
ही चेले आज अपने जमाने में पनपी कुरीतियों पर चोट नहीं करने देते। निहित स्वार्थी
पाखंडों को उजागर नहीं करने देते क्योंकि यह बना रहे तो कुछ की दुकान चलेगी और कुछ
की राजनीति। कट्टरपंथियों के भेजे से टकराकर हर तर्क लौट आता है और संकीर्ण सोच
वाला व्यक्ति तर्क जैसी चीजों के लिए अपने दिमाग में जगह ही नहीं रखता।
सोशल
मीडिया पर संकीर्णतावादियों का एक नारा लगातार चल रहा है- 'कराची में पीके बनाओ तो जानें।' तो जवाब यह है कि भई कराची में क्यों
बनाएं हम? हमें तो गर्व है कि
हम एक प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष देश
के वासी हैं और इसीलिए चंद लोगों के लाख विरोध के बावजूद हम ऐसी फिल्में बना और
चला पा रहे हैं। पाकिस्तानी, बीबीसी संवाददाता, वुसुतुल्लाह खान ने कराची में यह फिल्म
देखी और अपने ब्लॉग में लिखा, 'पीके देखनी है तो
उसके मैसेज पर ध्यान दें। यानी असली भगवान या खुदा की लोकप्रियता को कैश कराने के
लिए जिन पुरोहितों और मौलावियों ने फ्रंट कंपनियां खोलकर 'यहां असली खुदा और भगवान
मिलता है' का बोर्ड लगा रखा
है उनसे बचें।' वुसुतुल्लाह कहते
हैं जब शो खत्म हुआ तो भी तो मैंने कई दर्शकों को यह कहते सुना, '...ईमान से... हमारा मौलवी भी तो यही कर रहा है...।' वुसुतुल्लाह आगे कहते हैं, 'हिरानी साहब, आप डटे रहें, आपका हौसला बंटते-बंटते एक दिन यहां (पाकिस्तान) भी पहुंच ही जाएगा।'
-निर्मला
भुराड़िया
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