हिंदी के प्रसिद्ध लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे। 63 वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हो गया। यह एक बड़ी क्षति है भारतीय साहित्य के लिए ही नहीं, भारतीय समाज के लिए भी। भारतीय समाज अस्पृश्यता और जाति के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव के लिए कुख्यात रहा है। सवर्ण समाज ने अपने ही समान हाड़-मांस के इंसानों के साथ सदियों तक जिस क्रूरता का व्यवहार किया है वैसा तो कोई जानवरों के साथ भी नहीं करता। श्री वाल्मीकि ने अपनी पीठ उघाड़ कर ये घाव दिखाने का साहस किया ताकि समाज को अपना घिनौना चेहरा साहित्य
के आईने में दिखाई में दिखाई पड़ जाए। मराठी में दलित लेखन की परंपरा रही है। वहां दया पवार व नामदेव ढसाल, शांताबाई काम्बले
जैसे साहित्यकार रहे हैं। तमिल, तेलगु, मलयाली आदि भाषाओं में भी दलितों ने अपना दर्द बयान किया है। हिंदी में यह परंपरा थोड़ीसी देर से आई मगर जब आई तो यहां भी ओमप्रकाश वाल्मीकि, श्योराजसिंह बेचैन,
मोहनदास नैमिश्यराय, कंवल भारती, अनिता भारती जैसे लेखक आए। श्री वाल्मीकि ने हिंदी में अपनी आत्मकथा लिखी, जिसका शीर्षक है 'जूठन"। जब यह किताब पढ़ी तो वस्तुत: रोंगटे खड़े हो गए कि भला एक इंसान भी दूसरे इंसान से इस तरह का व्यवहार करता है? एक इंसान दूसरे इंसान को नारकीय यातनाएं देता है सिर्फ इसलिए कि उसने किसी खास जाति में जन्म लिया। 'जूठन" मैंने स्वयं दो-तीन बार पढ़ने के बाद अपनी कॉपी परिवार, मित्रों और सहयोगियों में पढ़ने के लिए घुमाना प्रारंभ की। मगर इसी श्र्ाृंखला में वह कहीं खो गई है या शायद किसी के पास रह गई है। उपहार स्वरूप देने के लिए भी खरीदी थी पर फिलहाल एक भी कॉपी मिल नहीं रही। अत: पाठकों के लिए, इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री से ही कुछ अंश खंगाल कर परोसने का प्रयास कर रही हूं ताकि दलितों के दर्द की एक छोटी सी झलक यहां प्रस्तुत हो सके।
श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि के ही शब्दों में,'पिताजी मुझे लेकर बेसिक प्राइमरी विद्यालय गए। वहां मास्टर हरफूलसिंह थे। उनके सामने पिताजी ने गिड़गिड़ा कर कहा, 'मास्टरजी थारी मेहरबानी हो जागी जो म्हारे इस बच्चा कू बी दो अक्षर सिखा दोगे।" बहुत चक्कर लगाने के बाद स्कूल में दाखिला तो हो गया मगर जनसामान्य की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया। स्कूल में दूसरों से दूर जमीन पर बैठना पड़ता। पीछे के दरवाजे के पास। प्यास लगे तो हैंडपंप के पास खड़े रहकर किसी के आने का इंतजार करना पड़ता। लड़के तो पीटते ही हैंडपंप छूने पर मास्टर भी सजा देते थे। तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते ताकि मैं स्कूल छोड़कर भाग जाऊं और उन्हीं कामों में लग जाऊं जिनके लिए मेरा जन्म हुआ है। उनके अनुसार
स्कूल आना मेरी अनाधिकार चेष्टा थी।"
यहां हम कुछ पंक्तियां दे पा रहे हैं पूरी आत्मकथा पढ़ने पर खून खौल उठता है और अपने तथाकथित उच्च वर्ण के होने की वजह से शर्म भी आती है। बच्चा पढ़ने जाता और अध्यापक उससे रोज पूरे स्कूल की झाड़ू लगवाते, कक्षा में नहीं बैठने देते। लात-घूंसों से पिटाई, गालियों और अपमान जनक भाषा में बात सामान्य थी।
जब कभी यह गाना बजता है- है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूं," तब यह पंक्तियां 'काले-गोरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है" सुनकर हंसी आ जाती है अपने इस कोरे दंभ पर ! हमारे यहां नस्लभेद न सही जातिभेद तो रहा है और सवर्ण में भी तो वर्ण है। फिर रंगभेद और वर्णभेद में क्या फर्क है? अब संविधान ने हम सबको बराबरी का दर्जा दे दिया है, समाज भी काफी हद तक बदला है मगर फिर भी भेद-भाव के छींटे अक्सर दिख जाते हैं। मैंने स्वयं ने ऐसी कई स्त्रियां देखी हैं जो एक खास जाति के व्यक्ति के हाथ का बना खाना ही खाती हैं। हमारे गांव-कस्बों में आज भी कई लोग हैं जो हममें से ही कुछ इंसानों को निम्न मानते हैं और उनके हाथ का परोसा 'कच्चा खाना"
नहीं खाते। कुछ जातियों के लोगों के लिए बर्तन-गिलास अलग रखना, छुआ-छूत पालना यह भी अब भी होता है। भारतीय राजनीति ने समाज में फैले जातिवाद को बढ़ावा ही दिया है कम नहीं किया है। दलित और सवर्ण के नाम पर आज भी खून खराबा होता है, राजनीति इसे और उकसाती है। समाज ने भी अंतरजातीयता को प्रोत्साहित करने के बजाए जात-कुटुंब-समुदाय के खेमे बनाए हैं और इन्हीं में, आपस में विवाह संबंध किए जाते हैं। गर्व से घोषणा होती है, 'फलां जाति का परिचय सम्मेलन।"
जरूरत पड़ने पर हम 'उलटे-जातिवाद" को कोसना नहीं भूलते। मगर अपने गिरेबान में झांकना फिर भी भूल जाते हैं।
जाति के नाम पर लूट लेने से अब कोई नहीं बचा है , इसलिए किसी एक जाति को ही जातिवाद के लिए दोषी साबित नहीं किया जा सकता !
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