बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

मिट्टी के कौए

नेवले और साँप की लड़ाई के बारे में बहुत कुछ कहा जाता है। नेवला साँप से नहीं डरता। दरअसल नेवला एक ऐसी जड़ी-बूटी के बारे में जानता है, जो साँप का जहर उतारती है। साँप से लड़ाई के पश्चात नेवला भाग कर जंगल में जाता है, उक्त जड़ी के इस्तेमाल के लिए। ग्रामीण अंचलों में रिवाज रहा है नेवले का पीछा करके इस जड़ी को लाने का, ताकि किसी मनुष्य को साँप के काटने पर नेवले की जानकारी का अपने लिए इस्तेमाल किया जा सके। अधिकांश पशु-पक्षियों में ऐसी अद्वितीय क्षमताएँ होती हैं, जो इंसानी क्षमताओं से बहुत ऊपर है। जैसे कबूतरों में अद्भुत दिशा बोध होता है, उनके मस्तिष्क में निहित विशिष्ट चुम्बकीय अवयव के कारण। कुत्तों की घ्राण शक्ति का इस्तेमाल मनुष्य जासूसी के लिए करता ही आया है। बिल्लियों में भी भूम्कप, तूफान आदि प्राकृतिक आपदाओं का पता लगा लेने की अद्भुत शक्ति होती है। कहते हैं बिल्ली के मुँह में नाक के छिद्र के करीब एक विशेष अवयव होता है। इसे जेकबसन्स ऑर्गन कहा जाता है। इसके जरिए न सिर्फ बिल्ली की सूँघने की क्षमता बढ़ जाती है, बल्कि यह अवयव बिल्ली की छठी इंद्री की तरह काम करता है। जेकबसन्स अवयव के जरिए बिल्लियाँ तूफान के पहले वातावरण में बिखरे ऑयन्स को पकड़ लेती है। बिल्ली की मूँछें हल्के से कंपन को भी नाप लेती है।

जानवरों की इन क्षमताओं को पारंपरिक ज्ञान में हमेशा स्थान मिला है और मनुष्य ने इसका विश्लेषण कर पशुओं की योग्यताओं का फायदा इंसानी समाज को भी दिया है। यह पारंपरिक बुद्धिमत्ता कहावतों और किस्सों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ाई गई। कुछ बुद्धिमत्ता शगुन विचार के रूप में भी बता दी गई, ताकि आमजन भी इसका उपयोग कर लें, लेकिन बात जब बदलना शुरू होती है तो मूल बात कहीं की कहीं रह जाती है। बिगड़े हुए रूप में तर्क बगैर अपनाया गया पारंपरिक ज्ञान रूढ़िवाद और अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। जैसे कि बिल्ली की अद्वितीय क्षमताओं को समझने की बजाय यह मान्यताएँ चल पड़ीं कि बिल्ली यमराज को देख लेती है। उसका रोना अपशगुन है। बिल्ली रास्ता काट जाए तो काम नहीं होता वगैरह-वगैरह। अंधविश्वासी इंसान ने आपातकाल में बिल्ली को उसकी क्षमताओं के कारण मार्गदर्शक मानने की बजाय उसे भय और अपशगुन का प्रतीक मान लिया। अँधेरे में, पीली आँखें चमकाती काली बिल्ली किस्से-कहानियों की दुष्टात्मा बन गई।

दरअसल पशु, पक्षी, पेड़, प्रकृति के बगैर इंसान की कोई गति नहीं है। इनसे हेल-मेल रखना, इनको अपनी जीवनचर्या में शामिल करना, उनकी रक्षा करना, इंसान का कर्तव्य भी है और इसी में उसकी भलाई भी है। प्रकृति का चक्र टूटने पर इंसान कैसे बचेगा, मगर प्रकृति के साथ जुड़ने की प्रथाओं को इंसान कैसे रूढ़ि में परिवर्तित कर लेता है उसका एक उदाहरण। कटते वनों, बढ़ते मशीनीकरण, शहरीकरण की वजह से कौए लुप्त हो रहे हैं। अत: हरिद्वार में लोग मिट्‍टी के कौए बनाकर पिंडदान कर देते हैं और पुरखों को काग-कौर उस नकली-निर्जीव कौए के जरिए दे डालते हैं। यानी मिट्‍टी के कौए को खीर-पूड़ी खिलाकर रस्म निभा देते हैं! काश! ऐसा करने की बजया लोग पेड़ लगाएँ और प्रकृति की रक्षा करें, ताकि असली कौए न खत्म हो तभी कौओं को खिलाने की रस्म का कोई मतलब होगा। अन्यथा पारंपरिक बुद्धिमत्ता सिर्फ कर्मकांड और रूढ़ि बनकर रह जाएगी।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

जब 'फेल' का मतलब हो 'पास'

तानाशाही, भ्रष्टाचार और दमन तले जी रहे कुछ अरब मुल्कों में वर्षों से भीतर सुलग रही आँच ने आग पक़ड़ ली है और अब वहाँ तख्ता पलट क्रांतियाँ हो रही हैं। इस आँच को फैलाने में फेसबुक, ट्विटर, गूगल, ईमेल जैसे सूचना क्रांति मंचों की बहुत ब़ड़ी भूमिका रही है। स्वतंत्र मीडिया की अनुपस्थिति में आजाद दुनिया की हवा लगना और विचार शक्ति के माध्यम से एक-दूसरे से संपर्क करना वहाँ मुश्किल ही था। इंटरनेट ने उन्हें यह मौका दिया। हम भारतीय भाग्यशाली हैं कि हमें जन्म के साथ ही प्रजातंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता मिली। हमारे देश में आजाद मीडिया है, जिसका लुत्फ हम उठाते रहे हैं। बावजूद इसके हमारा मीडिया बाजार की लक्ष्मण रेखाओं के भीतर रहकर ही उ़ड़ता है। अतः हम भारतीयों के लिए भी इंटरनेट जैसे परम आजाद माध्यम अंततः आकाश की उ़ड़ान साबित हुए हैं। फेसबुक, ट्विटर, गूगल की सक्रियता के अलावा कई भारतीयों ने अपने ब्लॉग बना लिए हैं, जो अंग्रेजी, हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं में धुआँधार चल रहे हैं। यह अद्भुत मीडियम है, यहाँ आप किसी भी फॉर्मूले से बँधे नहीं हैं, न ही शब्द संख्या या स्थान की सीमा से। आप जिस भी ढंग से, जिस भी फॉर्मेट में, जिस भी विधा या अविधा में चाहें, अपनी बात कह सकते हैं और वह बात पलक झपकते ही अनगिनत लोगों तक पहुँच जाती है। अतः भारत में भी सामाजिक जागरण में इंटरनेट जैसे माध्यम की बहुत महती भूमिका हो सकती है और वह होगी भी।

भारतीय लोगों को सफलता और असफलता के लिए "पास" और "फेल" जैसे शब्द जल्दी समझ आते हैं। पास होने की तरफ हम सारा जोर लगा देते हैं, फेल होने की तरफ हम देखते भी नहीं, उससे सबक लेना दूर की बात है। दूसरे यह भी तो हो सकता है, कौन पास है? कौन फेल? इसको आंकने का हमारा पैमाना ही गलत हो। फेल होने से भी बहुत-सी सफलताएँ जुड़ी हैं। "फेल" भी एक आईना है। बस, यही बातें मनोरंजक तरीके से बताने के लिए failblog.in जैसे ब्लॉग अस्तित्व में आ गए हैं। ये ब्लॉग्स कभी किसी विसंगति पर नजर डालते हैं, जैसे एक दीवार पर पोस्टर लगा है "साफ सुथरापन ईश्वर तुल्य है" मगर यह पोस्टर बहुत ही गंदी दीवार पर चिपका है। पोस्टर खुद मटमैला और कीच़ड़ के दाग-धब्बों से सना है। किसी रेस्टोरेंट के मेनु बोर्ड पर "सेंव-पूड़ी" को "शेव-पूरी" लिख दिया गया है तो उसकी तस्वीर भी यहाँ उपलब्ध है। कुछ विचित्र फेल भी यहाँ हैं जैसे एक श्वान एक पोस्टर में छपी खाद्य सामग्री देखकर लालायित हो गया है, मगर खा तो सकता नहीं। इस तस्वीर के साथ भी फेल लिखा है, जो श्वान की असफलता के साथ ही मृगतृष्णा की ओर भी इशारा करता है। इस तरह के ब्लॉग्स में कोई भी अपनी एंट्री भेज सकता है। ये अभिव्यक्तियाँ पास और फेल की नए ढंग से विवेचना करने को प्रेरित करती हैं। जैसे कि कुछ चीजों को फल समझने वाला दरअसल स्वयं फेल है। मसलन अपने कार्य को अच्छे से अंजाम देने वाले को हम यथोचित सम्मान नहीं देते। कोई अच्छा शिक्षक है, अच्छा पोस्टमेन है, अच्छा ट्रेफिक पुलिस है तो क्या हम इस बात को सम्मान देते हैं कि वह अपना काम अच्छे से कर रहा है? दरअसल यहाँ फेल हम हैं, क्योंकि हम दूसरों के पास और फेल को उनके कार्य से नहीं उनके पैसे से तौलते हैं, भले वह कहीं से भी आया हो। फिर हम भ्रष्टाचार के खिलाफ युद्ध कैसे लड़ेंगे! क्योंकि हम तो खुद पैसे की लकदक में लदे भ्रष्टाचारी को मान्यता देते हैं। दौलतमंद को पास मानते हैं, सामान्य काम करने वाले सामान्य लोगों को फेल। किसी भी सामाजिक क्रांति के लिए जरूरी है कि हम इस फेल्यूअर को देखें।

- निर्मला भुराड़िया

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

जरा देखिए पलटकर

पाकिस्तान में लेखक-फिल्मकार गुलजार का पुश्तैनी घर था। गुलजार उस घर को पुनः देखने जाने से बचते रहे। उनका कहना है उनकी स्मृति में उस घर का प्रवेश द्वार विशाल है। एक बच्चे के कद और नजरों ने वह आकार अंकित किया हुआ है। यदि वे अब वहाँ जाते हैं तो वह दरवाजा छोटा हो जाएगा। हाल ही में एक बाल मंदिर में पूर्व छात्रों का एक समारोह हुआ था। इसमें ऐसे छात्र-छात्राएँ भी थे, जो तीस-पैंतीस या चालीस साल बाद अपने बचपन के उस विद्यालय का नजारा कर रहे थे जिसमें वे पहली से पाँचवीं तक पढ़े थे। अधिकांश ने कहा हमें जो खिड़की-दरवाजे बड़े लगते थे वे अब छोटे-छोटे लग रहे हैं। हालाँकि उन्हें यह बात बुरी नहीं लग रही थी। वे तो पूरे स्कूल का मुआयना करना चाहते थे। अपनी नजर में बदले हुए स्कूल के आकार को देखना और उसे अपनी स्मृतियों से तौलना अच्छा लग रहा था। खैर, अपना-अपना तरीका है। यहाँ मुद्दा यह है कि उम्र के पड़ावों के परिवर्तित होने के साथ ही दृष्टि बदलती जाती है। चीजों के आकार देखने वाली भौतिक दृष्टि ही नहीं, मनोवैज्ञानिक और भावनात्मक दृष्टि भी।

हाल ही में एक फिल्म आई थी "टर्निंग थर्टी"। अभिनेत्री गुल पनाग ने इसमें मुख्य भूमिका अदा की थी। इसमें एक युवती के तीस साल की उम्र में प्रवेश करने पर उसकी प्राथमिकताएँ और जीवन के प्रति उसका नजरिया बदलने पर कहानी फोकस की गई है। युवती ही क्यों, स्त्री-पुरुष दोनों में ही उम्र के विभिन्ना पड़ावों पर मानसिकता बदलती है। और तीस ही क्यों चालीस-पचास पर भी दुनिया अलग चश्मे से दिखाई पड़ने लगती है। मतलब यह नहीं कि व्यक्ति के मूल स्वभाव में अंतर आता है या वह उम्र के साथ कम या ज्यादा आदर्शवादी अथवा कम या ज्यादा भ्रष्ट हो जाता है। अंतर आता है भावनात्मकता में और अपने ही जीवन को देखने की दृष्टि में। मसलन सत्रह साल की उम्र में किसी ने कोई किताब पढ़ी है उसे वह पैंतीस की उम्र में फिर पढ़ेगा तो उसे और गहरे अर्थ समझ आएँगे। बौद्घिक समझ के अनुसार उसने वह पुस्तक सौ प्रतिशत ग्रहण कर ली होगी तब भी परतों में छुपे दार्शनिक अर्थ बाद में पकड़ में आएँगे।

एक और परिवर्तन चालीस-पचास की देहरी पर खड़े स्त्री-पुरुषों में आने लगता है। वे अक्सर पलटकर देखते हैं। इसे कोरा नॉस्टल्जिया नहीं कहा जा सकता। कितनी दूर तक चलकर आए यह देखना एक मीठा एहसास भी होता है। इस उम्र में युवावस्था के हारमोन उत्तापे करना बंद कर देते हैं। तूफान गुजर जाने के बाद की शांति में घर का सुरक्षित टापू अच्छा लगने लगता है। अपने एंकर यानी पति या पत्नी की महत्ता बेहतरीन तौर पर समझ आती है। युवावस्था में पुरुष में टेस्टोस्टेरॉन और महिला में एस्ट्रोजन उफान पर होता है। चालीस के बिंदु पर ये ड्रॉप हो जाते हैं। वैसे भी कहा जाता है कि हर पुरुष में कुछ प्रतिशत स्त्रीत्व का और हर स्त्री में कुछ प्रतिशत पुरुष का होता है। पर चालीस पार पुरुषों में स्त्रियोचित कोमलता, भावनात्मकता बढ़ती दिखाई देने लगती है, स्त्रियों के हृदयाघात की आशंकाएँ बढ़ती हैं।

उम्र के इस मोड़ पर दोनों ही अपनी जड़ों को तलाशने लगते हैं। जवानी में करियर, बच्चों को बड़ा करने में व्यस्त अपनी युवा दुनिया में मस्त लोगों को बाद में अपने भाई-भतीजे, परिवार, माँ-बाप, पुरखों के घर, बचपन के मित्र-परिचित फिर याद आने लगते हैं। इसमें कुछ भी गलत नहीं है। जीवन की दौड़ में बिछुड़ों से मिलने का सुख इस मोड़ पर उठाया जा सकता है। अपनत्व और स्थायित्व का आभास इस उम्र का इनाम है। इसका आनंद उठा लिया जाना चाहिए। आखिर उम्र के इस मोड़ पर ही तो यह एहसास भी गाढ़ा होता है कि जिंदगी हमेशा के लिए नहीं है। तो क्यों न उसे थोड़ा जमकर जी लें।

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

सबको जलाएगी ये अगन!

नासिक के एडिशनल डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर यशवंत सोनवणे ने अपना कर्तव्य करते हुए पेट्रोल में घासलेट मिलाने वाले मिलावटखोरों पर छापा मारा और लौटते में एक और व्यक्ति को रास्ते में ही मिलावटखोरी के लिए रंगे हाथों पकड़ा तो पेट्रोल मिलावट माफिया के गुंडों ने उन्हें वहीं जिंदा जला दिया। इस लोमहर्षक घटना ने हिन्दुस्तानी समाज में कई विचलित करने वाले प्रश्न उठा दिए हैं। क्या मिलावटियों का साहस इतना बढ़ गया है कि वे एक अफसर को सरेराह जीते-जी जला दें? अराजकता और कानून-व्यवस्था के लोप का यही आलम है कि गुंडों को पता होता है कि कोई उनका बाल भी बाँका नहीं कर सकता। थोड़े दिन जुलूस निकलेंगे, हलचल होगी, सरकारें कड़ी कार्रवाई करने का आश्वासन देंगी और फिर सब कुछ जस का तस होगा। अपराधी फिर मौज मनाने लगेंगे। इक्के-दुक्के को सजा हो भी गई तो माफिया का गहरा संजाल नहीं टूटने वाला।

वैसे भी हमारे समाज में मिलावट एक ऐसा रोग हो गया है, जिसमें बड़े-बड़े संगठित माफिया ही सक्रिय नहीं हैं बल्कि सामान्य व्यापारी, विक्रेता और उत्पादनकर्ता भी नकली और मिलावटी माल बेचने में सिद्धहस्त हैं। कभी घी में मिलावट की खबरें आती हैं, कभी दूध में मिलावट की। मसाले हों या मिठाइयाँ मिलावट से कुछ भी मुक्त नहीं है। हम जीवन की छोटी-छोटी चीजों पर भी गौर करेंगे तो पाएँगे कि सामान्य जीवन की कई चीजों में मिलावट नजर आती है। जैसे सामान्य कंकू होता है, भाल पर तिलक लगाने का। आप पाएँगे कि उसका रंग अब चटख लाल नहीं, गुलाबीपन वाला लाल होता है। कंकू पोंछने के बाद भी भाल पर एक गुलाबी धब्बा-सा रह जाता है, जो बहुत रगड़ कर पोंछने के बाद मुश्किल से छूटता है। कुछ सालों पहले तक जब लड़कियाँ मेहँदी लगाती थी, रात को नींद खुलती तो अपनी हथेलियाँ सूँघती और लाइट जलाकर मेहँदी के रंग को नारंगी से हल्के लाल में बदलते हुए देखती थीं। अब मेहँदी में वह खुशगवार खुशबू नहीं आती। उत्फु ल्ल लाल की बजाय वह काले-काले रंग में रचती है। हर चीज में मिलावट इतनी आम हो गई है कि विश्वास का भी संकट हो गया है। मिलावट संबंधी कई किंवदंतियाँ चल पड़ी हैं, जिनमें से कई सही हैं और कुछ अतिशयोक्तियाँ भी। आप हरा-भरा धनिया देखेंगे तो आपको लगेगा जरूर, इस पर हरा रंग छिड़का गया है। कभी कोई कहेगा कि तरबूज को मीठा करने के लिए इंजेक्शन लगा दिया गया, तो कोई कहेगा बासी सब्जी ताजी दिखाने के लिए कोई केमिकल छिड़का गया है। सेब पर मोम की पॉलिश होने का संशय भी आम है, जो कि सच भी हो सकता है। इंदौर में पुलिस हेलमेट के लिए सख्त हुई तो नकली आईएसआई मार्क लगाकर नकली, कच्चे हेलमेट बिकने लगे। लोगों के प्राण लेने की कीमत पर भी खुद के चार पैसे कमाना आत्मा को चुभता नहीं। इन सामान्य चीजों में कोई बड़े-बड़े माफिया काम नहीं कर रहे हैं, हम सब आम लोग ही एक-दूसरे को ठग रहे हैं, जिसके हाथ में जो चीज आ जाए, उसमें थोड़ा-सा पैसा कमाने के लिए आदमी अपना जमीर बेच देता है। ऊपर से तुर्रा यह कि जब सब ही यह कर रहे हैं तो हम भी क्यों न करें। गोया कि सब कुएँ में कूद रहे हैं तो हम भी कूद जाएँ। ऐसे में एक मिलावटी केमिस्ट की कथा याद आती है। कथा का यह केमिस्ट नकली इंजेक्शन बनाया करता था। इसके इंजेक्शन से कई बच्चों की मौत हो गई थी। वह अपने घर के लोगों को कभी अपनी फार्मेसी की दवाइयाँ नहीं लेने देता था, मगर एक दिन उसका बच्चा बीमार हुआ। दुर्योग से केमिस्ट शहर के बाहर था। सेल्समैन ने केमिस्ट के बच्चे के लिए अपनी फार्मेसी का इंजेक्शन दे दिया। बच्चा नहीं रहा। यह तो एक रूपक कथा है, मगर भारतीय समाज की हालत अभी यही है। हम सब एक-दूसरे को मिलावट का जहर दे रहे हैं जिसकी अगन किसी-न-किसी रूप में स्वयं के घर पहुँचना ही है। संगठित माफियाओं को सजा मिलने के साथ ही हम सबका सामूहिक जमीर जागना भी आवश्यक है वर्ना रोजमर्रा के जीवन की हर चीज नकली, प्रदूषित और अस्वास्थ्यकर होगी। इसका खामियाजा आम जनता के साथ ही स्वयं मिलावटखोरों को भी भुगतना होगा।

- निर्मला भुराड़िया

मंगलवार, 1 फ़रवरी 2011

चौदहवाँ मेहमान!

भविष्य के गर्भ में क्या है, मृत्यु के पार क्या है? इन सवालों के जवाब इंसान नहीं जानता। और जबसे इंसान का अस्तित्व रहा है तभी से यह सवाल उसे इतने भयातुर करते रहे हैं कि उसने अपने आसपास कई अंधविश्वास गढ़ लिए। यह दुनियाभर की सभ्यताओं और संस्कृतियों में हुआ है। जैसे पश्‍चिमी देशों में अधिकांश जगहों पर 13 का अंक अशुभ माना जाता है। इसके चलते अभी बीसवीं सदी के अंतिम समय तक फ्रांस के कई हिस्सों में एक अजीब सी परंपरा रही है जिसके तहत किसी भी दावत के लिए एक 'चौदहवाँ मेहमान' तैयार रखा जाता था। इसलिए कि कभी दावत में 'तेरह' लोग पधार गए तो अपशकुन हो सकता है। अत: इस सूरत में उस चौदहवें भले आदमी को भी दावत में शामिल कर लिया जाएगा, ताकि अपशकुन टल जाए! इस चौदहवें वैकल्पिक मेहमान को बाकायदा 'क्वाटोर जिमी' कहा जाता था। इसी तरह ब्रिटेन के एक शहर में स्थानीय प्रशासन द्वारा मकानों के नंबर बदले जा रहे थे। इस हेर-फेर में एक महिला के मकान का नंबर तेरह हो गया। वह अपने केस को स्थानीय अदालत में ले गई यह दावा करते हुए कि मकान का नंबर तेरह हो जाने से उसकी संपत्ति का मोल कम हो गया है। कोर्ट में कई हाउस एजेंटों ने शपथ ग्रहण करके महिला के पक्ष में बयान दिए कि सचमुच तेरह नम्बर का घर कौन खरीदेगा? यही वजह है कि पश्चिमी देशों में आज भी होस्टलों, बहुमंजिली इमारतों, होटलों इत्यादि में तेरह नम्बर का माला या रूम नंबरतेरह नहीं रखा जाता! चाहे बारह से सीधे चौदह नम्बर पर आ जाएँ या बारह-ए, बारह बी, कर दें। पश्चिमी जगत में और भी अंधविश्वास प्रचलित रहे हैं जैसे कि सीढ़ियों के नीचे की जगह अपशकुनी मानी जाती है, काँच के पार से दूज का चाँद नहीं देखा जाता... वगैरह।

लेकिन विज्ञान के पदार्पण से पश्चिमी जगत में बहुत परिवर्तन हुआ है। हम भारतीय चाहे वक्त के साथ-साथ रू‍ढ़िवाद में और जकड़े हों। आधुनिक से आधुनिक भारतीय द्वारा भी टाई की नॉट ढीली करते ही ब्रांडेड शर्ट की कॉलर के पीछे जंतर-मंतर वाला ताबीज नजर आ स कता है। जाहिर है कि हमने पश्‍चिम से सिर्फ कपड़े ही उधार लिए हैं, वैज्ञानिक सोच नहीं। प्राचीनकाल में उन्नत रही हमारी संस्कृति में भी जो परंपराएँ वैज्ञानिक सोच के तहत गढ़ी गई थीं, उनके पीछे की वैज्ञानिकता भी हमें आज याद नहीं रही सिर्फ 'छू-छा' याद रही। उसके पीछे के सोच को नहीं कर्मकांडों को ही हमने अपनाए रखा। अत: जरूरी है कि इन दिनों पश्‍चिमी प्रयोगशालाओं में हो रहे कुछ शोधों पर हम गौर फरमाएँ। ये शोध बतलाते हैं कि दरअसल अपशकुनों से कुछ नहीं होता। जो मनुष्य शकुन-अपशकुन विचार करता है उसके भयभीत मन की प्रतिक्रिया में ही तनाव के रसायन छोड़ने वाली ग्रंथियों के जरिए शरीर पर बुरा घटित होता है। कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी ने एक अध्ययन में यह तथ्य प्राप्त किया कि दुनिया की अलग-अलग संस्कृतियों के लोगों को अलग-अलग अपशुन देखकर तनाव होता है या दिल का दौरा तक आ सकता है। यानी एक जापानी और एक भारतीय कहीं जाने को तैयार हैं और किसी तीसरे को छींक आ जाए तो अपशकुन की घबराहट में तानव सिर्फ भारतीय का बढ़ेगा जापानी का नहीं, जबकि एक ही घटना दोनों के साथ हुई है। इसी तरह तेरह नंबर का कमरा मिलने पर एक ब्रितानी विद्यार्थी का रक्तचाप बढ़ेगा पर एक भारतीय का नहीं। यानी कि अपशकुन का प्रभाव पूरी तरह हमारे सोच पर निर्भर है, सचमुच में अपशकुन के प्रभाव पर नहीं। यानी आप तथाकथित अपशकुन पर ध्यान न दें, तो वह आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा।

हमें अंधविश्वासों को इसलिए भी त्यागना चाहिए कि वे सिर्फ बीमार और नकारात्मक जीवन पद्धति को ही जन्म नहीं देते बल्कि कई बार तो अंधविश्वासों की वजह से लोग नृशंसता की हद तक पहुँच जाते हैं। अखबारों की कतरनें साक्षी हैं कि बीसवीं-इक्कीसवीं सदी के भारत में ही ऐसी एक नहीं कई घटनाएँ हुई हैं, जहाँ धन के लालच में लोगों ने किसी बच्चे की बलि दे दी। यहाँ अंधविश्वास और लालच के मेल ने बर्बरता को जन्म दिया तो कई बार अंधविश्वास मूर्खता के साथ मिलकर भी हादसे कर देता है। 1996 की खबर है एक ग्रामीण को उसके मित्रों ने कहा कि इस बार दशहरे और नवमी दोनों एक साथ हैं और ऐसे में संयोग से किसी की भी मृत्यु हुई हो तो वह व्यक्ति स्वर्ग में जाता है! और उस युवक ने दशहरे की शाम आत्महत्या कर ली। सामान्य जीवन पद्धति में भी वैज्ञानिक सोच के बजाए अंधविश्वास का सहरा लेना बेहद घातक होता है। हमारे यहाँ मानसिक समस्याओं में भी लोग चिकित्सा करवाने के बजाए झाड़-फूँक करते और भूत भगाते नजर आते हैं, जबकि इस सदी में उच्च दर्जे की मनोचिकित्सा उपलब्ध है।

- निर्मला भुराड़िया