शुक्रवार, 6 मई 2011

मौत की खुशी में!



अफ्रीकी देश घाना से जाकर न्यूयॉर्क में बसे लोगों के बारे में एक रिपोर्ट पढ़ रही हूँ। रिपोर्ट यह है कि घानावासियों में रिवाज है कि किसी की मृत्यु हो तो वे पार्टी देते हैं। पार्टी में अच्छे-अच्छे कपड़े पहनना, खूब नाचना-गाना, खाना और पीना-पिलाना भी होता है। न्यूयॉर्क में बसे घानावासी भी यही करते हैं। देश में किसी की मृत्यु हो या न्यूयॉर्क में ही कोई घानियन मरे तो सब दोस्तों और परिचितों को 'फ्यूनरल-पार्टी" दी जाती है। इसमें परिवारजन मृत व्यक्ति की तस्वीर वाली टी-शर्ट पहनते हैं, उसकी फोटो लगाते हैं। जिसके अपने, जैसे कि समझो माँ की मृत्यु हुई है, वह इस तरह दोस्तों को न्योतता है, 'मैं अपनी माँ के जीवन का जश्न मना रहा हूँ, आपको इस दिन फलाँ जगह आना है।"
हम हिन्दुस्तानियों ने तो मृत्युभोज जैसे शब्द सुने हुए हैं। भारतीय परंपरा में मृत्यु को अंत नहीं माना जाता, बल्कि यह माना जाता है कि आत्मा अब अगले पड़ाव में जाएगी, नए शरीर में फिर जन्म लेगी। कोई यहाँ संपूर्ण जीवन जी लेने के बाद जाता है तो गाजे-बाजे के साथ शवयात्रा निकाली जाती है। मृतक की पसंद का भोजन बनाया जाता है और सबको खिलाया जाता है। इसके पीछे मृत्यु का भी उत्सव मनाने का दर्शन है या नहीं पता नहीं, मगर शायद ये रस्में दु:खी परिजनों को संबल देने के लिए बनी होंगी कि वह खुद को समझा सके कि जीवन अनंत है और वे बिछुड़े नहीं हैं फिर मिलेंगे वगैरह-वगैरह। साथ ही ये रस्में शायद इसलिए बनी होंगी कि दु:खीजन अकेले पड़ जाएँ, अवसाद में चले जाएँ, परिचित लोग उनके आसपास हलचल बनाए रखें। कहीं-कहीं तो दु: के विरेचन के लिए ऐसी प्रथा भी है कि जैसे ही कोई आगंतुक शोक-बैठक में प्रवेश करता है, महिलाएँ जोर-जोर से रोने की आवाजें निकालने लगती हैं। कुछ नकली रोने वालों के साथ-साथ असल में गुबार निकालने की इच्छा रखने वाले का भी मेंटल ब्लॉक खुल जाता है और सब लिहाज छोड़कर लोग ढाँय-ढाँय रो लेते हैं, हल्के हो जाते हैं। सामाजिकता दु: के भार को हल्का तो नहीं करती, पर ढोने में मदद अवश्य कर देती है। लेकिन जैसा कि सामाजिक परंपराओं के साथ अक्सर होता है लोग उनका मूल अर्थ बिसरा देते हैं और उन्हें कुप्रथा के रूप में ढोते हैं। परंपरा धीरे-धीरे रूढ़ि बन जाती है। जैसे घाना वाले मामले में हुआ है। शुरू-शुरू में तो न्यूयॉर्क में 'फ्यूनरल पार्टी" एक जगह एकत्रित होने का, पराए देश में अपने वालों से मिलने का बहाना थी। इसमें फंड रेजिंग भी होता था जिससे मृतक के परिवार को सब मिलकर आर्थिक सहायता कर देते थे। धीरे-धीरे ज्यादा से ज्यादा धमाकेदार पार्टी देना नाक का प्रश्न होता गया। फ्यूनरल पार्टी एक ऐसी प्रतिस्पर्धा बन गई कि किसने किस से ऊँची पार्टी दी इसकी भी चर्चा होने लगी। फिर स्थिति यह आई कि मौत को महज पार्टी देने का बहाना बना लिया गया। किसी की कजिन की भतीजी का पति मरा है वह भी चार महीने पहले तो उसकी भी पार्टी होने लगी।
भारत में भी ऐसी स्थितियाँ दिखती हैं। अब यहाँ मृत्युभोज में जीवन की अनंतता का दर्शन नहीं दिखता। लोग कर्ज लेकर भी गाँव जिमाते हैं क्योंकि यह 'लोग क्या कहेंगे" और प्रतिष्ठा का सवाल हो गया है। रिश्तेदार आपकी भावनाओं का विरेचन कितना कर पाते हैं यह तो पता नहीं लेकिन रस्मों की आड़ में लेन-देन खूब चलता है और नुक्ता-चीनी भी! दूरदराज के रिश्तेदार की मृत्यु पर लोग काम-काज छोड़कर बैठक लगा लेते हैं, भले दु: हुआ हो कि नहीं रिवाज निभाया जाता है। भले जब वो रिश्तेदार जीवित हो, बीमार हो, उसे सहायता की जरूरत हो तब घंटेभर का भी समय नहीं निकाला जाता। इन सब बातों के आकलन में रस्मों-रिवाजों को पुन: देखना जरूरी है। इंसान को इंसान की जरूरत होती है। दु: में तो और ज्यादा होती है। अत: सामाजिकता तो हो, मगर आडम्बर हो, रस्में रूढ़ियाँ बनें, प्रथाएँ कुप्रथा बनें यह देखना जरूरी है। जहाँ पुनर्विश्लेषण जरूरी है वहाँ वह भी किया जाना चाहिए, भले रस्मों को तोड़ना, रिवाजों को छोड़ना ही क्यों पड़े।

- निर्मला भुराड़िया

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