सोमवार, 24 मार्च 2014

बकवास का बादशाह नहीं, किस्सों का जादूगर!

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चर्चित लेखक सलमान रुशदी की एक किताब है 'हारुन एंड सी ऑफ स्टोरीज" जैसा कि नाम से ही समझा जा सकता है, यह पुस्तक नहीं किस्सों का समंदर है, जिसमें डुबकी लगाकर पाठक आल्हादित हो सकते हैं। दरअसल इस किताब का तो नायक ही एक ध्ााकड़ किस्सागो है। हारुन के पिता रशीद खान हैं। वे जगह-जगह घूम-घूमकर किस्से सुनाते हैं। किस्सों के इस जादूगर की आस-पास के इलाकों में बड़ी मांग है। वह गली के किनारे पर किसी टूटे-फूटे डब्बे पर चढ़कर भी किस्से सुनाने लगें, तो मैले-कुचैले बच्चों से लेकर दंतविहीन बूढ़ों तक उन्हें सुनने के लिए जुट जाते हैं। लेखक का बयां तो यहां तक है कि गली में घूमती गाय तक रुक जाती है और अपने कान खड़े करके रशीद मियां द्वारा सुनाए जा रहे किस्से सुनने लगती है! सभी लोग मुंह खोले रशीद मियां को सुनते हैं। रशीद मियां को भी तो बस यही करना होता है कि वे अपना मुंह खोलते हैं और उसमें से नित-नए किस्से टपकना शुरू हो जाते हैं। और एक बार जो किस्से शुरू हुए, तो किस्से में से किस्से निकलना शुरू हो जाते हैं। आप तो जानते ही हैं, जो कामयाब होता है उसकी कुछ लोग तारीफ करते हैं तो कुछ उससे जलते भी हैं। हमारे इस किस्सागो के साथ भी ऐसा ही था। जो उसके फन की तारीफ करते थे वे उसे किस्सों का समंदर कहकर नवाजते थे। जो उससे ईर्ष्या करते थे, वे उसे शाह ऑफ ब्लाह अर्थात बकवास का बादशाह कहते थे।
दास्तानगोई का फन बहुत पुराना है और बहुत मोहक भी। दास्तानगो जुबान के माहिर हुआ करते थे। पुरानी सदियों में जब दास्तानगोई मनोरंजन की एक लोकप्रिय विध्ाा हुआ करती थी तब इनके किस्सों में ऐसी-ऐसी उड़ानें हुआ करती थीं जो असल जीवन में संभव ही नहीं। बढ़-चढ़कर किए गए वर्णन, तिलिस्म की दुनिया, अय्यार, जादूगर, परी, सुल्तान, उड़नखटोले, फरिश्ते क्या-क्या इनमें नहीं हुआ करते थे। अक्सर ये दास्तानें गीत-संगीत और शायरी में भी पिरोई होती थीं। इस मायने में बॉलीवुड की फिल्में इन दास्तानगोइयों की ही बाल-बच्चियां लगती हैं। हमारे यहां उर्दू अदब में ही नहीं कई तरह की बोलियों, भाषाओं और क्षेत्रों में दास्तानगोई का बहुत पुख्ता रिवाज रहा है। बुंदेलखंडी में आल्हा-ऊदल यदि प्रसिद्ध है, तो राजस्थान की मारवाड़ी बोली और ठेठ दक्षिण की तमिल जैसी पक्की और साहित्यिक, परिष्कृत भाषाओं में भी दास्तानगोई की मिसालेंे मिल जाती हैं। राजस्थानी के प्रसिद्ध लेखक विजयदान देथा का हाल ही में निध्ान हुआ है जिन्होंने लोकपरंपरा में प्रचलित, वाचिक परंपरा से चलन में चलते रहे कितने ही किस्सों को संरक्षित करने में अपना जीवन लगाया था। आज तो दृश्य-श्रव्य माध्यम भी हमारे पास है अत: जगह-जगह के लोककथाकारों की वीडियो भी बनाकर रख ली जाना चाहिए। कई लोग यह काम कर भी रहे हैं। मगर इसे संरक्षित करने से भी बड़ा काम है किस्सागोई की प्रतिभा रखने वाले नए लोगों को पहचानना और उन्हें मौका देना, इससे पहले कि ये लोग परंपरा सहित लुप्त हो जाएं।
मेरा बेटा आशुतोष 'टीच फॉर इंडिया" के लिए दिल्ली के अम्बेडकर नगर में बस्ती के सरकारी स्कूल में कक्षा दो को पढ़ाता है। एक दिन मैं उसका स्कूल देखने गई। क्लास में भी गई। परिचय के आदान-प्रदान के साथ ही नन्हे बच्चों ने प्रश्नों की झड़ी लगा दी। किसी ने अपनी बनाई हुई ड्रॉइंग दिखाई तो किसी ने कविता सुनाई। इन बच्चों की मासूमियत और नटखट मस्ती ने दिल मोह लिया। मन ने दुआ की कि काश इन्हें भी संपन्ना घरों के बच्चों की तरह बराबरी के अवसर मिलें। इन्हीं में एक बच्चा है इब्राहिम। इब्राहिम ने कहा मैं कहानी सुनाऊंगा। जब इस नन्हे बच्चे ने हाव-भावों और वाणी के उतार-चढ़ाव और लच्छेदार लहजे के साथ किस्सा सुनाना शुरू किया, तो उसकी प्रतिभा ने अचंभे में डाल दिया। यह कहानी थी एक बिल्ली और तोते की, जो दोनों बस्ती में लड्डू खाने निकलते हैं। घर-घर जाते हैं, लड्डू खाते हैं। तोते का पेट तो जल्दी ही भर जाता है। मगर बिल्ली कहती है,'खाए जाओ, खाए जाओ, सरकारी माल है।" यानी नन्हे किस्सागो ने बोली ही बोली में तंज किया और सरकारी माल को मुफ्त समझकर खाए जाओ वाली हमारे देश की आम व्याध्ाि की ओर इशारा भी किया। बच्चे ने कहानी का अंत यूं कया कि बिल्ली मुफ्त का मिल रहा है और सरकारी माल है कहकर इतने लड्डू खा लेती है कि अंत में उसका पेट ही फट जाता है और सारे लड्डू हवा में बिखर जाते हैं। बच्चे की कहानी में बुरे काम के बुरे नतीजे की ओर भी इशारा है, बगैर कोई उपदेश दिए। इब्राहिम के पास ऐसे कई किस्सों का खजाना है, इसमें कुछ उसने मनगढ़ंत बुना है, कुछ सुना हुआ जोड़ा है और कुछ अपने आस-पास को ऑब्जर्व किया है। उसकी मम्मी का कहना है वह उन्हें भी खूब हंसाता है, चुटकुले बना-बनाकर।
यहां दो चीजें हैं एक तो यह कि बदलते हुए जमाने में भी किस्सागोई जैसी लाइव और तल्लीनता का सुख देने वाली परंपरा बनी रहे तो कितना अच्छा हो। दूसरा, भारतीय समाज में अमीर-गरीब और जाति-ध्ार्म के भेदभाव के परे एक ऐसा न्यायपूर्ण समाज बने कि इब्राहिम जैसी प्रतिभाएं अवसरों का आलोक अवश्य देखें और एक दिन कामयाबी उनके कदम अवश्य चूमे। फिर चाहे लोग उसे किस्सों का समंदर कहें या बकवास का बादशाह, यह उनकी मर्जी, हमारी तो बस इतनी-सी अर्ज है कि ये दुनिया उसे मौका दे।


गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

भिन्नता को समझने की सदी

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यह एक ऐसे लड़के की दास्तान है जो अपनी देह के पिंजड़े में हमेशा फडफडाता रहता था और उसके भीतर से मुक्त होना चाहता था। नहीं, वह जीवन से छुटकारा नहीं पाना चाहता था। वह पुरुष देह में कैद था मगर उसका मन हमेशा अपने-आप को लड़की के रूप में ही देखता था। दस की उम्र के भी पहले और यह जानकारी हो जाने के भी पहले कि दुनिया में कुछ लोग ट्रांससेक्शुअल भी होते हैं, उसने हमेशा अपने आप को एक लड़की की तरह ही देखा। उसका स्वप्न था
बड़ा होकर वह एक खूबसूरत, बुद्धिमान  लड़की के रूप में विकसित हो। अपने इस रुझान को लेकर उसे समाज और परिवार से बहुत यंत्रणा मिली। उसमें मारपीट कर लड़कों के 'लच्छन" पैदा करने की कोशिश की गई। उसकी लगातार हंसी उड़ाई गई, अपमानित भी किया गया, मगर वह नहीं 'सुधर पाया" क्योंकि इस बात पर उसका जोर ही नहीं था। उसे प्रकृति ने ही ऐसा बनाया था, 'लड़के के जिस्म में कैद लड़की के रूप में।" हम भारतीयों में तो अर्धनारीश्वर की भी अवधारणा है। हम यह मानते हैं कि हर पुरुष में कुछ प्रतिशत स्त्री का होता है और स्त्री में पुरुष का। पर कभी-कभी ऐसा भी तो होता है किसी में यह प्रतिशत अपनी दैहिक पहचान के विपरीत ज्यादा हो जाए। यहां वर्णित लड़के के साथ ऐसा ही हुआ। अपनी देह के खिलाफ उसके भीतर की नारी हावी रही। किशोरावस्था में आकर तो एक नई ही परेशानी सामने गई। वह लड़कियों की तरफ नहीं,
लड़कों की तरफ आकर्षित होने लगा। उसने बहुत कोशिश की लड़कियों से दोस्ती करने की, उनकी तरफ सायास आकर्षित होने की, मगर ऐसा नहीं हो पाया क्योंकि यह उसका नेचुरुल ऑरिएन्टेशन नहीं था। इस लड़के ने बाद में जेंडर रिअसाइनमेंट सर्जरी करवाई, जिसमें उसे सालों लगे। सर्जरी और हारमोन थैरापी का शारीरिक रूप से  बेहद कठिन दौर भी उसने पास किया। पर इस तमिल पुरुष (अब स्त्री) का कहना है कि सर्जरी और थैरापी की यंत्रणा से बढ़कर थी मन से स्त्री होकर पुरुष देह में कैद रहना। अत: ऑपरेशन करवा कर उसने अच्छा ही किया। अब एक संपूर्ण स्त्री के रूप में जीवन यापन करके वह बेहद खुश है।
भले बेहद कम संख्या में, दुनिया में कुछ लोग होते हैं जो अपने शारीरिक और मानसिक जेंडर में अलग-अलग होते हैं। इनमें से बहुत कम लोग होते हैं जो रिआसाइनमेंट सर्जरी जैसा कदम उठा पाने में सक्षम होते हैं। लोगों के पास इस बारे में जानकारी होती है पैसा और सामाजिक-परिवरिक सहयोग। ऐसे लोग बिना अपनी किसी गलती के सामाजिक उपेक्षा, प्रताड़ना, मखौल और घृणा भुगतने के लिए अभिशप्त होते हैं। यह बात कोई नहीं समझ पाता, उनके अपने भी, कि विधाता ने उन्हें ऐसा ही बनाया है।
कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जिनका नैसर्गिक सैक्शुअल रुझान सेम सेक्स के लोगों के प्रति होता है। यह बात अधिकांश लोगों के गले नहीं उतरती। बदले में हम उनसे घृणा करते हैं। कईयों को ऐसी बातों से जुगुप्सा भी होती है क्योंकि सदियों से समाज इस बात को ऐसे ही देखता आया है, फिर बहुसंख्य लोग विपरीत सेक्स की ओर ही आकर्षित होते हैं। यही दुनिया का आम चलन है। इसलिए हममें से अधिकांश, या कहें लगभग सभी, उन लोगों को नीची नजर से देखते हैं जो सेम-सेक्स के प्रति आकर्षित होते हैं। मगर इस युग के नए, अग्रणी और आधुनिक व्याख्याकार कहते हैं कि 'चूंकि यह नैर्सिगक रुझान का मामला है तो अप्राकृतिक कैसे हुआ!" यह भी सोचने लायक बात है। इक्कीसवीं सदी में मध्ययुगीन पूर्वाग्रहों के साथ नहीं जिया जा सकता। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं पशु तो सेम जेंडर के साथ सेक्स नहीं करते अत: यह अप्राकृतिक है। मगर ऐसा बहुत कुछ है जो पशु नहीं करते मगर इंसान करते हैं, भद्रता का तकाज़ा है कि उन प्रकियाओं को यहां नहीं गिनाया जाए।
कुछ दशकों पहले तक, हमारी एक दो पीढ़ी पहले के लोग, जब परिवार नियोजन नया चलन में आया तब, इसे पाप मानते थे। इसलिए क्योंकि उनकी मान्यता थी कि दैहिक मिलन सिर्फ संतति पैदा करने के मकसद से ही होना चाहिए। परिवार नियोजन के साधनों का उपयोग करके देह-सुख के लिए किया गया मिलन गलत है। यह अवधारणा अब पीछे छूट गई है क्योंकि सदियों के साथ बहुत कुछ बदलता है।
रही बात सेम सेक्स के लोगों के मिलन की तो यह अन्य लोगों की स्वतंत्रता है कि लोग उसे पसंद करें, नापसंद करें या उस पर गौर ही करें। मगर जिनका यह नेचरल ओरिएंटेशन है और जो दो लोग सहमति से साथ हैं, कोई भी बलात कर्म करके किसी को नुकसान नहीं पहुंचा रहे, मासूम बच्चों को शिकार नहीं बना रहे, उन्हें अपराधी नहीं कहा जा सकता। यह बहुत ही निजी मामला है और व्यक्ति का बुनियादी अधिकार भी। माननीय सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद गेंद अब संसद के पाले में है। देखना है आगे क्या होता है। तब तक एक प्रजातांत्रिक  देश का आम नागरिक इस बात पर चर्चा, विमर्श, विचार तो कर ही सकता है।



रफ़्तार

गुरुवार, 12 दिसंबर 2013

सदियों का संताप

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रफ़्तार

हिंदी के प्रसिद्ध लेखक ओमप्रकाश वाल्मीकि नहीं रहे। 63 वर्ष की उम्र में उनका देहावसान हो गया। यह एक बड़ी क्षति है भारतीय साहित्य के लिए ही नहीं, भारतीय समाज के लिए भी। भारतीय समाज अस्पृश्यता और जाति के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव के लिए कुख्यात रहा है। सवर्ण समाज ने अपने ही समान हाड़-मांस के इंसानों के साथ सदियों तक जिस क्रूरता का व्यवहार किया है वैसा तो कोई जानवरों के साथ भी नहीं करता। श्री वाल्मीकि ने अपनी पीठ उघाड़ कर ये घाव दिखाने का साहस किया ताकि समाज को अपना घिनौना चेहरा साहित्य के आईने में दिखाई में दिखाई पड़ जाए। मराठी में दलित लेखन की परंपरा रही है। वहां दया पवार नामदेव ढसाल, शांताबाई काम्बले जैसे साहित्यकार रहे हैं। तमिल, तेलगु, मलयाली आदि भाषाओं में भी दलितों ने अपना दर्द बयान किया है। हिंदी में यह परंपरा थोड़ीसी देर से आई मगर जब आई तो यहां भी ओमप्रकाश वाल्मीकि, श्योराजसिंह बेचैन, मोहनदास नैमिश्यराय, कंवल भारती, अनिता भारती जैसे लेखक आए। श्री वाल्मीकि ने हिंदी में अपनी आत्मकथा लिखी, जिसका शीर्षक है 'जूठन" जब यह किताब पढ़ी तो वस्तुत: रोंगटे खड़े हो गए कि भला एक इंसान भी दूसरे इंसान से इस तरह का व्यवहार करता है? एक इंसान दूसरे इंसान को नारकीय यातनाएं देता है सिर्फ इसलिए कि उसने किसी खास जाति में जन्म लिया। 'जूठन" मैंने स्वयं दो-तीन बार पढ़ने के बाद अपनी कॉपी परिवार, मित्रों और सहयोगियों में पढ़ने के लिए घुमाना प्रारंभ की। मगर इसी श्र्ाृंखला में वह कहीं खो गई है या शायद किसी के पास रह गई है। उपहार स्वरूप देने के लिए भी खरीदी थी पर फिलहाल एक भी कॉपी मिल नहीं रही। अत: पाठकों के लिए, इंटरनेट पर उपलब्ध सामग्री से ही कुछ अंश खंगाल कर परोसने का प्रयास कर रही हूं ताकि दलितों के दर्द की एक छोटी सी झलक यहां प्रस्तुत हो सके।
श्री ओमप्रकाश वाल्मीकि के ही शब्दों में,'पिताजी मुझे लेकर बेसिक प्राइमरी विद्यालय गए। वहां मास्टर हरफूलसिंह थे। उनके सामने पिताजी ने गिड़गिड़ा कर कहा, 'मास्टरजी थारी मेहरबानी हो जागी जो म्हारे इस बच्चा कू बी दो अक्षर सिखा दोगे।" बहुत चक्कर लगाने के बाद स्कूल में दाखिला तो हो गया मगर जनसामान्य की मानसिकता में कोई बदलाव नहीं आया। स्कूल में दूसरों से दूर जमीन पर बैठना पड़ता। पीछे के दरवाजे के पास। प्यास लगे तो हैंडपंप के पास खड़े रहकर किसी के आने का इंतजार करना पड़ता। लड़के तो पीटते ही हैंडपंप छूने पर मास्टर भी सजा देते थे। तरह-तरह के हथकंडे अपनाए जाते ताकि मैं स्कूल छोड़कर भाग जाऊं और उन्हीं कामों में लग जाऊं जिनके लिए मेरा जन्म हुआ है। उनके अनुसार  स्कूल आना मेरी अनाधिकार चेष्टा थी।" यहां हम कुछ पंक्तियां दे पा रहे हैं पूरी आत्मकथा पढ़ने पर खून खौल उठता है और अपने तथाकथित उच्च वर्ण के होने की वजह से शर्म भी आती है। बच्चा पढ़ने जाता और अध्यापक उससे रोज पूरे स्कूल की झाड़ू लगवाते, कक्षा में नहीं बैठने देते। लात-घूंसों से पिटाई, गालियों और अपमान जनक भाषा में बात सामान्य थी।
जब कभी यह गाना बजता है- है प्रीत जहां की रीत सदा, मैं गीत वहां के गाता हूं," तब यह पंक्तियां 'काले-गोरे का भेद नहीं, हर दिल से हमारा नाता है" सुनकर हंसी जाती है अपने इस कोरे दंभ पर ! हमारे यहां नस्लभेद सही जातिभेद तो रहा है और सवर्ण में भी तो वर्ण है। फिर रंगभेद और वर्णभेद में क्या फर्क है? अब संविधान ने हम सबको बराबरी का दर्जा दे दिया है, समाज भी काफी हद तक बदला है मगर फिर भी भेद-भाव के छींटे अक्सर दिख जाते हैं। मैंने स्वयं ने ऐसी कई स्त्रियां देखी हैं जो एक खास जाति के व्यक्ति के हाथ का बना खाना ही खाती हैं। हमारे गांव-कस्बों में आज भी कई लोग हैं जो हममें से ही कुछ इंसानों को निम्न मानते हैं और उनके हाथ का परोसा 'कच्चा खाना" नहीं खाते। कुछ जातियों के लोगों के लिए बर्तन-गिलास अलग रखना, छुआ-छूत पालना यह भी अब भी होता है। भारतीय राजनीति ने समाज में फैले जातिवाद को बढ़ावा ही दिया है कम नहीं किया है। दलित और सवर्ण के नाम पर आज भी खून खराबा होता है, राजनीति इसे और उकसाती है। समाज ने भी अंतरजातीयता को प्रोत्साहित करने के बजाए जात-कुटुंब-समुदाय के खेमे बनाए हैं और इन्हीं में, आपस में विवाह संबंध किए जाते हैं। गर्व से घोषणा होती है, 'फलां जाति का परिचय सम्मेलन।"
जरूरत पड़ने पर हम 'उलटे-जातिवाद" को कोसना नहीं भूलते। मगर अपने गिरेबान में झांकना फिर भी भूल जाते हैं।