जिम्मेदार कौन?

मैं एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जानती हूं, जिन्होंने अपने बेटे की अकाल मृत्यु हो जाने पर अपनी सद्यविधवा बहू का मुंह देखना बंद कर दिया था। बहू सामने पड़ जाती तो वे पलटकर चले जाते। ऐसा वे इसलिए कर रहे थे कि उन्हें लगा कि बहू अपशगुनी है और उसकी किस्मत से ही उनका बेटा चला गया।
अंधविश्वास ने इन ससुर महोदय को इतना क्रूर बना दिया था कि वे समझ नहीं पा रहे थे कि ऐसा करके वे अपनी पहले से ही दु:खी पुत्रवधु के दु:ख को और बढ़ा रहे हैं। या शायद वे उसे दु:खी करके ही खुश हो रहे हों क्योंकि अंधविश्वास की जीत हमेशा से ही हृदय की कोमलता और सहज करुणा पर होती आई है।
अंधविश्वास की रौ में आदमी अच्छा-बुरा भी भूल जाता है। अब इन्हीं ससुर महोदय के बारे में सोचिए। ये मान रहे थे कि बहू के दुर्भाग्य से उनका बेटा गया, मगर वे ये नहीं देख पा रहे थे कि यह उनका स्वयं का भी तो दुर्भाग्य था। तो क्या वे स्वयं अपशगुनी हो गए थे? नहीं, न। मगर कुछ लोगों की आदत होती है, अपनी तोहमतें वे हमेशा दूसरों के सिर ही थोपते हैं।
एक और व्यक्ति थे। उनके दो बेटे थे। बाद में दो बेटियां हुईं। सज्जन व्यापारी थे। जब पहली बेटी हुई, उस वक्त उनको व्यापार में घाटा लग गया था। उन्होंने इसे बेटी के इस जन्म और उसके अपने लिए अशुभ होने से जोड़ लिया।
दो साल बाद दूसरी कन्या हुई। संयोग कुछ ऐसा बैठा कि छोटी बेटी के जन्म के समय काल में उनको व्यापार में फायदा हुआ। इसे भी उन्होंने इस बेटी के अपने लिए शुभ होने से जोड़ लिया और इस बेटी पर प्रसन्न हो गए। अपनी खुद ही की दो बेटियां, मगर एक पर वे हमेशा चिड़चिड़ाते रहे, रूखा व्यवहार करते रहे और दूसरी पर हमेशा लाड़-प्यार लुटाते रहे। एक-दो दिन नहीं पूरे जीवनभर उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं के बीच सिर्फ इस वजह से भेदभाव किया कि दोनों के जन्म के शगुन अलग-अलग थे!
हमारे समाज में सदियों से यह चला आया है और आज भी चल रहा है कि हम किसी और के दुर्भाग्य में उसका सहारा बनने, उसके प्रति इंसानियत का भाव रखने के बजाए, अपने अंधविश्वासों के चलते, उस इंसान का अपमान करते हैं। कई लोग हैं जो किसी विधवा, अपंग, एक आंख वाले व्यक्ति आदि को अपशगुनी मानते हैं। और कई लोग तो मुंह पर ही उनका अपमान कर देते हैं कि उनके सामने आने से काम बिगड़ गया। विधवा स्त्रियों को लोग मंगल कार्यों जैसे शादी-विवाह आदि में शामिल नहीं होने देते, खासकर जब मांगलिक रस्में हो रही हों। यह अपमानजनक और अन्यायपूर्ण दोनों ही है।
आज भी भारत के कई गांवों में, जिनमें बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ असम, आंध्र, पश्चिम बंगाल आदि कई राज्य शामिल हैं, औरतें डायन बताकर मार दी जाती हैं। चालाक महाबली यह सब किसी स्त्री की संपत्ति हड़प करने के लिए करते हैं। मगर इस षड्यंत्र में उनको गांव वालों का साथ प्रचलित अंधविश्वासों के चलते मिल जाता है और वे षड्यंत्रकारी डायन के नाम पर सरेआम कत्ल करके भी बच निकलते हैं। किसी के यहां कोई बच्चा मर गया, गांव में किसी बीमारी का प्रकोप या कोई और बात हो गई तो चिह्नित स्त्री को डायन या टोनही बताकर इस दुर्भाग्य के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता और उसे प्रताड़ित करने के बाद अंतत: मार दिया जाता है।
मगर सिर्फ ग्रामीण ही नहीं, हम शहरों में रहने वाले, कहने को पढ़े-लिखे, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग भी कम अंधविश्वासी नहीं हैं। पनौती जैसे शब्दों का इस्तेमाल तथाकथित आधुनिक लोग भी करते हैं और हार का विश्लेषण करने और जिम्मेदारी लेने या उसे खेल भावना से स्वीकार करने के बजाए ठीकरा किसी तथाकथित 'अपशगुनी" के सिर फोड़ने में यकीन करते हैं। न सिर्फ यकीन करते हैं बल्कि पूरी बेशर्मी से इसे घोषित करते हैं। जैसे कि अभी क्रिकेट वर्ल्ड कप वाले मामले में हुआ। लोगों ने विराट कोहली की मित्र अनुष्का शर्मा को भारत की हार के लिए जिम्मेदार बना दिया! यह दु:खद ही नहीं आश्चर्यजनक भी है। आखिर हम कब अपने ही बनाए अंधेरों से बाहर निकलेंगे?
-निर्मला भुराड़िया
सुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ।
मेरे ब्लॉग पर आपका स्वागत है।