कट्टरपन नहीं, वात्सल्य बचाए- देसी गाय
हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार गाय में तैतीस करोड़ देवताओं का वास है। वैदिक काल की एक परंपरा के बारे में कुछ इतिहासज्ञ बताते हैं कि जब कोई विवाद होता और सुलझाने को पंच बैठते तो निर्णायक को गाय की खाल ओढ़ा कर बैठाया जाता, इस विश्वास के साथ कि गाय का चमड़ा ओढ़े बैठा व्यक्ति अन्याय नहीं करेगा। मरणासन्न व्यक्ति के अंतिम समय में मुंह में तुलसीदल और गंगाजल देने के अलावा यह परंपरा भी रही है कि उसका हाथ गाय की पूंछ से बांध दिया जाए ताकि मरने पर वह व्यक्ति सीधे स्वर्ग में जाए। इस सबको भोले लोक विश्वासों की श्रेणी में ही लिया जाना चाहिए।
मुझे अच्छी तरह याद है बचपन में एक मुनीमजी थे, रास्ते में जहां कोई गाय मूत्र त्याग करती दिखती, वे खट से आगे बढ़कर अपनी हथेली लगा देते और श्रद्धापूर्वक चुल्लू में आए द्रव्य का पान कर लेते। एक बुआजी थीं, ईश्वर की कृपा से वे जरा ठिगनी भी थीं, वे अक्सर गाय के नीचे से निकलती थीं इस भाव के साथ कि इससे उनका सब अमंगल धुल जाएगा। आज भी गोमूत्र से इलाज किया जाता है। यह उचित है और यह उचित नहीं है, दोनों ही बातें मानने वाले लोग हैं। हम यहां आज इस बात को विवेचना में शामिल नहीं कर रहे हैं।
वैदिक काल में गोधन बड़ी संपत्ति हुआ करती थी। गाय उपयोगी भी थी, पवित्र भी मानी जाती थी। मगर उस काल में गोवध अपराध नहीं था। पुराण काल में यह धारणा आई कि ब्रह्मा और गाय चूंकि एक ही दिन उत्पन्न हुए अत: गोहत्या का पाप ब्रह्म हत्या के बराबर है। और यह तो चौथी शताब्दी में हुआ कि गुप्तवंश के राजाओं ने गोवध हेतु प्राणदंड तय किया। महाराष्ट्र सरकार द्वारा गोवध के प्रतिबंध के पश्चात इस वक्त भारत में इस पर काफी वाद-विवाद और चर्चाएं हो रही हैं। इस विवाद के भी इस या उस पक्ष में हम नहीं जा रहे, क्योंकि हम तो यहां देसी गाय की जीतेजी होने वाली दुर्गति पर बात करना चाहते हैं।
प्रसिद्ध आहार विशेषज्ञ रुजुटा दिवेकर लिखती हैं कि ऊंचे कूबड़ और गले पर झूलती चमड़ी वाली अपनी देसी गाय के दूध में एक विशेष प्रकार का प्रोटीन होता है- ए2 टाइप का प्रोटीन। यह प्रोटीन इस दूध का सेवन करने वालों की मधुमेह, मोटापा आदि से रक्षा करता है। जबकि विदेशी संकर प्रजाति की जर्सी और होलस्टीन जैसी गाएं भले दूध ज्यादा देती हों पर उनके दूध में ए1 टाइप का प्रोटीन होता है जिससे पेट बिगड़ना (इरिटेबल बाउल सिंड्रोम), पेट फूलना (ब्लोटिंग) जैसी समस्याएं होती हैं, वहीं हृदय रोगों, मोटापा, मधुमेह का खतरा भी बढ़ जाता है। देसी गाय का कूबड़ उसे यह विशेषता देता है कि वह दूध में विटामिन डी की अधिक मात्रा छोड़े। वहीं इस दूध में एंटीऑक्सीडेन्ट्स, विटामिन बी-12, अमीनो एसिड्स की संख्या भी ज्यादा होती है। रुजुटा चिंता व्यक्त करती हैं कि हमारी यह प्यारी देसी गाय धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।
कुछ समय पहले का एक किस्सा याद आता है। रात को कॉलोनी में एक गाय आकर जोर-जोर से रंभाती थी। उसका रंभाना इतना करुण होता था कि लगता था कि वह रो कर कुछ कह रही है। पशुओं की भी अपनी बोली और दुख-सुख तो होते ही हैं न! दो-तीन दिन के बाद किसी से पूछा कि यह गाय रोती क्यों है तो व्यक्ति ने बताया कि गाय के मालिक ने उसका बछड़ा बेच दिया है, उसी को ढूंढती फिरती है। सुनकर जी धक्क से रह गया था। गायों को अधिक दूध देने वाले इंजेक्शन भी लगाए जाते हैं।
बछड़ा मरने पर भी वह दूध देती रहे, इस हेतु बछड़े की खाल में भूस भरकर उसे सामने खड़ा कर दूध दुहा जाता है। गो पालक अक्सर गायों को खुला छोड़ देते हैं। वे शहर भर में प्लास्टिक खाती, मानवमूत्र पीती घूमती रहती हैं। दुनिया भर का कचरा-बगदा खाने वाली गाय आखिर किस प्रकार का दूध देती होगी? गुणवत्ता तो दूर, यह बेहद प्रदूषित दूध ही हुआ न! इन गायों के पालक? ये वही लोग होते होंगे जो दीवारों पर ''गोहत्या पाप है" लिखने वालों के साथ, नारा लिखने के लिए ब्रश और पेंट लेकर खड़े होते होंगे। यदि ये गाय के प्रति कट्टरता के बजाए गाय के लिए वात्सल्य रखें, गाय को अच्छा खिलाएं और प्यार से घर में पालें, हाईब्रीड गायों और बोवीन ग्रोथ हारमोन के इंजेक्शन का इस्तेमाल करने वाले दूध के लालची व्यापारियों में तब्दील न हों, तो अब भी समय है कि हमारी देसी गायें (Bos Indicus) और हमारी अगली पीढ़ी का स्वास्थ्य दोनों ही बच जाएंगे।
- निर्मला भुराड़िया