भारत की बेटियां चाहें बंदिश नहीं, बंदोबस्त सुरक्षा का
इन दिनों 'इंडियाज डॉटर' नामक एक डॉक्यूमेंट्री बहस का केन्द्र बनी हुई है। यह वृत्तचित्र दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार कांड के बारे में है, जिसने पूरे देश को हिला दिया था, जिसके खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए थे। इसे एक ब्रितानी फिल्मकार लेसली उडविन ने बनाया है। इस डॉक्यूमेंट्री पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया है। हालांकि यूनाइटेड किंगडम में एवं अन्य देशों में इसे दिखा दिया गया और दिखाया जा रहा है।
इस वृत्तचित्र में उस कांड के एक बलात्कारी मुकेश सिंह से बातचीत है, जिसमें वह पूरी बेशर्मी से यह कहता हुआ पाया गया है कि हमारे द्वारा बलात्कार की चेष्टा के समय लड़की अपने बचाव में लड़ी न होती, खामोशी से खुद को हमें सौंप देती तो हम भी 'अपना काम" करके उसे बस से उतार देते। बलात्कारी यहीं नहीं रुका, उसने यह नैतिक शिक्षा भी दे डाली कि एक अच्छी लड़की रात को नौ बजे घर से बाहर नहीं घूमती। बलात्कारी के वकीलों ने भी यही कहा कि लड़की शिकार नहीं बल्कि आमंत्रणकारी है। इस तरह के बयानों से हमारे यहां के लोग स्तब्ध नहीं होंगे क्योंकि वे अपने नेताओं, तथाकथित आध्यात्मिक गुरुओं, पुलिस, खाप पंचायतों और कई आम पुरुषों के मुंह से ऐसी बातें सुनते आए हैं। फिर भी डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध तो लगा दिया गया है और गुस्सा भी प्रदर्शित किया गया है।
इस बारे में लेखक व सांसद श्री जावेद अख्तर ने जो कहा वह गौर करने लायक है। जावेदजी कहते हैं, 'गुस्सा इस बात पर है कि उस आदमी का इंटरव्यू क्यों हुआ? गुस्सा इस बात पर है कि उस आदमी ने इतनी गलत बातें क्यों कीं? गुस्सा इस बात पर है कि ये दुनिया को क्यों बताया जा रहा है कि रेपिस्ट इतनी गंदी बातें कर रहा है; पर सर, ऐसी बातें तो मैं इस हाउस (संसद) में सुन चुका हूं कि अगर एक औरत इस तरह के कपड़े पहनेगी, अगर रात को सड़क पर घूमेगी तो वो ट्रबल इनवाइट कर रही होगी।' श्री अख्तर ने आगे यह भी कहा, 'अच्छा हुआ कि यह डॉक्यूमेंट्री बनी, इसलिए कि हिन्दुस्तान के करोड़ों आदमियों को मालूम हुआ कि वे किसी रेपिस्ट की तरह सोचते हैं। अगर ये गंदा लग रहा है तो उन्हें अपनी सोच बदलना चाहिए।'
एक हिंदुस्तानी बंदे हरविंदर सिंह ने लेसली के जवाब में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है- 'यूनाइटेड किंगडम्स डॉटर्स"। यह भी सही है कि बलात्कार सभी जगह होता है। पर हमें तो फिलहाल अपने दाग देखने हैं क्योंकि हमारे कपड़े तो हमें ही धोना है। 'इंडियाज डॉटर' पर प्रतिबंध लगना चाहिए या नहीं, इसके अपने-अपने कारण हो सकते हैं। दोनों ही पक्षों के कुछ तर्क सही हो सकते हैं। मगर यहां हम इसकी चर्चा नहीं कर रहे।
बात है कि क्या बलात्कार की वजह कपड़े होते हैं? क्या लड़कियों की आजादी पर बंदिश लगाने से मामला हल हो जाएगा? तो कहा जा सकता है ऐसा बिल्कुल नहीं है। बलात्कार पहले भी होते थे, जब औरतें घर की चारदीवारी में कैद होती थीं। घर के बाहर घूंघट रखती थीं या बुर्का पहनती थीं। उसे छलने वाले अक्सर अपने ही होते थे, जिनकी वे घर की झूठी इज्जत के डर से शिकायत भी नहीं कर सकती थीं।
आज भी जो स्त्रियां सिर्फ घरों में रहती हैं वे क्या महफूज हैं? दो, चार, छ:, चौदह साल की बच्चियों के साथ बलात्कार हो जाते हैं, क्या वे इन राक्षसों को आमंत्रित करती हैं? हमारे यहां किसी स्त्री को किसी तथाकथित अपराध की सजा देने के लिए पंचायतों के आदेश पर भी सामूहिक बलात्कार हुए हैं। इस नृशंसता का स्त्री के कपड़ों से क्या संबंध? बलशाली लोग उसे घर से उठाकर भी ले जा सकते हैं। किसी पुरुष रिश्तेदार से कोई गलती होने पर उसकी मां, बहन, बेटी, पत्नी पर बलात्कार की घटनाएं भी होती हैं। कभी-कभी किसी स्वावलंबी, निर्णयक्षम स्त्री को दबाने और उसकी औकात दिखाने के लिए भी उस पर बलात्कार किया जाता है।
नारीद्वेषी पुरुषप्रधानता चाहती है कि स्त्री दबकर रहे, उनकी पाबंदी में रहे। ऐसे मामलों में भी स्त्री को कुचलने के लिए, उसका मान मर्दन करने के लिए बलात्कार जैसा कदम तक उठा लिया जाता है। सेना, पुलिस, दंगाई ये सब अराजकता के वक्त में स्त्रियों पर बलात्कार करने से नहीं चूकते। यह भारत ही नहीं, सब जगह होता है। योरप में युद्धकाल में क्या-क्या नहीं हुआ। मंटो की कहानी 'खोल दो' इस तरह की मानसिकता का बहुत उपयुक्त उदाहरण है। यानी अधिकांश मामलों में किसी खास पुरुष का दंभ, विकृत मानसिकता या समाज में उत्पन्न हुई अराजकता बलात्कार का कारण बनती है। फिर स्त्री की आजादी को दोष क्यों देना।
पुराने समय में चालीस साल के आदमी की शादी चौदह साल की बच्ची से भी आसानी से कर दी जाती थी। यह वैवाहिक बलात्कार तो स्त्रियों की परनिर्भर, गुलाम वाली स्थिति की वजह से होता था। विधवाओं के सिर मुंड़ाने और श्रृंगारहीन रहने वाले समयों में क्या उनका शोषण नहीं होता था? आकर्षित न करने के भरसक प्रयास के बावजूद भी कहीं न कहीं कोई भेड़िया उन्हें दबोचने को तैयार रहता था। तो इसके लिए जिम्मेदार तो भेड़िए की वृत्ति ही थी। उस पर नजर रखना और अंकुश रखना जरूरी था, न कि स्त्री को सती बना कर जला देना। पर एक समय पर सती प्रथा के पक्ष में भी ऐसी ही बातें की जाती थी जैसे आज औरत के कपड़ों और आजादी को लेकर दक्षिण एशियाई मुल्कों में की जाती है।
यह भी एक गलतफहमी है कि आज बलात्कार बढ़ गए हैं। अब वे प्रकाश में आने लगे हैं क्योंकि आज की शिक्षा और स्वावलंबन की ओर बढ़ रही स्त्री को अपने न किए अपराध की झूठी शर्म नहीं, न्याय चाहिए। निर्भया कांड में जिस तरह समाज और मीडिया ने साथ दिया, उससे भी नजरिया बदला है और लड़कियां छुपने के बजाए सामने आने लगी हैं।
युद्ध, दंगे आदि के समय बलात्कार बहुत होते हैं। यानी अमूमन अराजकता इसके लिए जिम्मेदार होती है। शर्म की बात तो यह है कि हमारे यहां सदा यानी रोजमर्रा में ही ऐसी अराजकता की स्थिति रहती है। स्त्रियां पुलिस के साए में महफूज होने के बजाए वर्दी से डरती हैं, क्यों? यह सब जानते हैं।
इन स्थितियों से बचने के लिए स्त्री की आजादी पर प्रतिबंध नहीं, अराजकता का जाना और समाज में कानून, व्यवस्था का आना और राष्ट्रीय सुरक्षा का इंतजाम होना जरूरी है। भारत सरकार ने दस अरब का निर्भया फंड भी बनाया है जो कि महिलाओं के सशक्तिकरण और सुरक्षा के लिए है। इस योजना पर सचमुच काम हो और फंड का सही और योजनाबद्ध तरीके से उपयोग हो तो स्त्री की आजादी की बलि लिए बगैर उसे सुरक्षित बनाया जा सकता है। मगर पहली बात यह है कि हम अपना सोच तो बदलें। व्यवहार भी तभी बदलेगा।
- निर्मला भुराड़िया