धर्म क्या है
इसकी लंबी-चौड़ी व्याख्या
हो सकती
है। मनुष्य
जीवन में
धर्म कब
क्यों और
कैसे आया
होगा इस
बारे में
भी सिर्फ
अनुमान ही
लगाए जा
सकते हैं।
मगर इतना
तय है
कि जब
दुनिया के
झगड़ों-टंटों
से घबरा
कर इंसान
ने शांति
चाही होगी
तो धर्म
अस्तित्व में
आया होगा।
एक ऐसे
एंकर के
हाथों अपनी
कमान सौंप
देना जो
सर्वशक्तिमान है, जो सब संभाल
लेगा, निश्चित
ही एक
सुकूनदायी एहसास रहा है और
रहेगा। उस
सर्वशक्तिमान के प्रति भोला विश्वास
रखने वाला
व्यक्ति धार्मिक
कहलाया। धीरे-धीरे सिर्फ
मन:शांति
ही नहीं
न्यायप्रियता, नैतिकता, कर्त्तव्य परायणता, उदारता
आदि भी
धार्मिक-गुण
माने जाने
लगे या
कहें भक्ति
के साथ
ही न्यायप्रिय
और नैतिक
व्यक्ति धार्मिक
भी कहलाने
लगा होगा
ऐसा अनुमान
है। मगर
कालांतर में
यह प्रक्रिया
उल्ट गई
और यह
समझा जाने
लगा कि
फलां व्यक्ति
धार्मिक है
यानी न्यायप्रिय
और नैतिक
तो होगा
ही होगा।
यानी धार्मिक
होना अच्छा
व्यक्ति होने
का ठप्पा
बन गया।
भले वह
व्यक्ति अच्छा
हो या
न हो।
इस भावना
की वजह
से ढोंगियों
द्वारा धर्म
का चोंगा
पहनकर ठगने
की घटनाएं
भी होने
लगीं। सोचिए
रावण ने
साधुवेश धारण
न किया
होता तो
क्या सीताजी
भिक्षा देने
आतीं? अपहरण
की वजह
लक्ष्मण रेखा
लांघना नहीं
साधुवेश धारी
व्यक्ति पर
भोला विश्वास
करना था।
दुनिया में
ऐसा होता
रहा है
कि बहुरुपिए
धार्मिक व्यक्ति
का वेश
बनाकर विश्वासियों
को लूटते
आए हैं
इसीलिए तो
बगुला भगत,
मुंह में
राम बगल
में छुरी,
राम-राम
जपना पराया
माल अपना
जैसी कहावतें
अस्तित्व में
आई हैं।
मगर सवाल
यह है
कि इतना
सब होने
के बाद
भी लोग
जागरुक और
चौकन्नो क्यों
नहीं होना
चाहते?
वक्त के साथ
दुनिया का
रुप-रंग
बदलता रहता
है। जो
चलन कल
अच्छा रहा
हो वह
आज भी
उसी के
इसी रुप
में प्रासंगिक
हो यह
जरुरी नहीं।
समय, काल,
स्थान, परिवेश
के हिसाब
से जीवन
को सुंदर
और निष्कंटक
बनाने के
लिए नए-नए प्रयोग होना
चाहिए, नई
रीतों का
जन्म होना
चाहिए,पुरानी
को भी
जरुरत हो
तो खंगाला,
परिवर्तित किया जाना चाहिए। मगर
हिन्दू, मुस्लिम,
सिख, ईसाई
कोई भी
धर्म हो
देखा यह
गया है
कि धर्म
के ठेकेदार
उसे जड़ता
प्रदान करने
में सारा
जोर लगाए
रहते हैं
और आम
व्यक्ति धर्म
में आ
गई किसी
बुराई की
तरफ ऊंगली
उठाने में
डरता है
क्योंकि वह
इस पाप
बोध के
साथ बड़ा
होता है
कि यह
तो धर्म
की निंदा
करना हुआ।
ठेकेदार उसकी
इस भावना
को लगातार
ब्रेनवॉश करके
पोषित करते
रहते हैं।
इसके बावजूद
भी धर्म
के घोल
में किसी
को कोई
किरकिरी दिख
रही है
और वह
इस तरफ
इशारा करना
चाहे तो
धर्म के
निहित स्वार्थी,
अंधविश्वासी, कट्टरपंथी और ठेकेदार तूफान
मचा देते
हैं। गोया
धर्म का
दूसरा नाम
असहिष्णुता हो।
धर्म ने स्त्रियों
को कुछ
मुठ्ठी उल्लास,
आजादी और
थोड़ी मन:शांति भी
अवश्य दी
है। घर
में सीमित
स्त्रियों के लिए वार-त्योहार
मनाना, मंदिर
आदि जाना,
उत्सवों में
नाचना-गाना,
खाना-पीना,
सखियों से
मिलना जैसे
कई मौके
धर्म ने
हमेशा उपलब्ध
कराए हैं।
मगर धर्म
के नाम
पर पाबंदियां
भी सबसे
ज्यादा स्त्रियों
ने ही
झेली हैं।
लिपि का
आविष्कार होने
के बावजूद
भी लंबे
समय तक
हमारे यहां
धर्म शास्त्रों
एवम् अन्य
ज्ञान का
एक दिमाग
से दूसरे
दिमाग तक
ही हस्तांतरण
होता रहा,
वह भी
एक खास
जाति के
लोगों के
बीच ही।
अत: यह
ज्ञान स्त्रियों
और शूद्रो
के बीच
न पहुंचा,
न पहुंचने
दिया गया।
फिर शुरु
हुई धर्मशास्त्रों
की स्वार्थी
व्याख्याएं जिन्होंने स्त्री को दासी
बनाकर रखा।
किसी भी
चीज में
ऐसा कह
दिया जाता
कि यह
तो धरमशास्त्र
में लिखा
है और
स्त्री दमन
को जायज
ठहरा दिया
जाता। कारण
पूछने की
आज्ञा स्त्री
को नहीं
थी। उसे
तो जो
कहा गया
वो करना
था। खुद
उसकी भी
कंडीशनिंग ऐसी की जाती कि
उसे दमन
में भी
अपनी धार्मिकता
और नैतिकता
दिखाई देती।
जैसे शास्त्रों
का हवाला
देकर स्त्री
के सती
होने को
महिमामंडित किया जाता था। ताकि
उसे लगे
वह कोई
महान धार्मिक
कार्य करने
जा रही
है और
पुरुषों को
स्त्री को
सती बनाने
के लिए
इस तरह
समझाया जाता
था कि
इससे उसे
स्वर्ग मिलेगा।
धर्म के
नाम पर
एक इंसान
को जिंदा
जलाने की
यह प्रथा
लंबी चली
और इसे
खत्म करने
की पहल
का धार्मिक
कर्मकांडियों ने बहुत विरोध किया
था। धर्म
के नाम
पर बहुत
सा भेदभाव
आज भी
जारी हैजिसे
खत्म करना
इसलिए मुश्किल
होता है
चूंकि वह
धर्म के
नाम पर
होता है।
एक संप्रदाय
में धार्मिक
रिवाज के
तहत स्त्रियों
के जननांग
को किया
भंग यिा
जाता है।
धर्म के
नाम पर
किसी में
पर्दा प्रथा
है, तो
किसी में
एक से
अधिक पत्नी
रखना जायज।
एक संप्रदाय
विशेष में
नन्ही बच्चियां
दीक्षा ले
लेती हैं।
कोई कुछ
नहीं कर
सकता, बल्कि
इस बात
का महिमामंडन
होता है।
आज स्त्रियां घर
से बाहर
निकल रही
हैं, शिक्षा
ले रही
हैं, दुनिया
को देख
समझ रही
हैं, उनका
एक्सपोजर पहले
जितना सीमित
नहीं है
तो फिर
उन्हें अपनी
आंखें और
दिमाग भी
खुला रखना
सीखना चाहिए।
बात कोई
भी हो
उसका न्याय
और तर्क
समझना जरुरी
है। चाहे
वह धर्म
संबंधी बात
ही क्यों
न हो।
विश्वास अच्छा
है मगर
अंधविश्वास नहीं।
निर्मला भुराड़िया