बुधवार, 28 सितंबर 2011

सृजन का सुख


किसी भी कथा लेखक को कहानी लिखने पर जो सुकून मिलता है वह एक अनुपम अनुभव होता है। कहानी लिखना यानी दुनियादारी और उसके तमाम बंधनों, सीमाओं, अनुशासनों से आजादी। आप अपनी कल्पना से कैसा भी संसार रच सकते हैं। किन्हीं भी पात्रों और कैसी भी स्थितियों की रचना कर सकते हैं। आपका बनाया पात्र कहाँ रहेगा, कैसा दिखता होगा, स्त्री होगा या पुरुष होगा, नायक होगा या विलेन होगा, खूबसूरत या बदसूरत होगा यह सब आप पर निर्भर। कल्पना की यह छलाँग देश-काल की सीमाओं को भी पार कर सकती है। अपने पात्रों को गढ़कर लेखक अपने आप को छोटे-मोटे ईश्वर से कम महसूस नहीं करता। ऐसा ही कुछ कलाकार के साथ भी होता है। वह अपनी कला के माध्यम से सिर्फ स्वयं की भावनाओं का विरेचन करता है और जीवन में सौंदर्य बोध की स्थापना करता है, बल्कि छोटी-छोटी खुशियाँ भी रचता है। जरूरी नहीं है कि यह कलाकार बहुत नामी हो और महान कृतियाँ बनाता हो। हमारे आस-पास ही हमें ऐसे सृजनकर्ता मिल जाएँगे, जो स्वयं तो सृजन का सुख उठाते ही हैं दर्शक और भागीदारी करने वालों को भी आनंद बाँटते हैं। ऐसे में याद आता है मुंबई की मिठाई बेचने वाला एक फेरीवाला। मुंबई की मिठाई (केन कैंडी) एक रंग-बिरंगी, मीठी मगर लचीली मिठाई होती है। लगभग प्लास्टर ऑफ पेरिस के जैसी। यह फेरीवाला बाँस पर अपनी मिठाई बाँधे गली-गली घूमता था। जब बच्चे मिठाई खरीदने आते तो वह मिठाई का मोटा तार खींचकर उससे खिलौने बनाकर बच्चों को खाने को देता। बच्चे तरह-तरह की फरमाइश करते भैया, एक चश्मा बना दो या अंगूठी बना दो, लॉकेट बना दो, फूल बना दो वगैरह। बच्चे इस खिलौने को थोड़ी देर पहनते फिर खा जाते। मिठाई वाले की यह सृजनात्मकता बचपन में आल्हाद भर देती थी। यदि वह मीठा तार खींचकर वैसे के वैसे खाने को थमा देता तो वह आनंद कहाँ से आता?

अभी-अभी इटली के एक गाँव की कहानी पढ़ी। छोटा गाँव था। रोजगार के अवसर कम थे। अत: युवा गाँव छोड़कर जाने लगे। कुछ दिनों में गाँव बहुत सूना हो गया। बस कुछ बेहद बुजुर्ग लोग ही बचे। वह भी अकेलेपन से बेहद परेशान, क्योंकि गाँव से हलचल चली गई। गाँव का एक युवक छुट्टियों में आया तो उसे अपना उजड़ा गाँव और अकेले बुजुर्गों को देखकर बहुत बुरा लगा। उसे एक आइडिया आया, उसने अपने साथ शहर गए युवाओं के साथ मिलकर गाँव में समर पार्टी आयोजित की। जिसमें यह नारा दिया गया कि हमारे गाँव का दरवाजा सबके लिए खुला है। इसका मतलब गाँव में आतिथ्य की संस्कृति से था। मगर शब्दश: देखा तो युवकों ने पाया कि गाँवों के आधे घर गोदामों में बदल चुके हैं या उनके दरवाजे बंद पड़े हैं। अत: सिर्फ घरों के दरवाजे खोलने का निर्णय लिया गया, बल्कि कलाकारों से उन पर पेंटिंग बनवाने का निर्णय लिया गया। कुछ समय में पूरा गाँव ही आर्ट गैलरी बन गया।

इससे भले ही दृश्य रूप से सही गाँव कुछ सजीव लगने लगा। बाहर भी इसकी चर्चा फैली। धीरे-धीरे बड़े कलाकार भी यहाँ आकर दरवाजे पेंट करने लगे। फिर तो लोग गाँव देखने भी आने लगे। कुछ युवक यहाँ लौट भी आए रहने के लिए। गाँव में फिर काफी हलचल हो गई। हिन्दुस्तानी गाँवों में तो दीवालों पर पेंटिंग और आँगन में माँडने बनाने का पुराना प्रचलन है। यह चलन गृहिणियों की मनोचिकित्सा भी करता है। उन्हें कला में रमने का मौका देता है। अपने अंतरंग भावों को कला के माध्यम से अभिव्यक्त करने का अवसर देता है। देखने वाले की आँखों और मन को भी कला सुकून देती है। बढ़ते मशीनीकरण के इस युग में हमें इन सुकूनदायी कलाओं को याद रखना है, क्योंकि कला से बड़ा कैथरसिस कुछ नहीं। कला के देवता की जगह कोई रोबोट नहीं ले सकता।

निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 14 सितंबर 2011

साहसी बोल


पिछले दिनों हिन्दुस्तान में भी प्रदर्शित पाकिस्तानी फिल्म 'बोल" को सभी समीक्षकों ने एकमत से सराहा है। जो दर्शक यह फिल्म देखकर आए उनके दिल में भी इस फिल्म से उठे सवाल मंडराते रहे। पाकिस्तान में इस वक्त जो हालात हैं उसके मद्देनजर यह कहा जा सकता है कि निर्देशक शोएब मंसूर ने अपना सिर गिरवी रखकर यह फिल्म बनाई है। दर्शक को गहरे तक प्रभावित करने वाली और अंत तक बाँधे रखने वाली यह फिल्म एक धार्मिक कट्टरपंथी अपने परिवार के साथ कैसा निर्दयी सलूक करता है इस बारे में है। फिल्म के यह हकीम साहब बेटे की आस में बच्चे पैदा करते चलते हैं। इनकी बीवी को चौदह बच्चे पैदा करके भी छुटकारा नहीं है, क्योंकि अभी बेटा नहीं हुआ है। परिवार नियोजन के वे खिलाफ हैं, क्योंकि यह उनके हिसाब से अल्लाह के काम में बाधा डालना है। बेटियों को वे पढ़ने-लिखने नहीं भेजते। उन्हें घर में सीमित रखते हैं। वे क्या और क्यों करते हैं, उस हर बात के लिए उनके पास धार्मिक तर्क है। अपनी तमाम क्रूरताओं और तंगदिली के लिए भी। लड़के की चाह में बच्चे पैदा करते-करते बीच में एक बच्चा ऐसा हो जाता है जिसका जेंडर स्पष्ट नहीं है। इस तीसरे जेंडर वाले बच्चे से हकीम साहब बेहद नफरत करते हैं। उसकी शक्ल देखना भी पसंद नहीं करते। बच्चा घर पर छत पर बने एक कमरे में ही, लगभग कैदी की तरह रहता हैैैै, अपने पिता के सामने आने की कभी जुर्रत नहीं करता। हकीम साहब को अपने ही जने इस बच्चे से प्यार हो सही, मगर उनके मन में रत्तीभर भी करुणा भी नहीं है जो एक इंसान के मन में दूसरे इंसान के लिए होना चाहिए। उन्हें लगता है ऐसे बच्चे ने उनके घर जन्म लेकर उनकी साख को बिगाड़ दिया है। पाकिस्तान में गैरत के लिए अपनों का ही कत्ल करने के विचार के बहुत से लोग हामी हैं। यानी बेटी या बहन के साथ बलात्कार हो जाए तो लड़की को ही कत्ल कर देना। या बेटी या बहन अपनी मर्जी से किसी से विवाह कर ले तो उसकी हत्या कर देना। हकीम साहब अपने थर्ड जेंडर वाले बदनसीब बेटे के साथ ऐसा ही होने पर बड़ी बेशर्मी से उसका कत्ल कर देते हैं। इस बात का उन्हें अफसोस नहीं, बल्कि गर्व है।

हमारे यहाँ के हालात पाकिस्तान जितने बिगड़े हुए नहीं हैं, फिर भी थोड़ा घूम-फिर कर कुछ बातें हिन्दुस्तानी समाज में भी इस तरह की होती हैं। हमारे यहाँ औरतों को अब चौदह बच्चे नहीं पैदा करना होते, मगर परिवार द्वारा बेटे की चाह में औरतों का बार-बार गर्भवती होना और गर्भपात की तकलीफ से गुजरना हिन्दुस्तान में भी होता है। कानूनी प्रतिबंध के बावजूद। हमारे यहाँ भी खाप पंचायतों द्वारा ऑनर किलिंग के कई किस्से सामने आए हैं। बच्चों द्वारा अपनी तथाकथित जात या धर्म से बाहर शादी कर लेना कई भारतीय पालकों के लिए नाक का सवाल है। और इसके लिए वे खुद के बच्चों से ही क्रूरताभरा सुलूक भी कर सकते हैं। यह सच है कि पाकिस्तान में किसी भी कट्टरपंथी को फलने-फूलने की आबो-हवा मिलती है। मगर हिन्दुस्तान में भी, किसी भी धर्म में, किसी भी समाज में कट्टरपंथी मिल जाएँगे।

कट्टरपंथी के चरित्र की एक खासियत होती है कि वह नफरत बहुत शिद्दत से करता है। करुणा और कट्टरपंथ एक-दूसरे के विलोम होते हैं। सिर पर खब्त सवार होने पर कट्टरपंथी कत्ल भी कर सकता है। कट्टरपंथी पत्थर-दिल होता है, उसे कोई दया-माया नहीं होती। वह अपने टारगेट को अनजाने में नहीं, जानते-बूझते त्रास देता है और इसका उसे कोई पछतावा नहीं होता, बल्कि इस व्यवहार को जायज ठहराने के तर्क जरूर उसके पास होते हैं। ये तर्क वह अधिकांशत: धर्म के हवाले से ही लाता है। धर्म की मनचाही व्याख्याएँ रचकर वह अपनी क्रूरता को सही ठहराता है। अपने द्वारा लगाई पाबंदियों को कट्टरपंथी मर्यादा और परंपरा का नाम देता है। वह अपने गलत को भी सही समझता है। हृदय परिवर्तन की किसी भी गुंजाइश को अपने भीतर प्रवेश नहीं करने देता। कट्टरपंथी दोहरे मापदंड भी रखता है। फिल्म 'बोल" के हकीम साहब, बेटी जिस भले, मददगार और पढ़े-लिखे पड़ोसी से मुहब्बत करती है, उससे उसकी शादी नहीं होने देते, क्योंकि वे सुन्नाी हैं और लड़का शिया। वे मैरेज ब्यूरो में जाते हैं और फरमाते हैं कि उनकी लड़की के लिए जल्द से जल्द कोई दूल्हा ढूँढ दिया जाए, किसी उम्र का हो चलेगा, बस उनसे (हकीम साहब से) छोटा हो। हकीम साहब स्वयं किसी वजह से अपनी बेटी की उम्र की तवायफ के साथ रिश्ता बनाते हैं, जो कि शिया है। अपनी इस हरकत को जायज बनाने के लिए वे तवायफ से निकाह रचाते हैं, क्योंकि इस धार्मिक इजाजत के बाद पुरुषों को सब जायज है।

यह पाकिस्तानी फिल्म हमें भी एक चश्मा प्रदान करती है कि हम भी लिंगभेद से ऊपर उठकर सोचें। हमारे समाज में ही पैठे कट्टरपंथियों को पहचान कर उन्हें आईना दिखाएँ, ताकि सबके लिए समानता वाला एक तार्किक, साफ-सुथरा और मानवीय करुणा से पूर्ण समाज हमारे यहाँ भी हो। फिल्म 'बोल" की जाँबाज नायिका अपने, अपनी माँ और बहनों के अधिकारों के लिए अपने कट्टरपंथी पिता से भिड़ती है चाहे फिर रोज मार खाना पड़े और अंतत: फाँसी पर चढ़ जाना पड़े।

निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 7 सितंबर 2011

जब पुरी ने कही खरी-खरी!


अभिनेता ओमपुरी से मेरी पहली मुलाकात भोपाल में हुई थी, होटल जहाँनुमा में, जहाँ मैं निर्देशक श्याम बेनेगल से साक्षात्कार के लिए गई थी। पेस्तनजी और राव साहेब जैसी फिल्मों की निर्देशक विजया मेहता भी वहीं ठहरी हुई थी। उनसे भी बातचीत हुई। बातचीत के बाद जब हम लोग लॉबी में आए, ओम पुरी भी मुस्कुराते हुए समीप आकर खड़े हो गए। वे बिलकुल चुस्त-दुरुस्त और फिट व्यक्ति थे। एकदम तनकर चलते थे, तोंद नाम की चीज नहीं थी। दूसरी बार मुलाकात पिछले दिनों नईदुनिया के कार्यालय में हुई। वे 'रंग दे बसंती" फेम निर्देशक राकेश ओमप्रकाश मेहरा के साथ फिल्म 'तीन थे भाई" की पब्लिसिटी के लिए आए थे। इस बार वे इतने चुस्त नहीं दिखाई पड़ रहे थे। चेहरे पर भी मुस्कुराहट से ज्यादा जिंदगी की मार दिखाई पड़ रही थी। उनको देखकर लगा था क्या ये व्यायाम वगैरह नहीं करते? शायद कुछ ऐसी तकलीफ हो जिसकी वजह से व्यायाम नहीं कर पाते हों। ओमजी ने शर्ट पर टी शर्ट पहन रखी थी। अपनी सामान्य शर्ट पर तीन थे भाई की पब्लिसिटी वाली टी शर्ट। कैबिन में उन्हें गर्मी-सी लगी, तो वे ऊपर वाली टी शर्ट उतारने लगे। उन्हें ऐसा करते देख राकेश मेहरा यकायक कुर्सी से उठे और उन्हें टी शर्ट उतारने में मदद करने लगे। इस दृश्य को याद करके लगता है कि श्री पुरी ने अपने डगमगाकर सीढ़ी उतरने के बारे में जो कैफियत दी है कि सर्जरी के कारण उन्हें सीढ़ियाँ चढ़ने में दिक्कत आती है, वह सही ही है। हो सकता है अल्कोहल भी लिया हो पर यहाँ टिप्पणी का विषय यह नहीं है।

खैर फिलहाल तो ओम पुरी चर्चा में इसलिए हैं कि समाजसेवी अण्णा हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी मंच से उन्होंने नेताओं को खरी-खरी कही। नेताओं को यह अखरी-अखरी लगी। लिहाजा उन्हें विशेषाधिकार हनन नोटिस थमा दिया गया। हालाँकि श्री पुरी ने माफी माँग ली है कि उन्होंने नेताओं को '------", '------", '------" कहा। उन्होंने स्वयं की भाषा को सड़कछाप स्वीकार करते हुए अफसोस भी जताया है। उनकी इस माफी पर एशियन एज के कार्टूनिस्ट सुधीर तेलंग ने एक कार्टून बनाया है (देखें उपरोक्त कार्टून) जिसमें श्री पुरी यह कहते हुए माफी माँग रहे हैं, मैंने रामलीला मैदान में जो कहा उसके लिए माफी माँगता हूँ, दरअसल हमारे नेता बेहद पढ़े-लिखे हैं, हमारे सब राजनीतिज्ञ बहुत ईमानदार हैं, किसी का भी कोई आपराधिक रिकॉर्ड नहीं है, वे सदन में कभी माइक और कुर्सियाँ नहीं फेंकते, यहाँ कोई वोट बैंक पॉलीटिक्स नहीं होती, मनी और मसल पावर का इस्तेमाल नहीं होता। दरअसल यह कार्टून श्री पुरी पर आक्रमण नहीं करता। यह कार्टून उन नेताओं को निशाना बनाता है जो ऐसा व्यवहार कर रहे हैं मानो उन पर गलत आरोप लगा दिए गए हों। माना कि आक्रोश में भरे श्री पुरी की भाषा कुछ कच्ची थी मगर नीयत सच्ची थी। यदि किसी ने किसी कमजोर और वंचित का मजाक उड़ाया हो तो उसे असंवेदनशीलता कहा जाएगा। बलशालियों को उनकी औकात बताना तो साहस है, अभद्रता नहीं। सच तो यह है कि हर आदमी रेल पर, सड़कों पर, चौपाल पर और ड्राइंग रूम में नेताओं के बारे में यही कहता है। और इन्हीं शब्दों में। लोकतंत्र में इस अभिव्यक्ति को लोगों को डरा-डराकर रोका नहीं जा सकता। राजनीतिज्ञों को जो बातें सुनकर आत्ममंथन करना चाहिए उसे सुनकर वे खुन्नास खा जाते हैं। ओम पुरी का आक्रोश सच्चा था। टीवी कैमरा देखकर लोक-लुभावन बातें कर रहे हों ऐसा भी नहीं लगता, क्योंकि इंदौर में निजी बातचीत में भी वे इतने ही उद्वेलित थे। कह रहे थे, हमारे देश में चिंदी चोर तो बेचारा पकड़ा जाता है और बड़े लोग बड़े-बड़े भ्रष्टाचार करके घूमते रहते हैं। 'चिंदी चोर", जी हाँ उन्होंने ठीक यही शब्द इस्तेमाल किया था। यह भी वे सही ही कह रहे थे। सच को आईना दिखाना उन्हें महँगा पड़ गया।

- निर्मला भुराड़िया