किसी भी कथा लेखक को कहानी लिखने पर जो सुकून मिलता है वह एक अनुपम अनुभव होता है। कहानी लिखना यानी दुनियादारी और उसके तमाम बंधनों, सीमाओं, अनुशासनों से आजादी। आप अपनी कल्पना से कैसा भी संसार रच सकते हैं। किन्हीं भी पात्रों और कैसी भी स्थितियों की रचना कर सकते हैं। आपका बनाया पात्र कहाँ रहेगा, कैसा दिखता होगा, स्त्री होगा या पुरुष होगा, नायक होगा या विलेन होगा, खूबसूरत या बदसूरत होगा यह सब आप पर निर्भर। कल्पना की यह छलाँग देश-काल की सीमाओं को भी पार कर सकती है। अपने पात्रों को गढ़कर लेखक अपने आप को छोटे-मोटे ईश्वर से कम महसूस नहीं करता। ऐसा ही कुछ कलाकार के साथ भी होता है। वह अपनी कला के माध्यम से न सिर्फ स्वयं की भावनाओं का विरेचन करता है और जीवन में सौंदर्य बोध की स्थापना करता है, बल्कि छोटी-छोटी खुशियाँ भी रचता है। जरूरी नहीं है कि यह कलाकार बहुत नामी हो और महान कृतियाँ बनाता हो। हमारे आस-पास ही हमें ऐसे सृजनकर्ता मिल जाएँगे, जो स्वयं तो सृजन का सुख उठाते ही हैं दर्शक और भागीदारी करने वालों को भी आनंद बाँटते हैं। ऐसे में याद आता है मुंबई की मिठाई बेचने वाला एक फेरीवाला। मुंबई की मिठाई (केन कैंडी) एक रंग-बिरंगी, मीठी मगर लचीली मिठाई होती है। लगभग प्लास्टर ऑफ पेरिस के जैसी। यह फेरीवाला बाँस पर अपनी मिठाई बाँधे गली-गली घूमता था। जब बच्चे मिठाई खरीदने आते तो वह मिठाई का मोटा तार खींचकर उससे खिलौने बनाकर बच्चों को खाने को देता। बच्चे तरह-तरह की फरमाइश करते भैया, एक चश्मा बना दो या अंगूठी बना दो, लॉकेट बना दो, फूल बना दो वगैरह। बच्चे इस खिलौने को थोड़ी देर पहनते फिर खा जाते। मिठाई वाले की यह सृजनात्मकता बचपन में आल्हाद भर देती थी। यदि वह मीठा तार खींचकर वैसे के वैसे खाने को थमा देता तो वह आनंद कहाँ से आता?
अभी-अभी इटली के एक गाँव की कहानी पढ़ी। छोटा गाँव था। रोजगार के अवसर कम थे। अत: युवा गाँव छोड़कर जाने लगे। कुछ दिनों में गाँव बहुत सूना हो गया। बस कुछ बेहद बुजुर्ग लोग ही बचे। वह भी अकेलेपन से बेहद परेशान, क्योंकि गाँव से हलचल चली गई। गाँव का एक युवक छुट्टियों में आया तो उसे अपना उजड़ा गाँव और अकेले बुजुर्गों को देखकर बहुत बुरा लगा। उसे एक आइडिया आया, उसने अपने साथ शहर गए युवाओं के साथ मिलकर गाँव में समर पार्टी आयोजित की। जिसमें यह नारा दिया गया कि हमारे गाँव का दरवाजा सबके लिए खुला है। इसका मतलब गाँव में आतिथ्य की संस्कृति से था। मगर शब्दश: देखा तो युवकों ने पाया कि गाँवों के आधे घर गोदामों में बदल चुके हैं या उनके दरवाजे बंद पड़े हैं। अत: न सिर्फ घरों के दरवाजे खोलने का निर्णय लिया गया, बल्कि कलाकारों से उन पर पेंटिंग बनवाने का निर्णय लिया गया। कुछ समय में पूरा गाँव ही आर्ट गैलरी बन गया।
इससे भले ही दृश्य रूप से सही गाँव कुछ सजीव लगने लगा। बाहर भी इसकी चर्चा फैली। धीरे-धीरे बड़े कलाकार भी यहाँ आकर दरवाजे पेंट करने लगे। फिर तो लोग गाँव देखने भी आने लगे। कुछ युवक यहाँ लौट भी आए रहने के लिए। गाँव में फिर काफी हलचल हो गई। हिन्दुस्तानी गाँवों में तो दीवालों पर पेंटिंग और आँगन में माँडने बनाने का पुराना प्रचलन है। यह चलन गृहिणियों की मनोचिकित्सा भी करता है। उन्हें कला में रमने का मौका देता है। अपने अंतरंग भावों को कला के माध्यम से अभिव्यक्त करने का अवसर देता है। देखने वाले की आँखों और मन को भी कला सुकून देती है। बढ़ते मशीनीकरण के इस युग में हमें इन सुकूनदायी कलाओं को याद रखना है, क्योंकि कला से बड़ा कैथरसिस कुछ नहीं। कला के देवता की जगह कोई रोबोट नहीं ले सकता।
निर्मला भुराड़िया