बुधवार, 10 अगस्त 2011

छोटी हुई दुनिया को चाहिए बड़े दिल वाले



नार्वे में एक कट्टरपंथी युवक ने अंधाधुँध गोलियाँ चलाकर कई लोगों को मार डाला। यह युवक योरप में नव-नाजीवाद का चेला है। यह वह लोग हैं, जो यह मानते हैं कि उनकी नस्ल और उनकी ही संस्कृति श्रेष्ठ है, अत: उसमें किसी और संस्कृति का मिश्रण होना यानी संस्कृति का दूषित होना कहा जाता है। यह युवक धार्र्मिक कट्टरपंथी भी है, जो इस सोच का अनुगामी भी है कि उनके देश में इस्लाम अन्य धर्म के लोग आकर उनके संसाधनों को बाँटेंगे और उनके धर्म की तथाकथित शुभ्रता को कलंकित करेंगे। नार्वे जैसी शांत और प्रजातांत्रिक जगह पर इस तरह की घटना का होना भौंचक कर देने वाला है। मगर यह एक अकेला उदाहरण नहीं है। दुनिया में कट्टरपंथियों और इक्कलखोरों की कमी नहीं है। ज़ीनोफोबिया अर्थात विदेशी-द्वेष बढ़ता ही जा रहा है। जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड तो छोड़िए अमेरिका जैसी जगहों पर भी, जो कि बना ही अनान्य संस्कृतियों से मिलकर है, विदेशी-द्वेष दिखने लगा है। हालाँकि इसका धार्मिक या सांस्कृतिक भिन्नाता से कोई लेना-देना नहीं है, संसाधनों के बँटवारे से है। आर्थिक मंदी के बाद रोजगार के लिए मारामारी कर रहे अमेरिकियों को लगता है हिन्दी-चीनी जाएँगे उनके संसाधन खा जाएँगे!

उदारवाद और टेक्नोलॉजी के चलते दुनिया जो छोटी और पास हुई है अब वह दूर-दूर और अलग-थलग होने से तो रही। ऐसे में सांस्कृतिक शुद्धता की बात करने के बजाए सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देना बेहतर विकल्प होगा। वैसे भी यह नस्लीय दंभ, कि हमारी संस्कृति या हमारा धर्म ही श्रेष्ठ है, झूठा है और गलत है। स्वयं की श्रेष्ठता का दंभ और स्वयं की ओर ही सारे संसाधनों का रुख खींचने का स्वार्थ मानवता विरोधी कार्यों को अंजाम देता है, असहिष्णुता को बढ़ाता है। एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना, एक-दूसरे की भिन्नाता को समझना, एक-दूसरे की सांस्कृतिक विशिष्टताओं का आदर करना ही विश्व शांति का जरिया हो सकता है। अमेरिका की ही मैग्जीन न्यूजवीक ने एक स्टोरी की है, बच्चों को विश्व नागरिक के रूप में बड़ा करने के बारे में। इस स्टोरी के अनुसार कुछ अमेरिकी अपने बच्चों को दूसरे देशों की भाषाएँ सिखा रहे हैं, उन्हें कुछ समय के लिए अन्य देशों में रहने भेज रहे हैं, ताकि वे एक अंतरराष्ट्रीय वातावरण में रहने लायक बन सकें। इनमें से एक पालक का कहना है कि उन्होंने अपने बच्चों को अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में इसलिए भेजा है कि वे वैश्विक दृष्टि से संपन्ना बनें, दूसरों का दृष्टिकोण समझने का धीरज अपनाएँ, अपने आरामगृह से निकलकर नई जगहों से समायोजन सीखें, दूसरों की भाषा और संस्कृति भी समझें। इनका मानना है इससे उनके बच्चे उदार, सहिष्णु और करुणासंपन्ना बनेंगे।

हालाँकि इस एक स्टोरी से यह निर्णय निकालना गलत होगा कि बहुत सारे अमेरिकी ऐसे उदार प्रयोग करने लगे हैं, यह भी हो सकता है कि प्रकारांतर से यह प्रयोग उसी भय का रूप हो कि विदेशी जाएँगे और उनके ढीले-ढाले और देश केंद्रित बच्चों से आगे निकल जाएँगे! जो भी हो सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सहिष्णुता का यह दृष्टिकोण बहुत अच्छा है। भारतीयों को तो ऐसे प्रयोग के लिए विदेश जाने की भी जरूरत नहीं है। हम अपने आप में ही कई भाषाओं और कई संस्कृतियों को समाए हुए हैं। अत: जातिगत, प्रांतगत, भाषागत और धार्मिक कट्टरता के बजाए, हम एक-दूसरे की भाषाएँ सीखें, एक-दूसरे की विविधताओं का आदर करें, एक-दूसरे के जाति-समुदाय में विवाहों को कट्टरपंथी दृष्टि से देखें, नेताओं को जाति के आधार पर वोट दें तो हम अपने 'वसुधैव कुटुम्बकम" के नारे को केवल शाब्दिक रखकर, वास्तविकता में बदलते देख सकते हैं और विभिन्नाताओं के बावजूद एकता और सुख-शांति से रह सकते हैं।

- निर्मला भुराड़िया

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