अपनी बात
निमाड़ के एक छोटे से गॉंव में एक मजदूर के यहॉं की एक शादी मैंने अटैंड की ती और ये जाना कि सचमुच उत्सव मनाना किसे कहते हैं। उत्सव मनाने के लिए शान-शौकत, खर्चा, दिखावा नहीं, बल्कि उल्लास चाहिए। यही उल्लास वहॉं छलक पड़ रहा था। औरतें रंग-बिरंगे लुगड़े-घाघरे पहनी थीं। जिन्होंने साड़ियॉं पहनी थीं वे लाल-जामुनी चटख रंगों की थीं, बड़े-बड़े फूल-पत्तों की डिजाइन वाली। अलबत्ता लड़कियॉं अब घाघरा-ब्लाउज में नहीं थीं, सलवार-कमीज में थीं, एक-आध बच्ची ने तो फ्रॉक के साथ जीन्स भी पहन रखी थी और वो बालों में रंग-बिरंगी पिनें लगाई थीं। हाथ भर-भर के चूड़ियॉं और चॉंदी के झैले-झुमके, पायजेब लगभग सभी ने पहने थे। एकाध शहर रिटर्न ने लिपिस्टिक भी पोत ली थी, जो होंठ के साथ-साथ दॉंत पर भी लगी थी। आलता सभी ने लगाई थी।
ग्रामीण पुरुषों में धोती-कुरता के साथ, पैंट-शर्ट वाले भी थे, पर उनमें से अधिकांश ने पगड़ियॉं बॉंध ली थीं। अजब-गजब से रंगों वाली पगड़ियॉं, फ्लोरेसेंट ग्रीन से लेकर चमकदार मोतिया और पीले रंग तक की । लगता था चारों तरफ रंगों की बौछार है और जब ढोलक की थाप लगी तो स्त्रियों ने नाचना और गाना शुरू किया। फिर तो वो समॉं बॅंधा कि पूछो मत। मैं सोच ही रही थी खुशी किस चिड़िया का नाम है, यह ये ग्रामीण लोग हम शहरी लोगों से अधिक जानते हैं, जबकि उनका जीवन संघर्ष हमसे अधिक है। इतने में एक नजारा देखा। जिस महिला का नाचना खत्म हुआ था, उस पर दूसरी महिला ने कुछ वारा जो नोट तो नहीं था। पता चला उसने मुट्ठी भर गेहूँ वारा था। दरअसल ये लोग रुपए नहीं, अन्न वारते हैं। उसी दौर में निमाड़ के एक वकील साहब ने बताया कि निमाड़ के आदिवासी व ग्रामीण क्षेत्रों में यह प्रथा है कि किसी घटना में किसी को न्याय की शपथ दिलवाना है तो ये लोग अन्न की शपथ लेते हैं। किसी धार्मिक पुस्तक पर हाथ रखकर शपथ लेने की बजाय मुट्ठी में अन्न भरकर "जो कुछ कहूँगा सच कहूँगा' कहते हैं। वहॉं यह मान्यता है कि मुट्ठी में अनाज हो उस वक्त व्यक्ति झूठ नहीं बोलेगा, क्योंकि अन्न ही ब्रह्म है। शहरी जीवन में भी तो "थाली पर बैठकर झूठ नहीं बोलूँगी', "अन्न-जल हाथ में हैं'..... इत्यादि जुमले चलते हैं। दरअसल अन्न एक बुनियादी जरूरत है। जीवित रहने की पहली आवश्यकता है, मगर इस वक्त पूरी दुनिया में अन्न की किल्लत हो गई है। कहा जाता है कि न तीसरा विश्व युद्ध पानी के लिए लड़ा जाएगा। वैसे ही भोजन के लिए दंगे होंगे, बल्कि होने भी लगे हैं। मगर दुनिया की बड़ी ताकतों की रुचि रोटी से ज्यादा बम बनाने में है। खैर हम तो भारत पर आएँ।
बचपन में हम निबंध रटते थे भारत एक कृषि प्रधान देश है। यह किताबी बात अब सचमुच किताबी हो गई है। जो कभी मुख्य रोजगार हुआ करता था, उसे राजनीतिक तो छोड़ो, कोई सामाजिक प्रोत्साहन भी नहीं है। अतः गॉंव की नई पीढ़ी भी गॉंव में रुकने को तैयार नहीं। उन्नति का मापदंड हो या अच्छा करियर, हम प्रबंधन को ही तवज्जो देते हैं, सामाजिक सम्मान देते हैं। हर किसी को प्रबंधन में जाना है, पर जब उत्पादन ही नहीं होगा तो प्रबंधन किस चीज का? क्या अन्न की जगह हम कागज खाएँगे? विकास के आँकड़े लाने वाले भाई लोग आँकड़ों ही आँकड़ों में अच्छी पैदावार की मायावी तस्वीर भी दिखा देते हैं। सरकार ने कृषकों को कर्ज माफी भी दी है, पर क्या उससे सामाजिक परिदृश्य बदल जाएगा? चीन और जापान में स्मॉल फॉर्म मैनेजमेंट क्रांति हुई है, जबकि हमारे छोटे किसान जमीन बेचकर दिहाड़ी मजदूर हो गए हैं और महानगरों की झोपड़-पटि्टयों में गुजर-बसर कर रहे हैं। जो कृषि कर रहे हैं, उन्हें अच्छे बीज, खाद, मिट्टी के रखरखाव की तकलीफें हैं। बहुत-सा अनाज तो पोस्ट हार्वेस्ट टेक्नॉलॉजी के अभाव में नष्ट हो जाता है। दरअसल इस देश को पुनः एक हरित क्रांति की आवश्यकता है। मैनेजमेंट की जरूरत उत्पाद को वैज्ञानिक तरीके से मैनेज करने के लिए है। ग्रामीण युवाओं का इसमें बहुत योगदान हो सकता है, बशर्ते राजनीतिक और सामाजिक इच्छा शक्ति हो। आधुनिक कृषि एक सम्मानजनक करियर हो तो ग्रामीण युवाओं को प्रोत्साहन मिलेगा। अभी तो आईआईटी, आईआईएम पर टूट पड़ने वालों की जय का जमाना है। हमारा युवा तो इस तरह तैयार किया जा रहा है कि भई कूड़े के ढेर में से रोटी बीनते बचपन को देखो तो नाक पर कॉर्पोरेट सूट की टाई दबाकर निकल जाओ। नेता भी कुछ करने-धरने वाले नहीं। हॉं, ये हो सकता है अपने खोखले नारों में वे सड़क, बिजली, पानी के साथ अन्न भी जोड़ लें।
- निर्मला भुराड़िया
निर्मलाजी
जवाब देंहटाएंबहुत ही अच्छा लगा आपका ब्लाग पढ़कर |बरसो से नै दुनिया में आपको पढ़ा है |सच ख़ुशी जाहिर करने या मनाने के लिए कोई दिखावे की जरुरत नहीं होती है |\और किसान की समस्याए क्या है ?हमारे आज के शहरी लोग तो अंदाज भी नहीं लगा सकते |कभी निमाड़ का गणगौर उत्सव भी देखिये |आनन्द आ जायगा |
आभार