अपनी बात
रामचरित मानस जैसे कालजयी ग्रंथ के रचयिता तुलसीदास संत परंपरा के कवि माने जाते हैं। संत यानी वो जो दुनियावी लोभ-लालच-कीर्ति कामना से परे हो। अत: कवि तुलसीदास को जब तत्कालीन राजदरबार से बुलावा आया तो उन्होंने यह कह जाने से इंकार किया-'हम चाकर रघुबीर के पट्यौ लिख्यौ दरबार, तुलसी अब का होहिंगे नर के मनसबदार?' अकबर के समय में श्रीधर नामक एक कवि हुए। उनका भी यही कहना रहा कि साधुजन यदि राजदरबारों में हाजिरी देने जाते हैं, तो वे सम्मान, पैसा आदि के लोभ से ही जाते हैं,
'राजदुआरे साधुजन, तीनि वस्तु को जाएँ, कै मीठा, कै मान को, कै माया की चाय। और कवि कुम्भनदास ने तो सीधे ही घोषित कर दिया था, 'संतन को सीकरी सो का काम?'
मगर इन दिनों लगता हैं संतन को सीकरी से कु छ ज्यादा ही काम हो गया है। प्रचार की भूख, धन की लालसा, ग्लैमर का मोह, राज्यसत्ता से संपर्क, धनपतियों के सान्निध्य का शौक आज के तथाकथित संतों की पहचान हो गई है। चलिए चलें कुछ सच्चे उदाहरणों पर।
एक संतजी की गद्दी पर उस दिन एक मीडिया मालिक पधारे थे और आकर सीधे संतजी की चरणों वाली तरफ नीचे बैठे थे। इतने बड़े (!) आदमी को द्वार पर आए देख संतजी बेहद गद्गद् थे और गद्गद्ावस्था में मीडिया मालिक से बोले, 'आपने तो श्रीमान चमत्कार कर दिया। आपके द्वारा जगह देने से बहुत फर्क पड़ा। जहाँ पहले पचास लोग हमें सुनने आते थे, अब हजारों लोग आते हैं।' अब क्या कहें इस बात पर कपड़े छूटे पर काउंटिंग नहीं छूटी। एक और संतजी का उदाहरण हैं। सिंहस्थ का समय है, तपती गर्मी में उनसे मिलने के लिए सैकड़ों श्रद्धालु बैठे हैं, इंतजार कर रहे हैं। इतने में सायरन बजाते हुए किसी राजनेता का काफिला आता हैं। संतजी आम जनता को अपने चेले द्वारा खदेड़वा कर राजनेता और उनके चमचों को पंडाल के अपने कक्ष में बुलाते हैं। यही नहीं राजनेता का स्वस्थि वाचन/प्रशस्ति वाचन भी करते हैं, आशीर्वाद देते हैं, बाहर तक छोड़ने आते हैं। राजनेता के जाने का बाद आम जनता के लिए दर्शन पुन: खुलते हैं। लोग एक-एक कर आते हैं। एक स्त्री भीतर जाने की कोशिश करती हैं तो रोक दी जाती है। तब वह बताती है कि वह फलाँ उद्योगपति की पत्नी है। संतजी खींसे निपोर देते हैं, 'अरे भाभीजी आपको पहले बताना था न, इतनी देर से धूप में खड़ी हैं।' इस तरह के संतजियों और उनकी कथाओं को काले पैसे वाले भी आराम से स्पॉन्सर करते हैं। उनके लिए हवाई यात्राओं, लक्जरी गृहों, डीलक्स गाड़ियों, बुलेट प्रूफ मंच आदि का इंतजाम वही करते हैं। संतजी कभी नहीं पूछते कि कथा में लगने वाला पैसा कहाँ से आया। धीरे-धीरे संत स्वयं इतने अमीर हो जाते हैं कि ऐसी हर लक्जरी स्वयं के बल पर अफोर्ड करते हैं। कथा करने से लेकर मीडिया में एयरटाइम लेने तक का मीडिया एण्ड मार्केटिंग अरेंजमेंट और धन इनके पास होता है।
संतजी की बातों से प्रभावित हो एक अमीर श्रद्धालु ने उन्हें अपने निवास पर आगमन का न्योता दिया। संतजी ने खट से इंगित किया- 'फाइनेंस इत्यादि हमारी धर्मपत्नी देखती हैं, हमारी डायरी भी उन्हीं के पास रहती है, आप उन्हीं से अपॉइंटमेंट ले लें।' एक और संतजी हैं, उनके डेरे पर जाओ तो संतजी के दर्शन करके निकलने के बाद प्रसाद की एक-एक पुड़िया हर श्रद्धालु को दी जाती है और हर पुड़िया में से संतजी का स्वयं का एक-एक फोटो भी निकलता है। जिन्हें निर्विकार होना चाहिए उनकी लिप्तता और प्रचारप्रियता का आलम यह है। इस तरह के संत धार्मिक दिखने (होने के लिए नहीं) के लिए मेकअप भी पूरा करते हैं। आप यह कह सकते हैं कि आज आलम यह, कि गेरुआ साधुत्व का प्रतीक होने के बजाए गेरुआ वस्त्र संतों की वर्दी हो चला है। एक संतजी को कंकु के तिलक के बजाए लिपस्टिक का तिलक लगाना बेहतर लगता है, क्योंकि वह ज्यादा ग्लॉसी होता है। तो ऐसे भी संत हैं जो भाल पर वृंदावन की मिट्टी का अपियरेंस देने के लिए पीले पेन केक का इस्तेमाल करते हैं। कोई सिर के पीछे आभामंडल का आभास देने के लिए सूर्य डिजाइन करवाता है, तो कोई परदे पर चक्र। धर्म के नाम पर पूरा मेलोड्रामा, नाटक, फेंसी ड्रेस किया जाता हैं। ये बातें बढ़ती जाएँ तो समाज का नुकसान ही है। क्योंकि धर्म के नाम पर कर्म के बजाए आडंबर बढ़ रहा है। धर्म के नाम पर सादगी के बजाए, लालच, प्रचार की कामना, राजसत्ता की लालसा बढ़ रही है। ये ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं कि आम लोगों द्वारा इन पर उँगली रखी जाना आवश्यक है। ऐसा करना धर्म की निंदा नहीं होगी, न ही द्विजद्रोह होगा, बल्कि यह सकारात्मक समीक्षा होगी, जो आम आदमी का कर्तव्य भी है और अधिकार भी। इसमें कोई पाप बोध मानने की बात नहीं है। हममें से कई लोग ये बातें समझते हैं पर आँखों देखी मक्खी इसलिए निगलते रहते हैं कि वे डरते हैं कि उनका कुछ कहना कहीं धर्म की निंदा की श्रेणी में तो नहीं आ जाएगा? जबकि अधिकांश लोग अंधदृष्टि ही रखते हैं- ये लोग 'धर्म में तर्क नहीं' मत के गामी होते हैं अत: बात का परिप्रेक्ष्य समझने के बजाए अंधानुसरण ही करते हैं। आखिर आम जनता को ऐसे संतों (?) के दर्शन के लिए जाना ही क्यों चाहिए जिनके भगवान नेता और धनपति हैं। कुछ संतजी तो बाकायता फीता काटने, विमोचन करने, प्रोडक्ट लॉन्च करने भी जाते हैं। संत और प्रचार तंत्र का भला क्या रिश्ता? क्या कभी इस विडंबना पर हमने ध्यान दिया है?
- निर्मला भुराड़िया
सुंदर लिखा है आपने.
जवाब देंहटाएंआलोक
www.raviwar.com
निर्मला जी,
जवाब देंहटाएंआप का ब्लॉग देख कर अच्छा लगा.
अब आप भी ब्लॉगी हो गयी हैं.
शुभकामनाएँ.
प्रकाश हिन्दुस्तानी
Thanks for posting me your blog.Contnue writing more thought provoking articles.I read your two articles...both were interesting. Keep it up.
जवाब देंहटाएंAnand Wagholikar