अपनी बात
निर्देशक सिद्दीक बरमाक ने अफगानिस्तान के उस समय के हालात पर एक फिल्म बनाई है, जब अफगानिस्तान पर तालिबान कट्टरपंथियों ने कब्जा कर रखा था। पूरी तरह अफगानिस्तान के असल लोकेशन पर शूट की गई फिल्म 'ओसामा'में हम उन हालात से पर्दे पर रूबरू होते हैं जो हमने अक्सर पढ़े-सुने थे। कैमरा तालिबान कब्जे के उस काल में ले जाता है, जो कि हमारे बहुत नजदीक का अतीत है, जहाँ औरतों के घर से बाहर निकलने पर बंदिश है। बाहर जाना हो तो पिता, भाई, पुत्र, पति जैसा कोई नजदीकी रिश्तेदार साथ में होना आवश्यक है। औरतों के घर के बाहर कार्य करने पर बंदिश है। औरतों के ऐसे किसी भी पुरुष से बात करना वर्जित है जो उनका संबंधी न हो। औरतों के लिए जरूरी है कि वे सिर से पाँव तक बुरके में कैद हों। उनके नाखून तक न दिखें। फ्रेम-दर-फ्रेम ये हालात स्पष्ट होते हैं, ये बंदिशें दिखती हैं और इनके उल्लंघन के लिए तय क्रूर सजाएँ भी। चूहादानी जैसे पिंजरों में कैद कर ले जाई जातीं बुर्कानशीं औरतें, ढोरों की तरह हाँककर तालिबान बनने का प्रशिक्षण देने ले जाए जाते लड़के। धार्मिक स्कूल में धर्म की आड़ में किशोरों का ब्रेनवॉश आदि।
किशोर सुलभ नटखटपन में पेड़ पर चढ़कर खेलने वाले बच्चे को अंधे कुएँ में गिर्री से लटकाने की क्रूर सजा आदि दिल को चीरती है। उन दिनों तालिबान में अफगानिस्तान में कुफ्र कहकर नाचने-गाने पर भी पाबंदी लगा रखी थी। अत: एक दृश्य यूँ आता है। एक घर में स्त्रियाँ शादी का नाच-गानाकर रही हैं, खा-पी रही हैं। भनक लगने पर एक तालिबानी आ जाता है कड़क स्वर में पूछता है कि यहाँ क्या चल रहा है। घर का एक पुरुष दरवाजा खोलकर जवाब देता है घर में मौत हो गई है। इस बीच सभी औरतों ने फुर्ती से बुरका डाल लिया है, ढोल-मंजीरे बंद कर वे समूह में रोने बैठ गई हैं। उन्हें मातम मनाते देख संतुष्ट तालिबान चला गया है।
उपरोक्त हालात में फिल्म की बारह वर्षीय नायिका, उसकी माँ, उसकी नानी भूखे मर रहे हैं, क्योंकि उनके घर में कोई पुरुष नहीं है। सब युद्ध में मर गए। उधर औरतों का कुछ भी करना मना है। ऐसे में बच्ची, लड़के (ओसामा) का वेश धरकर चाय की गुमटी पर काम करने जाती है ताकि पारिश्रमिक के तौर पर शाम को 'रोटी' ला सके। बच्चा बनी बच्ची के तौर-तरीकों को तालिबान शंकास्पद निगाहों से तो देख ही रहे होते हैं कि एक दिन राज खुल भी जाता है। तालिबान की नजर में लकड़ी से बहुत बड़ा अपराध हो गया है और बारह साल की बच्ची तीसरी पत्नी के तौर पर सत्तर साल के मुल्ला को सौंप दी जाती है। तालिबान की नजर में यह न्याय हैं। पुरुष का बुढ़ापे में तीसरी शादी करना भी धर्मोचित है, स्त्री का रोजगार के लिए घर से बाहर निकलना भी गुनाह!
इस फिल्म के बहाने कट्टरपंथ की क्रूरताओं पर नजर डाली जा सकती है। यह किसी एक ही धर्म की बात नहीं है। एक खास प्रकार की जड़, निष्ठुर, स्वार्थी मानसिकता की भी बात है, जो इस काल में एक धर्म में चाहे ज्यादा दिखाई पड़ रही हो पर बाकी भी इससे अछूते नहीं हैं। कट्टरपंथी जहाँ भी जिस भी धर्म में या जिस भी समाज में हैं वे अपने स्वार्थों के लिए धर्म की ऊलजलूल और अपने स्वार्थ की सिद्धि करने वाली व्याख्याएँ कर रहे हैं। संस्कृति, परंपरा और मर्यादा की दुहाइयाँ देकर अपना उल्लू साध रहे हैं। अत: 'ओसामा' जैसी फिल्में कट्टरपंथ का हश्र क्या होता है, कट्टरपंथ के बीच आम नागरिक की क्या स्थिति होती है, इस बात के प्रति आगाह करती है। जब रूढ़िवाद और कट्टरपंथ धीरे-धीरे आम लोगों को अपनी गिरफ्त में ले रहा हो तब पता नहीं चलता। अजगर के पेट में चले जाने के बाद पता चल भी जाए तो कुछ हो नहीं सकता। मगर अक्सर हम धीरे-धीरे बढ़ रहे, आहिस्ता-अहिस्ता अपनी चपेट में ले रहे रूढ़िवाद का विरोध करने के बजाय उल्टे उसमें बहने लगते हैं। उधर हरियाणा में गोत्र के नाम पर जाति पंचायतों ने खून-खराबाकिया और इधर एक टीवी सीरियल के विज्ञापन में शादी के लिए उम्र, कद, जाति के साथ ही 'गोत्र' शब्द भी जोर-शोर से चमकने लगा! या यूँ कहें कि विशेष तौर पर जोड़ लिया गया। यह गलत प्रवृत्तियों और कट्टरपंथ को बढ़ावा देना नहीं तो और क्या है? आज के जमाने की पढ़ी-लिखी भारतीय स्त्रियों को और सामाजिक तौर पर जागरूक पुरुषों को ऐसी बातों का विरोध करना चाहिए, न कि रूढ़िवाद में और लिप्त होना चाहिए। आम आदमी को क्रमश: चाशनी में लपेटते हुए चढ़े बिना रूढ़िवाद चरम पर नहीं पहुँच सकता।
- निर्मला भुराड़िया
कट्टरपंथ की क्रूरताओं पर आपने सच्चाई को जाहिर किया हैं।
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