अपनी बात
कोई भी संस्थान, घटना या उत्पाद कितनी ग्रीन हाऊस गैसेस वातावरण में उत्सर्जित करता है उसे उसका कार्बन फुटप्रिंट कहा जाता है। आम लोग सिर्फ कार्बनडाई ऑक्साइड कहकर भी काम चला लेते हैं। तात्पर्य प्रदूषण फैलाने वाली सभी गैसों से होता है। यानी िकसी व्यक्ति, संस्थान या देश द्वारा िजतना प्रदूषण फैलाया गया वह उसका कार्बन फुटप्रिंट है, पीछे छोड़े गए प्रदूषण की 'पदछाप' है। कार्बन फुटप्रिंट को घटाने के लिए वनों की रक्षा करने, नए पेड़ लगाने, पुराने पेड़ बचाने, सर्य और हवा से प्राप्त प्राकृतिक ऊर्जा के प्रयोग आदि पर इन दिनों बहुत जोर िदया जा रहा है। िदन-प्रतिदिन गर्माती धरती ने दुनियाभर में पारिस्थितिकी जानकारों और पर्यावरण प्रेमियों को चौकस कर िदया है, कुछ हद तक आम लोगों को भी क्योंकि परिणाम तो सभी को भुगतना है सिर्प विशेषज्ञों को नहीं। हाँ विशेषज्ञों का काम आम लोगों को वस्तुस्थिति समझना है जो िक वे अपने-अपने तरीके से कर ही रहे हैं।
भारत में जल, वृक्ष, वन आदि के प्रति प्रेम और संरक्षण धर्म के माध्यम से और संस्कृति में गूँथकर समझाया गया। इस वजह से वृक्ष आम पुरुष ही नहीं आम स्त्री के लिए भी आदरणीय रहे। वे उन्हें सींचती-पूजती भी रहीं। प्राचीन पारंपरिक भारतीय जीवन में तो जीवन की चार में से दो अवस्थाएँ ही वनों में बिताने की कल्पना है। ब्रह्मचर्य यानी प्रकृति के गोद में बसे गुरु आश्रम में शिक्षा-दीक्षा और वानप्रस्थ तो नाम से ही स्पष्ट है। पुराणों में अपने व्यक्तिगत बागीचे में पंचवटी लगाने को भी स्वर्ग के समान कहा गया है। पंचवटी के पाँच पेड़ बताए गए हैं- पीपल, बरगद, बिल्व पत्र, अमालका व अशोक। ये पाँचों पेड़ फलदार और छायादार हैं। अग्निपुराण में वृक्षारोपण व वृक्ष रक्षा को आत्मा का उद्धारक बताया गया है। श्रीमद् भगवद गीता में श्रीकृष्ण ने अश्वत्थ यानी पीपल की महिमा बताई है। बुद्ध की माँ ने साल वृक्ष की डाली पकड़े-पकड़े बुद्ध को जन्म दिया, तो बुद्ध ने बोधिवृक्ष के नीचे ज्ञान प्राप्त किया। सीता ने अशोक वृक्ष के नीचे विरह के दिन काटे तो बुद्ध की माँ को अशोक वृक्ष के नीचे यह इलहाम हुआ िक वे एक महान संतान को जन्म देने वाली हैं। दक्षिण के कई गाँवों में बरगद ग्राम-रक्षक माना जाता रहा है।
तात्पर्य यही कि भारतीय पारंपरिकता में वृक्षों की महिमा कई तरीकों से बताई गई है, जरूरत पड़ने पर वृक्ष विशेष का नाम लेकर भी। जल स्रोत भी इसी तरह हमेशा से पूजित रहे हैं। ऋषि-मुनियों ने आम व्यक्ति को भले पुण्य के नाम से ही सही जल, प्रकृति और वृक्ष से हमेशा जोड़ा।
अब हम एक अलग ही युग में हैं। यह मशीनों का युग है, रफ्तार का युग है। इस युग में हम विकास के नाम पर हजारों वृक्षों की बलि ले रहे हैं, वनों को साफ किया जा रहा है, जल को प्रदूषित किया जा रहा है। मनुष्य जो कर रहा है वह उसे भरना भी पड़ेगा। भारतीय दर्शन में इसे कर्म और कर्मफल कहा जाता है। इसी तर्ज पर, कार्बन-फुटप्रिंट के आधार पर हम नए शब्द को ईजाद कर सकते हैं- 'कार्बन-कर्मा'। इस कार्बन-कर्मा का हिसाब-किताब यह है कि आप पेड़ काटते हैं, प्रदूषण फैलाते हैं, पर्यावरण को दूषित करने की जो भी हरकत करते हैं तो आप 'कार्बन-पाप' करते हैं। आप पेड़ लगाते हैं, पेड़ सींचते हैं, पेड़ों की रक्षा करते हैं, जल और ऊर्जा की बचत करते हैं तो आप कार्बन-पुण्य करते हैं। तो बस जल्दी से आप मन ही मन एक 'चित्रगुप्त-डायरी' बना डालिए और उसमें अपने कार्बन-कर्मों का ब्योरा रखिए। अपने कार्बन-पाप और कार्बन-पुण्य के हिसाब से आपको 'कार्बन क्रेडिट' अर्थात कार्बन-कर्मफल प्राप्त हो जाएगा।
चलते-चलते : कार्बन-पुण्य का एक उदाहरण-उत्तराखंड में विदा होती बेटी जब मायका छोड़कर जाती है तो घर छोड़ने के पूर्व एक पौधा रोपती है। बाद में बेटी का परिवार उसकी अमानत समझकर पेड़ को सींचता, संरक्षित करता है। 1995 में कल्याणसिंह नामक एक व्यक्ति ने यह विचार दिया। तब से यह रस्म-सी बन गई।
- निर्मला भुराड़िया
बहुत अच्छा नाम दिया आपने " कार्बन पुण्य ". ये विकास करने वाले सरकारी लोग विकास का अध्ययन करने के बहाने विदेशों की मुफ्त यात्रा करते रहते हैं .थोडा देखें तो सही इन देशों में कितनी अधिक हरियाली है विकास के साथ
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