अपनी बात
पिछले दिनों संसद में राहुल गाँधी ने कलावती नामक किसी स्त्री का जिक्र किया था। वे कलाबती की दयनीय स्थिति और संघर्ष के बारे में बता रहे थे। चूँकि जिक्र श्री गाँधी ने किया था, वह भी संसद में, अत: कलावती प्रसिद्ध हो गईं। कलावती नाम लोगों की जुबान पर चढ़ गया। कलावती की चर्चा के चलते एक अन्य ही कलावती ध्यान में आ गई। सत्यनारायण कथा की 'कलावती कन्या' और इस बहाने ध्यान आया सत्यनारायण व्रत-कथा का पूरा किस्सा। बचपन से ही लगता रहा है कि पूजा-पाठ के इस उपक्रम की विवेचना जरूरी है। उसके पहले एक झलक इस बात की कि कथा आखिर क्या है?
संक्षेप में बात यह है कि कथा में एक व्यापारी है। उसे संतान नहीं है। वह सत्यनारायण देव से वादा करता है, या कहें संकल्प करता है कि संतान होने पर वह व्रत-पूजा करेगा, दान-धर्म करेगा। संयोग की बात है कि उसके घर संतान भी होती है। कथा के शब्द हैं, 'उसके घर कन्या रूपी रत्न उत्पन्न हुआ।' यह एक ध्यान देने योग्य व खुशी की बात है। उस प्राचीनकालीन कथा में कन्या रूपी रत्न जैसे शब्दों का प्रयोग है, जो कि आज की भ्रूण हत्या वाली मानसिकता से बेहतर है। सो उस कन्या का नाम कलावती रखा गया। संतान पाने की खुशी में व्यापारी संकल्प भूल गया। पत्नी ने याद दिलाया तो उसने टाल दिया कि कलावती के विवाह पर संकल्प पूरा करूँगा, मगर उसके विवाह पर भी वह संकल्प पूरा करना टाल गया। अत: सत्यनारायण भगवान (!) रुष्ट हो गए। तरह-तरह का अनिष्ट हुआ,जिससे व्यापारी को अंतत: एहसास हुआ कि उसे झूठा वादा नहीं करना चाहिए था। संकल्प निभाना चाहिए था।
दरअसल, उपरोक्त कथा तो महज एक दृष्टांत है, जो शायद इसलिए रचा गया होगा कि साधारण व्यक्ति को यह बात समझाई जा सके कि संकल्प का क्या महत्व है,किया वादा निभाना भी एक किस्म का 'सच' है। सत्यनारायण भी दरअसल 'सत्य' यानी सच है, मगर हमने नारायण लगाकर उसका नाम करण कर दिया। सत्य को एक मूल्य से एक व्यक्ति बना दिया। हो सकता है कि आरंभ में 'सत्य' की पूजा का मकसद सत्य के प्रति आग्रह रखने से रहा हो, ताकि अच्छे मूल्यों के प्रति आग्रह का वातावरण परिवार में बने, समाज में सच एक परंपरा के रूप में स्थापित हो। यह विचार प्रबल हो कि झूठ, फरेब, वादाखिलाफी से अंतत: अनिष्ट ही होता है। भारतीय संस्कृति में कहा भी जाता है सत्यम्, शिवम्, सुंदरम् यानी ईश्वर सत्य है, सत्य ही शिव है, शिव ही सुंदर है। सत्य नामक मूल्य ही ईश्वर है और उसका पालन करने से जीवन सुंदर बनता है, मगर जैसे कि हमारी आदत है हर अच्छे विचार और परंपरा को शुद्ध कर्मकांड में बदल लेते है। सो हमने 'सत्य' के प्रति आग्रह को भी केवल और केवल कर्मकांड में बदल लिया। उसके पीछे की भावना से हमारा कोई लेना-देना ही नहीं है। इसी कड़ी में संसद में 'कलावती' का जिक्र तो हुआ, मगर विश्वास को विश्वासनारायण बना लिया गया और विश्वासनारायण को तरह-तरह का कंकू-चावल और करोड़ों का चढ़ावा चढ़ाया गया। विश्वास मत प्रकरण से राजनेताओं के चरित्र पर विश्वास और कम हुआ। जनता के विश्वास को धोखा मिला। नेतागण लोकतंत्र के मंदिर संसद में खड़े होकर सरेआम झूठ भी बोलते हैं। बिक भी जाते हैं,बदल भी जाते हैं।
यह भाँग तो पूरे कुएँ में पड़ी है। हमारे यहाँ देश के कर्णधारों की शिक्षा की बुनियाद झूठ पर पड़ती है। बात झूठे बर्थ सर्टिफिकेट से शुरू होती है। प्रतियोगी परीक्षाओं में बैठने वाले छात्रों की कोचिंग इंस्टीट्यूट ही रेग्यूलर स्कूल की झूठी अटेंडेंस दिलवाते हैं। तरह-तरह के झूठे सर्टिफिकेट बाजार में बिकते हैं। अरेंज शादियों में व्यक्ति के गुणों के बारे में तरह-तरह के झूठे बोले जाते हैं और जिंदगी भर के धोखे दिए जाते हैं। भारतीय जनजीवन में झूठ कितना रच-पग गया है, इसकी मिसालें दी जाएँ तो स्थान कम पड़ेगा। मूल बात यह है कि सत्य को सत्यनारायण बनाकर पूजा-पाठ करने की बजाय,हम सचमुच सत्य के प्रति आग्रह रखें तभी देश और समाज अनिष्ट से बचेगा। सत्यनारायण की कथा को पीड़ा-नाशक कहा गया है। दरअसल सत्य की साधना पीड़ा-नाशक और मोक्षदायिनी है। ऊपर से चाहे यह दिखाई न दे, पर यह 'सत्य' है।
- निर्मला भुराड़िया
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