दुनिया में जब लोकतंत्रों का आगमन नहीं हुआ था तब राजाओं और धर्मगुरुओं का आज्ञातंत्र चलता था। इनकी आज्ञा ही कानून होती थी, भले फिर वह सही हो या गलत। उनसे असहमति या उनका विरोध करने का तो सवाल ही नहीं था। और तर्क? उसके लिए तो जगह ही नहीं थी। राजाज्ञा से तथाकथित अपराधी को जिंदा जला देना, चोरी करने का शुबहा होने पर हाथ काट देना, सिर धड़ से अलग कर देना आदि बर्बर सजाएँ देना आम बात थी। धार्मिक कट्टरताओं के चलते सही बात कहने वाले को जहर का प्याला पीना होता था। धर्मगुरुओं के खिलाफ जाकर पृथ्वी गोल है चपटी नहीं कहने वाले का भी यही हश्र हुआ। उन्हीं बर्बर युगों में भारत में सती प्रथा भी थी। मगर उस युग में धर्मांधता, कट्टरपन, तानाशाहियों, बंद समाज के चलते भी राजा राममोहन राय जैसे लोगों ने सती प्रथा का विरोध किया। असके लिए उनके असीम साहस की प्रशंसा की जाना चाहिए। क्योंकि हममें से अधिकांश तो इक्कीसवीं सदी के अपेक्षाकृत शिक्षित, स्वतंत्र समाज में भी कुप्रथाओं का विरोध करने से डरते हैं। धार्मिक कट्टरता के खिलाफ आवाज उठाने में घबराते हैं। यह तो उन लोगों की बात हुई जो तर्कों को समझते हैं फिर भी आवाज नहीं उठाते, मगर ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो स्वयं ही अंधश्रद्धा से ग्रस्त हैं। यह भय उन्हें कुप्रथाओं संबंधी किसी भी विवेचना से रोकता है कि कहीं यह धर्म की आलोचना तो नहीं होगी! ऐसा सोचना धार्मिक प्रवृत्ति नहीं पापबोध है, क्योंकि कुप्रथाओं की ओर इंगित करना आलोचना नहीं विवेचना है। और धर्म हो या दुनिया की कोई भी चीज वह समय-सपेक्ष है। नए समय के सन्दर्भों में पुरानी चीजें भी पुनर्व्याख्या चाहती है। जब पुरानी चीजें आडम्बर, पाखंड और कुप्रथाओं का रूप ले चुकी हैं तो उन्हें बदल डालने में या नए सिरे से समझने में कोई आपत्ती नहीं है।
इसी सन्दर्भ में कुछ समय पहले घटी एक घटना की ओर ध्यान जाता है। रिद्धिश्री नामक जैन साध्वी बड़े नाटकीय तरीके से गायब हुईं। समाज ने इस घटना को धर्म के लिए कलंक माना। रिद्धिश्री उर्फ समता के सन्दर्भ में अपमानजनक शब्दों में बातें की जाने लगीं। शब्दावली यूँ बदली किवे रिद्धिश्री से सीधे आरोपी हो गईं। ठीक है एक पूज्य व्यक्ति का यह आचरण समाज की नजर में कलंक हो सकता है। लेकिन क्या किसी ने सोचा कि एक युवा स्त्री को प्रेमी के साथ घर बसा लेने जैसी सामान्य इच्छा के लिए ऐसा नाटक क्यों करना पड़ा? उसका अपराध यह था कि वह सांसारिक जीवन में लौटना चाहती थी और उसे अनुमति नहीं मिली, क्योंकि यह धर्मसम्मत नहीं था। मगर जब एक चौदह वर्ष की अवयस्क बालिका को दीक्षा दे दी गई थी, तो क्या वह कदम 'मानवधर्म सम्मत' था? अब वह वयस्क होने के पश्चात, अपनी खुद की समझ विकसित होने के पश्चात स्वनिर्णय से स्वइच्छा का जीवन जीना चाहती है, तो वापसी के द्वार पर लौह कपाट बंद हैं। यह तो कैद हुई धर्म कहाँ हुआ! और जो नाटक हुआ वह धर्म की मर्यादा तोड़ने का परिणाम नहीं बाल दीक्षा जैसी कुप्रथा का परिणाम माना जाना चाहिए। कहते हैं मोह के बाद मोहभंग आता है फिर आता है वीतराग। तब इंसान चाहे तो स्वेच्छा से किसी भी प्रकार की दीक्षा ले सकता है। अपने जीवन के साथ कोई भी प्रयोग कर सकता है। (हालाँकि प्रयोग सफल न होने पर पीछे लौटने के दरवाजे तो उसके लिए भी खुले होने चाहिए) खैर! बात है बच्चों की।
जैन धर्म में दीक्षा के बाद का जीवन बेहद कठिन है। कई बार बच्चे यह समझे बगैर दीक्षा ले लेते हैं। 1987 में इंदौर में एक पूर्व जैन साध्वी इंदुप्रभा अपना साध्वी जीवन छोड़कर ग्राम दूधिया के श्री राधेश्याम के साथ चली गई थी। इंदुप्रभा ने उस वक्त जो बयान दिया था वह आज भी गौर करने लायक है। उन्होंने कहा था, "मैं दुल्हन की तरह सजने की लालसा में साध्वी बनी थी। तब दीक्षा की कठोरता आदि के बारे में कुछ मालूम नहीं था। न ही दीक्षा की गूढ़ता के बारे में समझती थी। दुल्हन की तरह सजकर शोभायात्रा निकाले जाने की उमंग में मैं साध्वी बन गई।" उल्लेखनीय है कि दीक्षा पूर्व व्यक्ति को सजाया जाता है, गाजे-बाजे से, धूम-धाम से शोभायात्रा निकाली जाती है। बड़े-बड़े लोग आकर चरण वंदना करते हैं। हालॉंकि यह वीतराग के पहले का आखिरी मोह होता है इसलिए ऐसा किया जाता है। मगर बच्चों को सिर्फ महिमामंडन दिखता है इसके आगे के बारे में वह जानता भी है तो समझता नहीं।
बात सिर्फ इतनी भर भी नहीं है कि बच्चे या बच्चियॉं भव्यता से मोहित होकर दीक्षा ले लेते हैं। बाल दीक्षा थोपा-थोपी और "धार्मिकों (?) की राजनीति" के कुत्सित घेरे में भी चली गई है। जिस पर मुँह खोलने से भी लोग डरते हैं। पीछे वही डर "धर्म" (?) के खिलाफ कैसे बोलें। या फिर है कि जिस पर धर्म का ठप्पा लगा है वह सब अच्छा ही है। आँख मूँदकर उसे मान लो। लोगों की ऐसी ही धर्मंधता और भय के चलते आचार्य लोग राजनीति करने लगे हैं। 1998 में आचार्यों में से ही एक यति श्री विनयसागरजी महाराज ने इस ओर इंगित किया था। उन्होंने कहा था, "श्वेताम्बर जैन समाज के विभिन्न गच्छों के आचार्यों में अपनी शिष्य संख्या बढ़ाने के लिए चलने वाली होड़ में बाल दीक्षाएँ बढ़ रही हैं।" यानी धर्मगुरुओं में भी अहंकार और गलाकाट प्रतिस्पर्धा है कि किसने कितने शिष्य बनाए। इस प्रतिस्पर्धा की बलि चढ़ते हैं मासूम। क्योंकि उनके दिमाग में बाद डाल देना और उन्हें राजी करना अपेक्षाकृत अधिक आसान है।
बाल दीक्षा के और भी कारण हैं, जो कि सचमुच दिल दहला देने वाले हैं। ऐसे उदाहरण भी हुए हैं जहॉं दो बेटियों वाले गरीब पिता ने सोचा एक को तो दीक्षा दिला दें तो मिले दहेज से मुक्ति- महिमामंडन का महिमामंडन।
और ये कोरे इल्जाम नहीं हैं। जीते-जागते प्रकरण हैं। बस यही कि जब कोई सबूत सामने लाए जाने की कोशिश हो तो कुछ धार्मिक आचार्य और तथाकथित आस्था पर कोई सवाल न करने के पक्षधर अंधश्रद्धालु बिगड़ जाते हैं। मीडिया तक में इन मामलों की विवेचना को धार्मिक मामलों में हस्तक्षेप माना जाता है। कुप्रथाओं पर चोट को धर्म की निंदा समझकर लोग कानों परहाथ रख लेते हैं या बोलने वाले का मुँह तोड़ देने की धमकी देते हैं। नतीजा जबरिया दीक्षाएँ भी हो जाती हैं पर जनता में और मीडिया में धुआँधार मुद्दा नहीं बनता। न सिर्फ यह कि स्वस्थ बहस नहीं हो पाती, हम अत्याचार देखते रह जाते हैं। 1994 की ही एक खबर है कि राजस्थान में एक नाबालिग लड़की को उसकी मॉं की इच्छा के खिलाफ जबरन साध्वी बनाए जाने पर लड़की की मॉं ने बीस हजार लोगों के समक्ष मिट्टी का तेल छिड़क कर आग लगा ली थी तथा प्रशासनिक अधिकारी मूकदर्शक बने रहे। उस वक्त राज्यसभा में शून्यकाल में जनता दल की कमला सिन्हा ने यह मामला उठाया था। जाहिर है बात आगे बढ़ी नहीं। क्योंकि राजनेता धर्म-संप्रदाओं, जातियों के थोकबंद वोट बैंकों से डरते हैं और मीडिया विज्ञापनदाताओं से!
और कुप्रथा की चपेट में आए व्यक्ति को न कोई रास्ता मिलता है न मददगार, क्योंकि बागड़ें खुद खेत का रही हैं। फिर रास्ता क्या? देखिए- 1994 में ही नासिक में जैन साध्वी श्रीयशजी ने आत्महत्या कर ली थी। शव के पास पत्र पड़ा था जिसमें लिखा था, "इस जिंदगी से तो मौत भली।"
ऐसे ही वाकयों के चलते कुछ लोग बाल दीक्षा को कुप्रथा मानकर इसके खिलाफ आगे भी आए हैं। उन लोगों के जिक्र से शायद आमजन को इस बारे में कुछ हौसला मिले या अपनी राय प्रकट करने की प्रेरणा मिले। तकरीबन पॉंच-छः साल पहले उस समय आत्मवल्लभ जैन श्वेतांबर संघ के अध्यक्ष श्री देवेन यशवंत ने बेबाकी है कहा था, "गरीबी और आचार्यों की गुटबाजी दो ऐसे कारण हैं, जिनकी वजह से जैन धर्म में दीक्षा के लिए वैराग्यभाव परिपक्वता की शर्त का पालन नहीं किया जा रहा।" कुछ लोगों ने तो बाल दीक्षा की प्रवृत्ति के खिलाफ न्यायालयों में याचिकाएँ भी दायर कीं।
1987 में दिल्ली के एक वकील ने जैन समाज के अंतर्गत बाल दीक्षा रोकने के लिए सुप्रीम कोर्ट में भारत सरकार व मध्यप्रदेश सरकार सहित अनेक राज्य सरकारों के खिलाफ याचिका दायर की थी। याचिका में कहा गया था, "नाबालिग बच्चों को दीक्षा दिलाना न केवल संविधान व राष्ट्रीय शिशु नीति के खिलाफ है बल्कि इससे मानव अधिकार घोषणा पत्र का भी हनन होता है।" याचिका में यह भी स्पष्ट किया गया था कि लड़कों से ज्यादा नाबालिग लड़कियों को इसलिए दीक्षा दिलाई जाती है कि उनके माता-पिता शादी के लिए दहेज की मॉंग पूरी करने में असमर्थ होते हैं। 1998 में भी राजस्थान उच्च न्यायालय में राकेश शर्मा नामक एक व्यक्ति ने एक याचिका दायर की थी। जैन समाज ने याचिका का विरोध करते हुए कहा था - "दीक्षा शास्त्रोक्त है।" याचिकाकर्ता ने अंततः अपनी याचिका वापस ले ली थी। लेकिन 2004 में नौ वर्षीय प्रियाल बगरीचा उर्फ प्रीतवर्षा श्रीजी के मामले में वकील रवीन्द्र पारीख ने एक अनूठी पहल की थी। उन्होंने अपनी याचिका में बच्ची का अभिभावक बनने की गुजारिश की। उनका कहना था, "बाल दीक्षा बच्चों से संपत्ति का अधिकार छीन लेती है इसलिए प्रियाल को सुरक्षा देने के लिए मैं एक कल्याण ट्रस्ट बनाना चाहता हूँ।"
खैर संपत्ति का अधिकार तो क्या फिलहाल तो इन बच्चों का सामान्य मानव अधिकार ही सामने हैं। एक तो यह कि उस जीवन को आजमा लेने के बाद वापस लौटने का अधिकार नहीं। केशलोचन जैसी धार्मिक पद्धतियॉं हैं, जिसमें सारे बाल खींचकर तोड़े जाते हैं, बच्चे को लहूलुहान करके मुंडाई की जाती है। ऐसी और भी कई पद्धतियॉं उस जीवन में शामिल हैं जिनका विस्तार से विवरण यहॉं संभव नहीं है। पर यह तय है कि ये सब झेलने वाला नासमझ, अवयस्क बच्चा हो तो ये बातें क्रूरता की श्रेणी में आ जाती हैं। अब वह समय आ गया है जब हमें "भारतीय समाज" से जुड़ी ऐसी प्रथाओं की पुनर्विवेचना करना चाहिए।
- निर्मला भुराडि़या
आपके लेख वाकई में सच्चाई के काफी नजदीक है।
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