कई बार कुछ स्तब्धकारी बातों के बारे में उड़ती-फिरती जानकारी हमें होती है, मगर जब वह जानकारी पक्के तौर पर किसी भीतरी व्यक्ति के द्वारा आती है, तो उसकी यह पुष्टि हमें हतप्रभ कर देती हैै। ऐसा ही हुआ जब 'शिरीन अल फेकी" नामक केनेडियन-इजिप्शियन लेखिका ने अपनी किताब 'सेक्स एंड द सिटेडल" के जरिए मिस्र की महिलाओं के अंतरंग जीवन के झरोखे खोले जिससे दुनिया ने वो दरिंदगी देखी जो दैहिक पवित्रता के नाम पर प्रथा बनाकर स्त्रियों पर फरमाई जाती है। शिरीन अल फेकी का लेखन बेहद साहसिक है, उन्होंने सच को सामने लाने में न झूठे शर्म-संकोच को अपने आड़े दिया है न ही समाज के विरोध को, जो अपने स्वार्थ के चलते सड़ी-गली प्रथाओं को चलते रहने देना चाहता है। और यहां तो ये प्रथाएं सड़ी-गली ही नहीं क्रूर और अमानवीय है, मगर जब कुरीतियां धर्म-परंपरा की आड़ ले लें तो वो चलती ही रहती हैं।
चलिए सीधे बात पर आएं। मिस्र के समाज में औरत के कुंवारेपन और उसकी तथाकथित पवित्रता को जरूरी समझा जाता है। वहां आठ-नौ साल की उम्र में ही लड़की के जननांगों को क्षत-विक्षत करने की प्रथा तो है ही ताकि स्त्री में स्वयं की कोई कामचेतना न हो, वह नियंत्रण में रहे और सिर्फ पुरुष के उपभोग की वस्तु बनी रहे। अरब और अफ्रीका की दुनिया में और कहीं-कहीं एशिया में भी यह आम बात है। मगर मिस्र में इसके अलावा भी कुछ क्रूर प्रथाएं हैं जो स्त्री की वर्जीनिटी से जुड़ी है। इनके बारे में जानकर आप सचमुच स्तब्ध रह जाते हैं कि ऐसा भी होता है। मगर फिर भी जानना जरूरी है क्योंकि ऐसी कुप्रथाओं को मानवाधिकार का मुद्दा तभी बनाया जा सकता है जब हम इनके बारे में जानें। मिस्र में विवाह पूर्व स्त्री
का वर्जिन होना चूंकि मायके के परिवार की इज्जत से जुड़ा होता है लिहाजा यहां के गांव-कस्बों में 'दुखला बलदी" नामक एक प्रथा होती है। इसमें दाया (दाई) शादी के एक दिन पहले की रात को अपनी ऊंगली से दुल्हन की अक्षत झिल्ली को भेदकर उसे क्षत करती है! इससे जो रक्त आता है उसे एक सफेद कपड़े पर लेकर घर वालों और नजदीकी रिश्तेदारों के बीच घुमाया जाता है ताकि यह सनद रहे कि इज्जतदार घरवाले दूल्हे को कुंवारी व साबुत लड़की भेंट कर रहे हैं! बात यहीं समाप्त नहीं होती अस्मत की चादर, शीट ऑफ ऑनर या वहां की भाषा में कहें तो लाफ अल शरफ को लेकर लड़की वाले गांव के हर परिवार के दरवाजे पर जाते हैं और रक्त के धब्बे वाली चादर दिखाते हैं। लोग बदले में उन्हें उपहार देते हैं। यह दुखला का उत्सव होता है जिसमें स्त्रियां इस आशय के गीत गाती चलती हैं, 'दुल्हन तुमने अपनी चादर को पवित्र रखा है।" इस प्रथा को मिस्र के ईसाई और मुस्लिम दोनों ही मानते हैं। हालांकि दुखला बलदी गांव-कस्बों तक ही सीमित हो गया है। मगर इसका मतलब यह नहीं कि आधुनिकीरण और शहरी संस्कृति में यह न होता हो। होता है बस इसका रूप बदल गया है। यहां दुखला अफरंगी होता है। इसमें सुहागरात के पश्चात दुल्हन के माता-पिता दूल्हे से जानना चाहते हैं कि उनकी बेटी की हाइमन साबुत थी या नहीं? कैरो के एक पढ़े-लिखे वकील ने बेटी की सुहागरात के दिन दूल्हे से यह जानने के लिए इतने एसएमएस किए कि दूल्हे ने हारकर अपना फोन ही बंद कर दिया। मगर इससे लड़की वाले हतोत्साहित नहीं हुए और अगले दिन पवित्रता की चादर देखने दूल्हे के घर आ धमके। दरअसल दूल्हे
और उसके घरवाले भी इस प्रथा का समर्थन करते हैं। 2009 में इजिप्ट के पार्लियामेंट में ऐसी ही एक बात को लेकर हंगामा हो गया था। खबर थी कि चीन से एक प्रकार की कृत्रिम हाइमन मिस्र में प्रवेश कर चुकी है जो नकली खून भरा प्लास्टिक का झिल्ली-बैग है और जो लड़कियां अपनी हाइमन किसी वजह से खो चुकी हैं, वे दूल्हे के परिवार का विश्वास जीतने के लिए कृत्रिम हाईमन का उपयोग कर सकती हैं। नेताओं को भय था कि यह चीनी प्रोडक्ट अनैतिकता फैलाएगा।
यह सारे नतीजे हैं स्त्री को सिर्फ एक देह और पुरुष के लिए भोग्या मानने के। यह सब जानने के बाद हम चैन की सांस ले सकें कि चलो कम से कम हमारे देश में तो ऐसा नहीं होता, इससे पहले ही हमारे यहां की कुछ दिल दहलाने वाली घटनाएं सामने आ जाती है। वे घटनाएं जो इस वजह से घटती है कि हमारे यहां भी भले मिस्र की तरह पूरा का पूरा समाज नहीं मगर कुछ लोग जरूर हैं जो औरत को सिर्फ एक देह समझते हैं, पुरुष की भोग्या समझते हैं। अपने मन और इच्छाओं वाली स्वतंत्र मानवी नहीं। इंदौर में एक युवती ने अपने पति के परिवार और समाज पर यह इल्जाम लगाया है कि उसे अग्नि परीक्षा देने को कहा जा रहा है ताकि उसे फिर अपनाया जा सके! इस मामले का निकाल होना अभी बाकी है। मगर पहले खंते का ईमान और अग्नि परीक्षा के ऐसे मामले हो चुके हैं जहां पति और समाज द्वारा चरित्र पर शंका के चलते स्त्री को अग्नि परीक्षा देना पड़ी। यानी अंगारों पर चलने, जलती हुई सलाख हथेली पर रखने आदि जैसी परीक्षाएं। हमारे यहां सामूहिक बलात्कार के इतने केस होते हैं कि साफ समझ में आता है कि वासना में पगे पुरुषों के लिए औरत सिर्फ एक मांस का टुकड़ा है और कुछ नहीं। तिस पर भी समाज बलात्कृता का बहिष्कार करता है, उसे अजीब नजरों से देखता है। वजह यही कि हमारे यहां भी औरत की पवित्रता को लेकर बुनियादी सोच, पिछड़ा हुआ और पाखंडपूर्ण ही है। जब तक हम स्त्री को लेकर अपनी मानसिकता नहीं बदलते तब तक बदलाव का संपूर्ण होना मुश्किल है। स्त्री को मानवोचित सम्मान देने में उसका सम्मान है। उसकी तथाकथित पवित्रता के खंडित-अखंडित होने को इज्जत-आबरू का नाम देना सम्मान नहीं कहलाता। सम्मान की यह धारणा गलत है।
-निर्मला भुराड़िया