गुरुवार, 10 अक्टूबर 2013

टर्निंग पॉईंट

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कुछ दिनों पहले हम लोग मध्यप्रदेश के मालवांचल के एक गांव में गए थे, एक पारिवारिक मित्र का खेत देखने। बारिश का मौसम था। चारों और हरियाली थी। हम लोग इस इलाके के प्राकृतिक सौंदर्य की चर्चा कर रहे थे। कभी-कभार कच्ची पगडंडियों पर कोई मोटर साइकल या कोई स्त्री या पुरुष दिख जाता था। कुछ स्त्री-पुरुष खेतों में भी दिखाई दिए थे। स्त्रियां तो लाल-नारंगी चटख रंगों की साड़ियों में थीं। पगडंडी पर इक्की-दुक्की स्त्रियां घूंघट में भी दिखाई दी थी। इस सदी में भी कई स्त्रियां घूंघट में रहने को बाध्य हैं, पर्दा प्रथा अभी पूरी तरह गई नहीं है- इन स्त्रियों को देखकर यह विचार आया। कुछ देर पहले ही खेत-मालिक मित्र ने बताया था कि अपनी किशोरावस्था में जब वे गांव में ही रहते थे, यहां के घर-परिवार और समाज में उन्होंने देखा था कि लोग बात-बात में अपने घर की औरतों पर हाथ उठा देते थे। चूल्हे की लकडी या अन्य किसी चीज से भी ऐसा मारते कि स्त्री घायल हो जाए। और ऐसे दोष लगाकर कि फलां जवाब देती है, मुंह चलाती है, कहना नहीं मानती वगैरह। यानी स्त्री का मूक और आज्ञाकारी होना एक जरूरी चीज थी। जो स्त्रियां परनिर्भर और बगैर पढ़ी-लिखी होती थीं या होती हैं, चाहे वे शहर की हों या गांव की, उनके पास अन्याय का प्रतिकार करने का क्या उपाय है?
खैर! हम खेत पर पहुंचे और सब कुछ चाव से देखा। हरियाली के बीच अपनी तस्वीरें उतारी। फिर मित्र ने कहा खेत के रखवाले रघुनाथ को बुला लें, वो इस इलाके के चप्पे-चप्पे से परिचित हैं आपको आस-पास का इलाका घुमा देंगे। उनसे पूछा कि क्या रघुनाथजी को बुलाने उनके घर जाना होगा? मित्र ने कहा नहीं मोबाईल लगा लेते हैं। मोबाईल की बात सुनकर बहुत आश्चर्य नहीं हुआ। शहरों में भी मोबाईल सर्वव्यापी है। अफसर से लेकर, घरेलू सेवक, दूधवाले, रेहड़ी वाले सबके पास है। सो रखवाले रघुनाथ के पास भी होगा ही। फोन लगाया मगर उठाया रघुनाथ की बेटी ने। उसने कहा हमारी भैंस गुम गई है, तो पिताजी तो भैंस ढूंढ़ने गए हैं। पता नहीं कब तक लौटेंगे।
जब रघुनाथ नहीं मिले तो हम लोगों ने सोचा हम अपनी समझ से और मित्र की किशोरावस्था की यादों के सहारे ही यहां और आसपास के इलाके में भ्रमण कर लेते हैं। इस बीच हमने कई घर, खेत, पगडंडियां, और बसावटें देखीं। लौटते में हम एक कच्चे घर के सामने से गुजरे। दूर से एक लड़की दिख रही थी। मित्र ने आवाज लगाई,'क्यों बेटी, पिताजी गए, भैंस मिल गई?" तो लड़की पास आई। हमने आश्चर्य से देखा लड़की ने बहुत सलीके से शलवार-कमीज पहने थे, करीने से बाल बांधे थे, चप्पल भी पहने थी। वह मालवी बोल रही थी, पर बोली उसकी सलीकेदार थी। हमने बाद में रास्ते में मित्र से कहा कि खेत के रखवाले की बेटी की हमारी कल्पना कुछ और थी। तब मित्र ने बताया कि बच्ची पढ़ी-लिखी है। कॉलेज जाती है। इंदौर में होस्टल में रहकर पढ़ रही है। आज रविवार है इसलिए गांव आई है।
इस परिवर्तन को देखकर किसका मन प्रसन्ना नहीं होगा। कुछ समय पहले गांव में खेतों के रखवाले की लड़की के कॉलेज जाने की किसी ने कल्पना भी की होगी भला? आज इस लड़की पर हाथ उठाने के पहले घर वालों को भी सोचना पड़ेगा। यह टर्निंग पॉईंट है। देश में स्त्रियों की स्थिति में टर्निंग पॉईंट। जब निर्भया वाले प्रकरण में एक हिंसक जबरदस्ती के विरोध में पूरा देश उठ खड़ा हुआ तो यह भी एक टर्निंग पॉईंट था। कल तक बलात्कार की बात छुपाना ही अच्छा समझा जाता था। आज लड़की की मां भी कह रही हैं उसे लड़की का नाम खोलने में कोई गुरेज नहीं है,आखिर उनकी लड़की ने कोई गलत काम नहीं किया है। इस घटना ने लड़कियों की पवित्रता-अपवित्रता को लेकर हमारे सोच में जरा भी परिवर्तन किया तो यह सचमुच बड़ा टर्निंग पॉईंट होगा। तब बलात्कार से कलंकित लड़की नहीं होगी, धब्बा बलात्कारी पर लगेगा। अपवित्र और दूषित वह माना जाएगा जिसने अपराध किया है। टर्निंग पॉईंट आने के बाद भी बदलाव तो धीरे-धीरे होगा, मगर होगा जरूर यह आशा तो हो ही जाती है। अब हम पौराणिक काल से अलग देश-काल में रहते हैं। अब किसी सीता को अग्नि परीक्षा देने की जरूरत नहीं।
निर्मला भुराड़िया

रफ़्तार