मित्रों और सहयोगियों
की महफिल
में एक
बहुत मजेदार
विषय पर
बात चली।
सब यह
बता रहे
थे कि
तकरीबन सात-आठ वर्ष
की उम्र
में जब
वे हिन्दी
फिल्मों के
गीत अपने
आस-पास
बजते हुए
सुनते थे
तो कानों
में गीत
के बोल
तो जाते
थे, मगर
मस्तिष्क में
वे बोल
उस उम्र
के बोध
के अनुसार
ही ग्रहण
किए जाते
थे। मसलन 'मेरा
नाम जोकर"
का यह
गाना, 'तीतर
के दो
आगे तीतर,
तीतर के
दो पीछे
तीतर!" यह गाना एक मित्र
को यूं
सुनाई देता
था, 'टीचर
के दो
आगे टीचर,
टीचर के
दो पीछे
टीचर!" बच्चे की गलती नहीं
थी। न
कान खराब
थे, न
बुद्धि कम।
मगर उसके
बोधजगत में
तीतर नाम
के पंछी
की कोई
उपस्थिति दर्ज
नहीं थी।
हां शिक्षक
जरूर महत्वपूर्ण
हस्ती थे।
वे उसके
जीवन और
इस उम्र
तक प्राप्त
सीमित जगत
का हिस्सा
थे। फिर
बच्चे ने
फिल्म भी
देखी थी।
गाने में
टीचर साफ
दिखाई दे
रही थी
तो बालक
ने उसी
अनुसार अर्थ
ग्रहण किया।
इसी तरह
और भी
लोगों ने
बताया कि
बाल्यकाल में
हिन्दी फिल्म
का कौनसा
गाना, किस
तरह सुनाई
देता था।
एक मित्र
को 'बोले
रे पपीहरा"
सुनकर लगता
था हरे
रंग का
कोई पपी
यानी कुत्ते
का पिल्ला
होगा। और
उन्होंने अपनी
मम्मी से
बोलने वाला
हरा पपी
लाने की
मांग तक
कर डाली
थी। इसी
तरह एक
लड़की को
'नाना करते
प्यार" में 'नाना" का अर्थ
ग्रेंडफादर समझ आता था। मेरे
ख्याल से
इस लड़की
को क्या,
उस जमाने
में उसके
हम उम्र
कई बच्चों
ने इस
गाने में
'ना-ना"
नहीं 'नाना"
सुना होगा।
इसी तरह
फिल्म 'सूरज"
का गाना
है, 'गुस्ताखी
माफ..." यह उर्दू शब्द और
लड़की की
जुल्फ संवारना
चाहने की
लड़के की
गुस्ताखी यह
तो दूर-दूर तक
समझ के
बाहर था।
लिहाजा हर
बच्चा अपनी-अपनी समझ
और कल्पना
के अनुसार
ही इसे
सुनता था।
अत: एक
ने 'गुस्ताखी
माफ" में 'कुत्ता की भौं"
सुना तो
दूसरे ने
'गुप्ता की
मां!" इसी तरह 'दोस्त दोस्त
ना रहा"
किसी को
'दोस्त-दोस्त
नहा रहा" सुनाई
देता था
तो किसी
को 'ये
इलू-इलू
क्या है"
सुनकर लगता
था, 'ये
पिल्लू-पिल्लू
क्या है।"
कम उम्र में
दुनिया जिस
तरह दिखाई
देती है
वह जगत
के आईसबर्ग
की नोक
भर होती
है। या
शायद नोक
से भी
कम। धीरे-धीरे जब
इंसान इससे
टकराता है,
इसके संपर्क
में आता
है तब
इसकी लंबाई-चौड़ाई, गहराई,
विशालता का
कुछ-कुछ
अंदाजा होने
लगता है।
आपके बोध
जगत के
विकसित होने
में अनुभव
का बहुत
बड़ा हाथ
है। बहुत
साल पहले
एक लड़की
स्कूल की
ट्रिप से
कन्या कुमारी
जाने वाली
थी। वहां
क्या-क्या
देखने को
मिलेगा यह
जानने पर
शिक्षिका ने
कई बातों
सहित यह
भी बताया
था कि
वहां चूंकि
भारतीय धरती
का आखिर
छोर है
सो शाम
को सूरज
समुद्र में
ही डूब
जाता है
और अगले
दिन समुद्र
से ही
निकलता है।
दस साल
की लड़की
को सूरज
के समुद्र
में ही
अस्त होने
की बात
बहुत मनमोहक
लगी। उसने
कल्पना की
कि जब
गरम-गरम
सूरज पानी
में उतरता
होगा तो
छम्म की
आवाज होती
होगी, वैसे
ही जैसे
मां रोटी
डालने के
पहले गर्म
तवे पर
पानी के
छींटे डालती
है तब
आती है।
मगर ऐसा
कुछ नहीं
था। सूरज
बे आवाज
डूबा और
दूसरे दिन
बे आवाज
ही समंदर
से बाहर
आया। और
एक अनुभव
जन्य सत्य
से लड़की
का साक्षात्कार
हुआ। बहुत
बड़े होने
और विज्ञान
की शिक्षा
ग्रहण करने
के बाद
तो यह
भी समझ
आ गया
कि सूरज
का समंदर
में डूबना
महज एक
अहसास था।
कई लोग आजकल
एक अजीब
सी बात
करते नजर
आते हैं
कि आजकल
के बच्चों
का आई.
क्यू. बढ़
गया है।
वे पहले
के बच्चों
से ज्यादा
'इंटेलिजेंट" हैं। यह
ठीक है
कि आजकल
के बच्चों
का एक्सपोजर
बढ़ गया
है। वे
जानकारियों की बमबारी के बीच
बैठे हैं।
उनके पास
तरह-तरह
की सूचनाओं
का भंडार
है। मगर
सूचना और
ज्ञान में
अंतर है।
उस स्तर
पर बच्चे
वैसे ही
हैं जैसे
पहले होते
थे। बच्चे
तो बच्चे
हैं। और
वे बच्चे
ही रहेंगे।
दुनिया को
देखने का
त्रिआयामी बोध अनुभव के साथ
ही विकसित
होता है।
यह जीवन
की किताब
पढ़ कर
ही मिलता
है। जैसे-जैसे जीवन
आगे बढ़ता
है उसके
नए आयाम
खुलने लगते
हैं। जैसे
कई मित्रों
ने बताया कि उन्होंने पंद्रह-सत्रह साल
की उम्र
में कोई
उपन्यास पढ़ा
था। फिर
चालीस-पैतालीस
की उम्र
में उसे
फिर उठाया
तो इस
बार उसमें
कई नए
और गहरे
अर्थ मिले।
उस उपन्यास
को पढ़ने
की बुद्धि
और समझ
तो सत्रह
साल की
उम्र में
भी पूर्ण
विकसित हो
गई थी।
मगर जीवन
के अनुभव
ने उसे
समझने की
नई दृष्टि
दी। व्यक्ति
के परसेप्शन
को, बोध
को विस्तार
दिया।
आज के तेज
भागते और
चटपट नतीजा
चाहने वाले
जमाने में
हम अनुभव
को कितनी
तवज्जो देते
हैं पता
नहीं। मगर
यह सत्य
है कि
अनुभव का
कोई तोड़
नहीं है।
इसे प्राप्त
करने की
कोई इंस्टॅट
मैथड नहीं
है। इस
पूंजी को
थोड़ा-थोड़ा
करके जीवन
भर जुटाया
जाता है।
अनुभव अनमोल
होता है।
आप इसे
मानो या
न मानो।
समझो या
न समझो।
दरअसल अनुभव
कितना कीमती
है यह
बात भी
अनुभव से
ही समझ
आती है।
निर्मला भुराड़िया