फिल्म 'सिंघम" एक ईमानदार पुलिस अफसर और भ्रष्ट नेता के टकराव की कहानी है। इस फिल्म में एक खास बात यह है कि फिल्म के अन्य किरदार भी ईमानदार व्यक्ति के पक्ष में हैं चाहे वे अफसर के साथी और मातहत हों या उसके गाँव वाले। इसमें ईमानदार आदमी को अकेला खड़े और हारते हुए नहीं दिखाया गया है। अत: पर्दे पर चलती कहानी से आम आदमी हतोत्साहित नहीं होता, प्रेरित होता है। ईमानदारी और कुछ कर गुजरने के जोश से भर जाता है। इस फिल्म को टॉकीज में जाकर देखना भी एक अनुभव है, क्योंकि दर्शकों की सीटियाँ और तालियाँ उत्साह का संचार करती हैं। एकल थिएटर तो छोड़ो मल्टीप्लेक्स के दर्शक भी इस फिल्म में सीटियाँ बजाने में पीछे नहीं रहे हैं। कुछ बुद्धिजीवियों ने जरूर फिल्म अवास्तविक है, लाऊड है कहकर नाक-भौं सिकोड़ी है, मगर फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छी गई है, क्योंकि आम आदमी ने इसे अच्छा प्रतिसाद दिया है। फिल्म में एक विलेन को जब ईमानदार अफसर पीछे से एक लात जमाता है, तो उसके अन्य भुक्तभोगी साथी भी लाइन से एक-एक लात जमाते जाते हैं। जाने का टाइम हो जाने पर जो रह जाता है वह कहता है 'मैं भी एक लात जमा दूँ?" दर्शक को भी इस दृश्य में बहुत मजा आता है, क्योंकि वह भी भ्रष्टाचार का भुक्तभोगी हैै। ऐसे दृश्यों में लगता है कि दर्शक भी अभी पर्दे पर लात जमाने वाला है!
दरअसल ऐसी ही लहर इस वक्त पूरे हिन्दुस्तान में चल रही है। झूठे नेताओं से त्रस्त और भ्रष्टाचार से पस्त जनता अण्णा हजारे में 'दाग ढूँढते रह जाओगे" वाली छवि पाकर उनके पीछे चल पड़ी। लोकपाल या जनलोकपाल वाले मुद्दे की सूक्ष्मता में आम जनता जाना भी नहीं चाहती। सो कुल मिलाकर इस आंदोलन ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की शक्ल ले ली है। इस वक्त देश में भ्रष्टाचार की जो सड़न व्याप्त है उसको देखते हुए यह वाजिब ही है कि लोग उठ खड़े हों और उम्र, वर्ग, ऊँच-नीच और जात-पात के पार जाकर एकता दिखाएँ। यही हुआ भी है। अण्णा की लहर में कई पुरानी जड़ताएँ डूब गई हैं। जैसे कि नई-नई आजादी के पंद्रह-बीस सालों को छोड़ दें तो भारतीय युवा राजनीति के प्रति काफी निरपेक्ष रहा है। देशभक्ति का नाम लेने में शर्माता रहा है। मगर इस आंदोलन में युवाओं ने जमकर भागीदारी की और देश बदलने की इच्छा दिखाई है। न सिर्फ वे सड़कों पर निकले बल्कि फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, एसएमएस जैसे आधुनिक साधनों का भी उपयोग किया। अब तक कहा जाता था कि शास्त्रीजी के आह्वान पर पहले लोग उपवास करते थे, अब ऐसा कभी नहीं हो सकता। मगर इस बार युवाओं ने भी अनशन किया। एक युवा छात्र के ही उद्धरण लें जो बाकी युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है, 'जब एक बूढ़ा व्यक्ति देश के लिए उपवास कर सकता है तो क्या मैं जवान होकर एक दिन भूखा नहीं रह सकता?" भारतीय गृहिणियों के बारे में भी अक्सर कहा जाता है कि वे चौके-चूल्हे से आगे की नहीं सोचती। टीवी युग की गृहिणियाँ देश और राजनीति की चर्चा की बजाय धारावाहिकों में उलझी रहती हैं। यह धारणा भी पिछले दिनों ध्वस्त हुई है। भारत में जगह-जगह स्त्रियाँ घर से बाहर निकलीं और उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की। इस बार और भी कई अजूबे हुए। गाँधी टोपी निकल आई और आधुनिक माथों पर छा गई। प्रचार माध्यमों के मार्केटिंग मैनेजर पिछले सालों में लाख ये दुहाई देते रहे हों कि अब तो बोल्ड एंड ब्यूटीफुल और रिच एंड फेमस का ही जमाना है। आप ग्लैमरस हों, जवाँ हों, खूबसूरत हों, अँग्रेजीदाँ हों तभी आप असअसरकारी होते हैं वर्ना वक्त के (समाज के) कूड़ेदान में डाल दिए जाते हैं। यह विश्लेषण भी गलत साबित हुआ। एक ऐसे आदमी के पीछे ढेर से युवा, कई सारे फिल्म स्टार, कई अँग्रेजीदाँ, कई खास और आम आदमी आ गए, जो युवा नहीं है, ग्लैमरस नहीं है और हिन्दी बोलता है! मतलब यही कि दम तो मुद्दे में होना चाहिए।
अब सवाल यह है कि कहीं यह लहर तात्कालिक न हो। कहीं यह लहर बैठ न जाए। सिर्फ लोकपाल की ही बात नहीं है और हमारे यहाँ विसलब्लोअर्स (भ्रष्ट पर उँगली उठाने वाला) की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। सूचना के अधिकार का कानून तो मिल गया पर भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वाला मारा जाता है। पिछले हफ्ते ही एक जाँबाज आरटीआई कार्यकर्त्ता शेहला मसूद की भोपाल में हत्या कर दी गई। कई बहुत अच्छे कानून भी हैं पर उन पर अमल की इच्छाशक्ति नहीं है। सिर्फ राजनीतिक, प्रशासनिक भ्रष्टाचार ही क्यों सामाजिक भ्रष्टाचार भी गहन रूप में व्याप्त है। अत: जनता में सिर्फ अवतार के पीछे चलने की आदत ही नहीं कभी-कभी खुद के गिरेबानों में झाँकने की आत्मशक्ति भी हो, तभी यह लहर नारों से ऊपर उठकर परिवर्तन लाने में कामयाब होगी। सबसे पहले तो यह सोचना होगा कि हम सचमुच जाग गए हैं या सिर्फ तात्कालिक भावोद्वेग में बह रहे हैं। भ्रष्ट नेताओं की लगाम कसने वाले कानून बनने के साथ ही जरूरी है समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना। आज जो लहर उठ रही है, उसकी ऊर्जा विद्युत स्रोत में बदले, तभी हमें स्थायी रूप से चलाए रखेगी वर्ना माहौल बिखरते ही बिखर जाएगी। आशा है आज का युवा इस आग को जिलाए रखेगा।
- निर्मला भुराड़िया