बुधवार, 24 अगस्त 2011

यह आग बुझने न पाए



फिल्म 'सिंघम" एक ईमानदार पुलिस अफसर और भ्रष्ट नेता के टकराव की कहानी है। इस फिल्म में एक खास बात यह है कि फिल्म के अन्य किरदार भी ईमानदार व्यक्ति के पक्ष में हैं चाहे वे अफसर के साथी और मातहत हों या उसके गाँव वाले। इसमें ईमानदार आदमी को अकेला खड़े और हारते हुए नहीं दिखाया गया है। अत: पर्दे पर चलती कहानी से आम आदमी हतोत्साहित नहीं होता, प्रेरित होता है। ईमानदारी और कुछ कर गुजरने के जोश से भर जाता है। इस फिल्म को टॉकीज में जाकर देखना भी एक अनुभव है, क्योंकि दर्शकों की सीटियाँ और तालियाँ उत्साह का संचार करती हैं। एकल थिएटर तो छोड़ो मल्टीप्लेक्स के दर्शक भी इस फिल्म में सीटियाँ बजाने में पीछे नहीं रहे हैं। कुछ बुद्धिजीवियों ने जरूर फिल्म अवास्तविक है, लाऊड है कहकर नाक-भौं सिकोड़ी है, मगर फिल्म बॉक्स ऑफिस पर बहुत अच्छी गई है, क्योंकि आम आदमी ने इसे अच्छा प्रतिसाद दिया है। फिल्म में एक विलेन को जब ईमानदार अफसर पीछे से एक लात जमाता है, तो उसके अन्य भुक्तभोगी साथी भी लाइन से एक-एक लात जमाते जाते हैं। जाने का टाइम हो जाने पर जो रह जाता है वह कहता है 'मैं भी एक लात जमा दूँ?" दर्शक को भी इस दृश्य में बहुत मजा आता है, क्योंकि वह भी भ्रष्टाचार का भुक्तभोगी हैै। ऐसे दृश्यों में लगता है कि दर्शक भी अभी पर्दे पर लात जमाने वाला है!

दरअसल ऐसी ही लहर इस वक्त पूरे हिन्दुस्तान में चल रही है। झूठे नेताओं से त्रस्त और भ्रष्टाचार से पस्त जनता अण्णा हजारे में 'दाग ढूँढते रह जाओगे" वाली छवि पाकर उनके पीछे चल पड़ी। लोकपाल या जनलोकपाल वाले मुद्दे की सूक्ष्मता में आम जनता जाना भी नहीं चाहती। सो कुल मिलाकर इस आंदोलन ने भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की शक्ल ले ली है। इस वक्त देश में भ्रष्टाचार की जो सड़न व्याप्त है उसको देखते हुए यह वाजिब ही है कि लोग उठ खड़े हों और उम्र, वर्ग, ऊँच-नीच और जात-पात के पार जाकर एकता दिखाएँ। यही हुआ भी है। अण्णा की लहर में कई पुरानी जड़ताएँ डूब गई हैं। जैसे कि नई-नई आजादी के पंद्रह-बीस सालों को छोड़ दें तो भारतीय युवा राजनीति के प्रति काफी निरपेक्ष रहा है। देशभक्ति का नाम लेने में शर्माता रहा है। मगर इस आंदोलन में युवाओं ने जमकर भागीदारी की और देश बदलने की इच्छा दिखाई है। सिर्फ वे सड़कों पर निकले बल्कि फेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, एसएमएस जैसे आधुनिक साधनों का भी उपयोग किया। अब तक कहा जाता था कि शास्त्रीजी के आह्वान पर पहले लोग उपवास करते थे, अब ऐसा कभी नहीं हो सकता। मगर इस बार युवाओं ने भी अनशन किया। एक युवा छात्र के ही उद्धरण लें जो बाकी युवाओं का प्रतिनिधित्व करता है, 'जब एक बूढ़ा व्यक्ति देश के लिए उपवास कर सकता है तो क्या मैं जवान होकर एक दिन भूखा नहीं रह सकता?" भारतीय गृहिणियों के बारे में भी अक्सर कहा जाता है कि वे चौके-चूल्हे से आगे की नहीं सोचती। टीवी युग की गृहिणियाँ देश और राजनीति की चर्चा की बजाय धारावाहिकों में उलझी रहती हैं। यह धारणा भी पिछले दिनों ध्वस्त हुई है। भारत में जगह-जगह स्त्रियाँ घर से बाहर निकलीं और उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज बुलंद की। इस बार और भी कई अजूबे हुए। गाँधी टोपी निकल आई और आधुनिक माथों पर छा गई। प्रचार माध्यमों के मार्केटिंग मैनेजर पिछले सालों में लाख ये दुहाई देते रहे हों कि अब तो बोल्ड एंड ब्यूटीफुल और रिच एंड फेमस का ही जमाना है। आप ग्लैमरस हों, जवाँ हों, खूबसूरत हों, अँग्रेजीदाँ हों तभी आप असअसरकारी होते हैं वर्ना वक्त के (समाज के) कूड़ेदान में डाल दिए जाते हैं। यह विश्लेषण भी गलत साबित हुआ। एक ऐसे आदमी के पीछे ढेर से युवा, कई सारे फिल्म स्टार, कई अँग्रेजीदाँ, कई खास और आम आदमी गए, जो युवा नहीं है, ग्लैमरस नहीं है और हिन्दी बोलता है! मतलब यही कि दम तो मुद्दे में होना चाहिए।

अब सवाल यह है कि कहीं यह लहर तात्कालिक हो। कहीं यह लहर बैठ जाए। सिर्फ लोकपाल की ही बात नहीं है और हमारे यहाँ विसलब्लोअर्स (भ्रष्ट पर उँगली उठाने वाला) की रक्षा के लिए कोई व्यवस्था नहीं है। सूचना के अधिकार का कानून तो मिल गया पर भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वाला मारा जाता है। पिछले हफ्ते ही एक जाँबाज आरटीआई कार्यकर्त्ता शेहला मसूद की भोपाल में हत्या कर दी गई। कई बहुत अच्छे कानून भी हैं पर उन पर अमल की इच्छाशक्ति नहीं है। सिर्फ राजनीतिक, प्रशासनिक भ्रष्टाचार ही क्यों सामाजिक भ्रष्टाचार भी गहन रूप में व्याप्त है। अत: जनता में सिर्फ अवतार के पीछे चलने की आदत ही नहीं कभी-कभी खुद के गिरेबानों में झाँकने की आत्मशक्ति भी हो, तभी यह लहर नारों से ऊपर उठकर परिवर्तन लाने में कामयाब होगी। सबसे पहले तो यह सोचना होगा कि हम सचमुच जाग गए हैं या सिर्फ तात्कालिक भावोद्वेग में बह रहे हैं। भ्रष्ट नेताओं की लगाम कसने वाले कानून बनने के साथ ही जरूरी है समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना। आज जो लहर उठ रही है, उसकी ऊर्जा विद्युत स्रोत में बदले, तभी हमें स्थायी रूप से चलाए रखेगी वर्ना माहौल बिखरते ही बिखर जाएगी। आशा है आज का युवा इस आग को जिलाए रखेगा।

- निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 10 अगस्त 2011

छोटी हुई दुनिया को चाहिए बड़े दिल वाले



नार्वे में एक कट्टरपंथी युवक ने अंधाधुँध गोलियाँ चलाकर कई लोगों को मार डाला। यह युवक योरप में नव-नाजीवाद का चेला है। यह वह लोग हैं, जो यह मानते हैं कि उनकी नस्ल और उनकी ही संस्कृति श्रेष्ठ है, अत: उसमें किसी और संस्कृति का मिश्रण होना यानी संस्कृति का दूषित होना कहा जाता है। यह युवक धार्र्मिक कट्टरपंथी भी है, जो इस सोच का अनुगामी भी है कि उनके देश में इस्लाम अन्य धर्म के लोग आकर उनके संसाधनों को बाँटेंगे और उनके धर्म की तथाकथित शुभ्रता को कलंकित करेंगे। नार्वे जैसी शांत और प्रजातांत्रिक जगह पर इस तरह की घटना का होना भौंचक कर देने वाला है। मगर यह एक अकेला उदाहरण नहीं है। दुनिया में कट्टरपंथियों और इक्कलखोरों की कमी नहीं है। ज़ीनोफोबिया अर्थात विदेशी-द्वेष बढ़ता ही जा रहा है। जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया, इंग्लैंड तो छोड़िए अमेरिका जैसी जगहों पर भी, जो कि बना ही अनान्य संस्कृतियों से मिलकर है, विदेशी-द्वेष दिखने लगा है। हालाँकि इसका धार्मिक या सांस्कृतिक भिन्नाता से कोई लेना-देना नहीं है, संसाधनों के बँटवारे से है। आर्थिक मंदी के बाद रोजगार के लिए मारामारी कर रहे अमेरिकियों को लगता है हिन्दी-चीनी जाएँगे उनके संसाधन खा जाएँगे!

उदारवाद और टेक्नोलॉजी के चलते दुनिया जो छोटी और पास हुई है अब वह दूर-दूर और अलग-थलग होने से तो रही। ऐसे में सांस्कृतिक शुद्धता की बात करने के बजाए सांस्कृतिक आदान-प्रदान को बढ़ावा देना बेहतर विकल्प होगा। वैसे भी यह नस्लीय दंभ, कि हमारी संस्कृति या हमारा धर्म ही श्रेष्ठ है, झूठा है और गलत है। स्वयं की श्रेष्ठता का दंभ और स्वयं की ओर ही सारे संसाधनों का रुख खींचने का स्वार्थ मानवता विरोधी कार्यों को अंजाम देता है, असहिष्णुता को बढ़ाता है। एक-दूसरे के प्रति सहिष्णु होना, एक-दूसरे की भिन्नाता को समझना, एक-दूसरे की सांस्कृतिक विशिष्टताओं का आदर करना ही विश्व शांति का जरिया हो सकता है। अमेरिका की ही मैग्जीन न्यूजवीक ने एक स्टोरी की है, बच्चों को विश्व नागरिक के रूप में बड़ा करने के बारे में। इस स्टोरी के अनुसार कुछ अमेरिकी अपने बच्चों को दूसरे देशों की भाषाएँ सिखा रहे हैं, उन्हें कुछ समय के लिए अन्य देशों में रहने भेज रहे हैं, ताकि वे एक अंतरराष्ट्रीय वातावरण में रहने लायक बन सकें। इनमें से एक पालक का कहना है कि उन्होंने अपने बच्चों को अंतरराष्ट्रीय स्कूलों में इसलिए भेजा है कि वे वैश्विक दृष्टि से संपन्ना बनें, दूसरों का दृष्टिकोण समझने का धीरज अपनाएँ, अपने आरामगृह से निकलकर नई जगहों से समायोजन सीखें, दूसरों की भाषा और संस्कृति भी समझें। इनका मानना है इससे उनके बच्चे उदार, सहिष्णु और करुणासंपन्ना बनेंगे।

हालाँकि इस एक स्टोरी से यह निर्णय निकालना गलत होगा कि बहुत सारे अमेरिकी ऐसे उदार प्रयोग करने लगे हैं, यह भी हो सकता है कि प्रकारांतर से यह प्रयोग उसी भय का रूप हो कि विदेशी जाएँगे और उनके ढीले-ढाले और देश केंद्रित बच्चों से आगे निकल जाएँगे! जो भी हो सांस्कृतिक आदान-प्रदान और सहिष्णुता का यह दृष्टिकोण बहुत अच्छा है। भारतीयों को तो ऐसे प्रयोग के लिए विदेश जाने की भी जरूरत नहीं है। हम अपने आप में ही कई भाषाओं और कई संस्कृतियों को समाए हुए हैं। अत: जातिगत, प्रांतगत, भाषागत और धार्मिक कट्टरता के बजाए, हम एक-दूसरे की भाषाएँ सीखें, एक-दूसरे की विविधताओं का आदर करें, एक-दूसरे के जाति-समुदाय में विवाहों को कट्टरपंथी दृष्टि से देखें, नेताओं को जाति के आधार पर वोट दें तो हम अपने 'वसुधैव कुटुम्बकम" के नारे को केवल शाब्दिक रखकर, वास्तविकता में बदलते देख सकते हैं और विभिन्नाताओं के बावजूद एकता और सुख-शांति से रह सकते हैं।

- निर्मला भुराड़िया