मीडिया औरत, मीडिया और सै....क्स....! क्या कहें? औरत ने जनम दिया मर्दों को, मर्दों ने उसे बाजार दिया... बाजार ने उन्हें फिर औरत दे दी। भई दुनिया गोल है। वैसे भी बाजार में औरत का अर्थ गोल... कहिए सिर्फ गोलाइयाँ और गोलाइयाँ हैं! वह सिर्फ भूगोल है इस परिदृश्य से उसकी आत्मा 'गोल' है, कहें नदारद है। और औरत के इस भूगोल का जबरदस्त महत्व ही इसीलिए है कि मीडिया बाजार है कोरा बाजार। मीडिया विज्ञापनों से ही चलता है, दर्शकों और पाठक से नहीं! तभी तो आज जो भाईलोग (!) एक रुपए में अखबार बेचने के तत्पर हैं वे कल मुफ्त में भी बाँट सकते हैं। मीडिया का काम तो विज्ञापनों से ही चलेगा। और औरत और सैक्स के बगैर विज्ञापन बगैर नमक की खिचड़ी है, यानी प्रकारांतर से मीडिया भी। तभी तो विज्ञापन शेविंग क्रीम का हो तो भी स्त्री जांघिया पहनकर पुरुष के साथ पधारेगी। उसे शेविंग करने में सहायता करेगी और कल को 'शबाना आंटी' के बचाए दो बकेट पानी से नहाने की बारी आई तो भी कोई अभी-अभी सत्रह की हुई 'मिसी' उस पानी को टब में उड़ेलकर सबके सामने मल-मल कर नहाएगी, मीडिया की दुकान चलाएगी। खैर यह तो बात हुई श्लील-अश्लील की। और सिर्फ सैक्स ही अश्लील नहीं और भी बहुत कुछ हो रहा है मीडिया में िजसे 'वल्गर' कहा जा सकता है। इस पर हम बाद में आएँगे, क्योंकि विषय है औरत, मीडिया और सैक्स। पहले इसी पर बात की जाए।
लाइफ साइंस की िवद्यार्थी रही हूँ, इसीलिए सैक्स शब्द का वही अर्थ ग्रहण नहीं करती जो औरत-मर्द से संबंधित या उत्तेजना से संबंधित है। विज्ञान के विद्यार्थियों को कई बार इसे निर्विकार तरीके से 'एनिमल फिजियोलॉजी' के एक िहस्से की तरह पढ़ना होता है। मगर मनुष्य एक ऐसा एनिमल (प्राणी) है जो प्रकृति की साधारण बातों में भी मनचाही दुष्टताएँ ढूंढ़ लेता है। मनुष्य की इसी दुष्टता पर उंगली रखने की नीयत से एक और विषय का जिक्र कर रही हूँ, जो दुर्भाग्य से आपके सुझाए विषय औरत, मीडिया और सैक्स के दायरे में ही आता है। यह विषय है 'सैक्स डिटरमिनेशन' जी हाँ, लिंग पता करके बेटियों को कोख में मार देने की 'वैज्ञानिक प्रथा' हमरे 'सांस्कृतिक देश' हिन्दुस्तान में इन दिनों जोरों पर है। हालांकि इसे रोकने के िलए कानून बने हैं, मगर िचकित्सकों और पालकों की साँठ-गाँठ से सब संभव है।
जेंडर बताना कानूनन मना है तो परम आध्यात्मिक देवी पूजक माता-पिताओं को अपने पेट की देवी को नष्ट करने के लिए धार्मिक शब्दावली में 'जय श्रीकृष्ण' या 'जय माता दी' टाइप के क्लू मिल जाते हैं। ताकि अजन्मा संतान माता दी हो तो घर का पूजा-पाठ निपटाने के बाद पेट में ही 'उनकी' हत्या का इंतजाम कर सकें। अब किस पत्रकार का पेट इतना दु:ख रहा है समाज सेवा के लिए कि 'जेंडर सिलेक्शन' जैसे मखमली नामों वाले विज्ञापनों को ठुकरा कर, अखबार मालिकों की अवज्ञा करके, इस साँठ-गाँठ के सबूत जुटाए और इस दुष्ट स्टोरी को सामने लाए? पत्रकारिता का कोई भी 'बड़ा भाई' उसे समझा देगा 'भैया पत्रकारिता कोई मिशन नहीं है, इस रास्ते पर आगे बढ़ना है तो विधानसभा जाओ, मुख्यमंत्री का इंटरव्यू अपनी टेप में भर लाओ। नहीं तो उनके साथ हेलीकॉप्टर में बैठकर थोड़ी सैर कर आओ, इंटरव्यू वगैरा तो उनका सचिव ही दे देगा।' तो हंस संपादकजी, आपके दिए विषय के दायरे में इस तरह से 'सैक्स' डिटरमिनेशन भी आ गया, क्योंकि तकनीकी तौर पर इस विषय में 'सैक्स' शब्द का इस्तेमाल है।
वह क्या है कि पहले पत्रकारिता को दो 'बीट्स' में ही बाँटा जाता था, हार्ड इशूज और सॉफ्ट इशूज। अब इसकी एक और केटेगरी हो गई हैः पॉजिटिव इशूज और िनगेटिव इशूज। पॉजिटिव इशूज यानी वह कंटेट जो आपके प्रजेंटेशन को आकर्षक बनाएँ, रंग-बिरंगा बनाएँ, और निगेटिव इशू यानी जिसमें दुख, उदासी, गरीबी और बुढ़ापा हो। जाहिर है जवान स्त्री की देह, रैंप रिपोर्टिंग, फिल्मी चटखारे, मदमस्त जवानी, अधनंगे आदमी और औरत, सैक्स मुद्राएँ, रिच एंड फेमस, बोल्ड एवं ब्यूटीफुल आदि पॉजिटिव इशूज हैं। जबकि दहेज, जेंडर सिलेक्शन, मध्यमवर्ग की समस्याएँ, मध्यवर्गीय चौखटे ये सब निगेटिव इशूज हैं। अत: इस परिदृश्य में औरत और सैक्स, रेवेन्यू जनरेट करने (आज कमाई) के लिए कितने काम की चीज है!
वैसे मीडिया के ताजा परिदृश्य में हाई न्यूज, सॉफ्ट न्यूज, पॉजिटिव, निगेटिव के अलावा एक और महत्वपूर्ण चीज है, वह है 'सनसनी'। रिपोर्ट सेनसेशनल हो तो पॉजिटिवि निगेटिव का भेद नहीं िकया जाता, पर उसमें दहेज, भ्रष्टाचार, पोल खोल के साथ ही आपको मर्डर, बलात्कार भी जोड़ना पड़ेगा। और ऑफ कोर्स कास्टिंग काऊच भी! और 'काऊच' हो और औरत और सैक्स न हो, यह कैसे हो सकता है? सो आपके िदया विषय इस पॉईंट पर भी सार्थक हुआ।
यदि आप अखबारों में स्त्री छवि की बात कर रहे हैं, खासतौर से कम कपड़ों में स्त्री छवि की तो अब इस विषय को उठाने या इसके पक्ष या विपक्ष में कुछ भी कहने के बजाय इस िवषय को उसके हाल पर ही छोड़ देना चाहिए। न यह भला है, न बुरा है, क्योंकि मीडिया में कम कपड़ों में स्त्री को देखना लोगों की आदत में इस कदर शुमार हो गया है कि शायद अधिकांश लोगों का इस पर ध्यान ही नहीं जाता। वैसे भी मीडिया में औरत देह को समय-असमय उघाड़ने के अलावा भी इतना कुछ अश्लील हो रहा है कि पहले उसे गिनना होगा। भरी दोपहरी में दीप प्रज्ज्वलन कर उद्घाटन करके तर्कहीन लोग, एक पौधे को रोपते बारह-बारह हाथ और कैमरे की तरफ देखती उनकी विज्ञप्ति-भिक्षुक आँखें, एक दिन में चार जगह फीता काटते रेडीमेड अध्यक्ष, पार्टी के पैसे से अपने और अपने आकाओं की खींसे निपोरते हुए तस्वीरें छपवाने वाले छुटभैये नेता। खुद का इंटरव्यू खुद लिखकर भेजने वाले और उसे छापने की अनुनय करने वाले लेखक.... कितना कुछ है जो बेहत अश्लील है। औरत की देह ही अश्लील नहीं है।
दरअसल नॉन-इशूज ही इशूज हैं इन दिनों। नेता लोग नॉन इशूज में देश का ध्यान बरगलाए हुए हैं और मीडिया उनके छींकने, खाँसने से लेकर गाड़ी में रवाना होने से पहले एसी चालू करने तक का 'लाइव' परोसकर परोक्ष रूप से उनकी मदद कर रहा है। हाँ कभी-कभी गुड़िया और उसके दो पति होने का धर्म संकट भी उठा देता है मीडिया मगर शर्त यह कि स्टोरी एक्जक्लूजिव हो। नहीं तो द सेकंड सैक्स यहाँ भी उपेक्षित है। (माइंड कीजिए टेक्नीकली सैक्स शब्द यहाँ आ रहा है) क्योंकि यदि स्त्री वाले पक्ष में सनसनी कम हो तो बलात्कारी की फाँसी की लाईव रिपोर्ट मीडिया के लिए ज्यादा काम की होगी। रेपिस्टजी बाकायदा मीडिया के लिए ज्यादा काम की होगी। रेपिस्टजी बाकायदा मीडिया के नायक होंगे जिनकी मरने के पहले अंतिम इच्छा पूछी जाएगी।
औरत, मीडिया और सैक्स के दायरे में यदि मीडिया में काम करने वाली औरतों की परेशानियों, खासकर छेड़छाड़, यौन-प्रताड़ना झेलने संबंधी परेशानियों से मतलब है तो यह कहना पड़ेगा कि मीडिया को 'सेपरेट आऊट' नहीं किया जा सकता। यह किसी भी फील्ड में हो सकता है। इससे बचने के लिए औरत को कोई लौह कवच या चेस्टिटी बेल्ट नहीं चाहिए। उसे चाहिए एम्पॉवरमेंट। मीडिया या कोई भी जगह जहाँ पर औरत अपनी जगह बना लेती है, जहाँ उसकी अपनी ताकत होती है, अपना पॉवर होता है वहाँ मर्दुए दुस्साहस नहीं करते। तभी तो टिड्डी दल की तरह छा गई हैं औरतें हर क्षेत्र में। हाँ, जब तक वे सत्ता प्राप्त नहीं करतीं तब तक उनका सफर कठिन होता है। मीडिया क्या, किसी भी क्षेत्र में।
- निर्मला भुराड़िया