लेखिका शोभा डे की एक किताब आई है- शोभा एट सिक्स्टी। यानी साठ की शोभा। यह कोई संन्यास कथा नहीं है, न ही कोरा अतीत राग, बल्कि लेखिका का कहना है कि यह किताब उन्होंने इसलिए लिखी है कि वे महसूस करती हैं उम्र का यह मोड़ दुनियादारी को सलाम कर निवृत्त हो जाने का नहीं, बल्कि नई ऊर्जा से और अधिक उत्पादक समय गुजारने का है। शोभा कहती है, "पुरुष के लिए साठ का होना वैसी सामाजिक बाधा नहीं होता जैसा औरत के लिए होता आया है। जब स्त्री की बात आती है तो हमारा समाज कुछ ज्यादा ही "एजिस्ट" साबित होता है। उम्र के अनुकूल आचरण के नाम पर समाज स्त्री को एक रूढ़िबद्ध छवि में जीने को मजबूर करता है। शोभा की पुस्तक का कवर ही साठ की स्त्री की इस रूढ़िबद्ध छवि को तोड़ता है। कवर पर शोभा का शोख रंगों और रेशमी परिधान में खुलकर मुस्कुराता, दमकता हुआ ताजा पोर्ट्रेट है।
यह सिर्फ शोभा ही नहीं हैं, साठ के पार या पचास के पार कई स्त्रियाँ अब युवा दमक और युवा ऊर्जा से कुछ नया करने को तत्पर जीवन जी रही हैं। प्रख्यात अदाकारा शबाना आजमी ने हाल ही में अपना साठवाँ जन्म दिन धूमधाम से मनाया। अब तक तो अभिनेत्रियाँ तीसवाँ जन्म दिन भी केक पर बगैर सही संख्या में मोमबत्ती लगाए मनाती रही हैं, मगर शबाना ने अपनी उम्र पर फख्र व्यक्त किया। उम्र का यह फख्र उनके परिधानों में किए जाने वाले प्रयोगों से भी व्यक्त होता है। वे कुछ नई चीजें सीखना चाहती हैं, नए प्रोजेक्ट्स भी करना चाहती हैं। कार्पोरेट जगत की प्रख्यात सीईओ इंदिरा नूयी के अब ओबामा सरकार में पद लेने की संभावना है। यही नहीं, उम्र के इस मोड़ पर उन्होंने अपना कम्पलीट मेक ओवर किया है। कल तक परिधान के मामले में सीमित, संकोची और पारंपरिक इंदिरा नूयी अब चुस्त-दुरुस्त, आधुनिक पोशाखों में कार्पोरेट गलियारों में दिखाई पड़ती हैं। गायिका आशा भोंसले ने कभी किसी भी चीज से हार नहीं मानी, उनमें एक उम्र भी है। सोनिया गाँधी हों या हिलेरी क्लिंटन चुस्त चाल और अनथक कार्य साठ पार की इन स्त्रियों की पहचान है।
सवाल यह उठता है कि पचास पार ही मेकओवर क्यों? तो यह जैविक सत्य है कि इस मोड़ पर आकर कोई भी जीवंत व्यक्तित्व अपना पुनर्अन्वेषण करना चाहता है। महिलाएँ घरेलू मोर्चे पर कई जिम्मेदारियाँ संपन्ना कर चुकी होती हैं और इनसे कमोबेश मुक्त होकर स्वयं की पहचान यात्रा शुरू कर सकती हैं। फिर भारतीय सामाजिक जीवन में इतनी बंदिशें हैं कि महिलाओं को अपनी पसंद का कार्य करने और अपने ढंग से रहने का अधिकार अर्जित करने में इतना समय लग जाता है कि वे उम्र के एक-दूसरे मोड़ तक आ जाती हैं। यहाँ भी समाज बढ़ती उम्र का हवाला देकर उन्हें रोके या उन पर उँगली उठाए तो यह तो अन्याय होगा।
"मैं तो सज गई रे सजना के लिए" फिल्म सौदागर का यह गाना है। समाज स्त्री के लिए यही भोग्या दृष्टि रखता है। सारा श्रृंगार पुरुष को रिझाने के लिए है, यही मान्यता है- चाहे ऊपर से न हो- भीतर ही भीतर तो यही बात है। अपने परिधान या अपने रहन-सहन से एक व्यक्ति अपने आपको अभिव्यक्त करता है, यह बात स्त्रियों के संदर्भ में हम भूल जाते हैं। इसीलिए हमने "बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम" जैसी कहावतों का आविष्कार किया है। बूढ़ा घोड़ा लाल लगाम जैसी कोई कहावत नहीं है। इसीलिए हमने सुहागन और विधवा जैसे शब्द इजाद किए हैं और पति के स्वर्गवासी होने के बाद स्त्री का स्वयं की इच्छा के लिए बिंदी लगाना भी समाज की आँख में खटता है, लेकिन आधुनिक स्त्री बदल रही है। उसका जीवन सोलह से तीस तक ही नहीं है, जो कि सिर्फ एक भोग्या के लिए उपयुक्त काल है। आज स्त्री का जीवन चालीस, पचास, साठ के पार भी है, जिसे वह अपनी मर्जी और अपनी अभिरुचि के अनुसार जीना चाहती है। तब जरूरी नहीं उसके पसंद का गाना "मैं तो सज गई सजना के लिए" हो। उसकी पसंद का गाना यह भी हो सकता है- "काँटों से खींच के ये आँचल, तोड़ के बंधन बाँधी पायल, आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है।"
- निर्मला भुराड़िया
बहुत अच्छा लिखा है आपने , पचास के बाद ही तो अचानक स्त्री की दुनिया बदल जाती है , ज़िम्मेदारियाँ जो उसके व्यक्तित्व की पहचान रही होती हैं , अचानक संपन्न हो चुकी होती हैं , अहसास होता है कि वो अपने लिये कितना जी पाई ...अनुभवों से तो उसका खजाना भरा होता है मगर उद्देश्य के नाम पर वो खाली होती है ...बस यही समय होता है सही दिशा पकड़ने का ...खुद को बचा पाने का यत्न करने का ।
जवाब देंहटाएंशारदा अरोरा जी की बात से शब्दशः सहमत......
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