बरसों पुरानी बात है एक स्कूली छात्रा के रूप में मैंने कलागुरु श्री िवष्णु चिंचालकरजी का ऑटोग्राफ िलया था। बाल उत्सुकता से यह सवाल भी पूछ लिया था कि अच्छी चित्रकारी कैसे सीखी जा सकती है। मैंने उनकी ओर अपनी एकदम नन्हे आकार की ऑटोग्राफ डायरी बढ़ाई तो उन्होंने अपने ट्यूब-कलर्स पिचकाकर उसके एक पन्ने पर बगैर ब्रश सीधे ट्यूब से ही दो-तीन प्रकार के रंग लगा दिए। फिर डायरी बंद करने की मुद्रा में उस पन्ने के रंगों को अगले पन्नों पर िचपका िदया। ऐसा करके उन्होंने डायरी खोली तो डायरी के दो पन्नों पर मिलकर एक सिमेट्रिकल डिजाइन तैयार हो गया था। उस डिजाइन के नीचे उन्होंने मेरे सवाल का जवाब या कहें अपना प्रेरक संदेश लिख िदया, 'अपने माध्यम के साथ खेलते रहने पर माध्यम ही सबकुछ बता देगा।' है न! अद्भुत बात। और आगे िजंदगी ने इस प्रेरक संदेश की बार-बार पुष्टि ही की िक मन लगाकर करते रहना सीखने का सबसे अच्छा उपाय है। और शब्द 'खेलते रहो' इसमें भी गहन संदेश है। इसमें भार रहित हो आनंद और मजे से अनुभव अर्जित करने का संदेश है। दबाव से नहीं।
अभी कुछ िदनों पहले की ही बात है। कुछ स्कूली बच्चे ग्रुप बनाकर परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। वे विभिन्न विषयों के सवाल-जवाब याद कर रहे थे, जो उनके िशक्षकों ने तैयार करवाए थे। कुछ बच्चों ने उत्तर वैसे के वैसे याद कर लिए थे, कुछ ने उत्तर समझने के प्रयास भी किए थे, मगर उनसे संबंधित चैप्टर ढंग से नहीं पढ़े थे। ये बायोलॉजी के छात्र थे। जब उनसे िकसी ने कहा िक 'प्राणी जगत प्रकृति का अजब करिश्मा है। ढंग से पढ़ोगे तो बहुत मजा आएगा। प्रकृति की लीलाएँ देखकर अरे वाह! कहने को जी होगा।' तो बच्चे हँसने लगे। उन्हें बात समझ नहीं आई क्योंकि वे समझने के िलए िवषय पढ़ते ही नहीं। प्रतिस्पर्धा के दबाव में पढ़ते हैं। मगर यह दबाव ही उनके परीक्षा परिणाम का दुश्मन बन जाता है और पढ़ने के आनंद का भी। और पढ़ने का मजा सिर्फ प्राणी विज्ञान में ही नहीं है। भाषा, गणित, समाजशास्त्र आदि में भी है। हिन्दी और अँगरेजी पढ़ते हुए जब एक-एक शब्द का नया अर्थ खुलता है तो मजे से पढ़ने वाले के िलए यह एक आह्लादकारी क्षण होता है। गणित के स्टेप्स करते हुए लोग नशे में डूब जाते हैं, अपने आपको भूल जाते हैं। इसीलिए यह व्यवस्था है िक प्राथमिक पढ़ाई करते वक्त सभी िवषय पढ़ाए जाने के बाद उच्च कक्षाओं में पसंद के िवषय चुनने का कहा जाता है, लेकिन होता यह है कि जो चुने जाते हैं वे विषय व्यक्ति की पसंदगी और विशेषज्ञता से अधिक संबंध नहीं रखते। माता-पिता के अधूरे सपनों और रोजगार के दबावों से अधिक संबंध रखते हैं। नतीजा होता है बेमन से पढ़ना और बेदिली से रोजगार चुनना। कभी-कभी यह मजबूरी भी होती है। पर अक्सर सामाजिक दबाव ही होते हैं।
जीवन के कार्यक्षेत्र में भी फिर यह मानसिकता जारी रहती है। कार्यालयों में ऐसे लोग बहुतायत में पाए जाते हैं, जो काम तभी करते हैं जब कोई देख रहा हो (खासकर बॉस)। जब आप सिर्फ किसी को िदखाने के िलए कार्य करते हैं या काम करके किसी अन्य पर एहसान करते हैं, तो कार्य से तथाकथित प्रगति के लाभ अवश्य पा सकते हैं, लेकिन असली प्रगति और असली आनंद तो तभी है, जब आप अपनी गुणवत्ता के िलए कार्य करें, किसी को िदखाने के िलए नहीं और आपको अपने काम में मजा आए। यह अपने माध्यम से खेलते रहने के समान ही रुचिकर होगा और खेल ही खेल में जीवन सबकुछ सिखा भी देगा। किया हुआ कभी व्यर्थ नहीं जाता। कोई देखे न देखे, आपके अनुभव आपकी दक्षता से ही जुड़ेंगे और दक्षता सममुच की प्रगति से। ऐसा करते हुए मंजिल पर तो आप पहुँचेगे ही और सफर का आनंद उठाते हुए पहुँचेगे।
- निर्मला भुराड़िया
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