कोई भी कहेगा इसमें जनता का क्या दोष? तो ठीक है इस पर हमारा बस नहीं िक सही लोगों को ही वोट दें। अक्सर विकल्प नहीं होता और हमें नागनाथ और साँपनाथ में से एक को चुनना होता है। मगर वोट देने की बेचारगी छोड़ दें तो हम आगे होकर नेताओं का जरूरत से ज्यादा महिमा मंडन करते हैं। उनके कानून तोड़ने पर ऐतराज की बात तो दूर, हमें जब पिछले दरवाजे का कोई काम करना होता है, तो हम नेताओं को ही ढ़ूँढ़ते हैं। उनसे उनके विशेषाधिकारों का इस्तेमाल अपने हक में करवाने में पीछे नहीं हटते। बड़ी बातें छोड़ें तो भी कई छोटे-छोटे उदाहरण हमारे आसपास घटित होते हैं। जैसे होली के दिन कुछ लड़के एक पार्क में पेड़ पर कुछ शाखाओं पर कुल्हाड़ी चला रहे थे। उन्हें जब टोका िक लकड़ी काटना ठीक नहीं है, तो उन लड़कों ने स्थानीय पार्षद के घर की तरफ उँगली उठाकर बड़ी ढिटाई से उत्तर दिया 'उन अंकल' से पूछ लिया है। गोया 'जनसेवक' से पूछने के बाद कानून तोड़ना गैरकानूनी नहीं रह जाता!
इसी तरह एक कवयित्री कुछ दिनों पूर्व आईं। उन्हें अपने संग्रह का विमोचन करवाने के लिए कोई 'नेता ही' चाहिए था। भले फिर वह किसी भी पार्टी का हो, किसी भी विचारधारा का हो, साहित्य समझता हो, न समझता हो। बस दबदबे वाला हो। इन िदनों किताबों का विमोचन हो, पुस्तक प्रदर्शनी, पेंटिंग एक्जीबीशन या ब्यूटी पार्लर का उद्घाटन, लोग नेताओं को ही बुलाना पसंद करते हैं। अब नेताओं के िजम्मे परियोजनाओं के िशलान्यास करना और रोता पत्थर छोड़ देना ही नहीं रह गया है। जहाँ जनता उन्हें महिमा मंडित नहीं करती वहाँ वे स्वयं को महिमा मंडित कर लेते हैं- पार्टी फंड से! जो निर्माण कार्य उनके कर्तव्यों में आते हैं और जो उन्हें करना ही चाहिए उनके श्रेय के भी खूब गाजे-बाजे होते हैं, हाथ जोड़े मुख-मुद्राओं के पोस्टर लगते हैं। नेताओं द्वारा कानून तोड़ना एक सामाजिक परंपरा बन चुकी हैं।
- निर्मला भुराड़िया
- निर्मला भुराड़िया
बिल्कुल सही..... यही हालात हैं...... अफ़सोस
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