इस संसार ने िचकित्सक को सफेद कोट वाले ईश्वर की संज्ञा दी है। चिकित्सा या डॉक्टरी दुनिया का पवित्रतम व्यवसाय है। और क्यों न हो! यह एक ऐसा व्यवसाय है, जिसका इंसानियत से बहुत गहरा ताल्लुक है। यूँ तो सभी इंसानी व्यवसायों और रिश्तों का मूल आधार मानवीयता ही होता है, मनुष्यता और पारस्परिकता के आधार पर ही समाज-रचना हुई है। हममें से जिसको जो आता है, उसे वह समाज को प्रदान करता है- इस तरह समाज की आवश्यकताओं की पूर्ति करता है, बदले में पेट पालन करता है। फिर भी मनुष्य और मानवीयता का िजतना सीधा संबंध चिकित्सा में है, उतना और िकसी बात में नहीं। इंसान छोटो हो या बड़ा, गरीब हो या अमीर, इस देश का हो या उस देश का, स्त्री हो या पुरुष... कुछ भी हो, चिकित्सक की आवश्यकता सभी को पड़ती है। चिकित्सक मनुष्य मात्र के शारीरिक दु:ख-दर्द का िनवारक है, अत: पूजनीय है। मगर कभी-कभी चिकित्सक अपने दर्द निवारक होने की इस अपरिहार्यता को गलत ढंग से भी ले लेता है।
हाल ही की बात है, चौराहे पर बैठकर छिटपुट सामग्री बेचने वाले एक निहायत गरीब बुजुर्ग को एक वाहन टक्कर मार गया। चौराहे के ही कुछ अन्य निम्नवर्गीय व्यक्ति वृद्ध को पास ही के एक चिकित्सक महोदय के पास ले गए। चिकित्सक महोदय ने टाँके लगा िदए और ढाई सौ रुपए माँगे। जब उन्हें पता चला िक इन गरीबों की जेबों में सबके पैसे मिलाकर भी ढाई सौ रुपए नहीं हो रहे हैं, तो वे टाँके खोल देने की धमकी पर उतर आए! ऑपरेशन टेबल पर मरीज छोड़कर पैसे माँगने की घटनाएँ भी होती हैं। इस बातर पर एक चिकित्सक महोदय ने एक बार दलील दी थी िक जब पूरी दुनिया नोट छापने में लगी है तो हमसे ही मानवीयता की अपेक्षा क्यों? हम कोई खैरात बाँटने के लिए डॉक्टर थोड़े ही बने हैं! ये चिकित्सक महोदय अपने सफेद गिरेबाँ में झाँकते तो उन्हें उत्तर स्वमेव मिल जाता। चूँकि वे दुनिया के पवित्रतम व्यवसाय में हैं, चूँकि वे चिकित्सक हैं, इसीलिए मनुष्यता की सर्वाधिक उम्मीद उन्हीं से की जाती है। वर्ना वे एक ऐसे रोबोट से अधिक कुछ नहीं, िजसके भेजे में चिकित्सा संबंधी ज्ञान भर िदया गया है। अत: ज्ञान के साथ मानवीयता का संगम ही एक चिकित्सक को निपुण चिकित्सक बनाता है। बात फीस माफी की नहीं है। चिकित्सक का सहयोगी, धीरजयुक्त, स्नेहदिल व्यवहार भी अपने आप में दवा होता है। ऐसा चिकित्सक मरीज का िदल एवं विश्वास जीतता है और उसकी बीमारी को हराता है।
यह भी सच है िक चिकित्सक भी एक मनुष्य है। उसकी भी अपनी आवश्यकताएँ हैं। उसे भी अपने परिवार को चलाना है और इसी व्यवसाय के जरिए चलाना है, जिस व्यवसाय के लिए लालच और अमानवीयता महादुर्गुण हैं। तो यह वह कैसे करे? इस बात का भी सुंदर-सा जवाब पिछले दिनों एक चिकित्सक महोदय को देखकर िमल गया। ये आदर्श चिकित्सक महोदय आज के जमाने में भी मरीजों से सिर्फ बीस रुपए फीस लेते हैं। मरीजों पर झल्लाते नहीं, शांति से उनकी बात सुनते हैं। मरीज की आधी िचकित्सा तो डॉक्टर साहब ने अपने क्लीनिक की कोई फाइव स्टार साज-सज्जा नहीं की हुई है, सिर्फ यह कि क्लीनिक साफ-सुथरा है, जरूरी उपकरणों से युक्त है। हाँ, एक फ्रेम जरूर डॉक्टर साहब की पीठ की ओर की दीवार पर सजी है, जिस पर लिखा संदेश यहाँ ज्यों का त्यों उद्धृत िकया जा रहा है। यह संदेश इस बात का जवाब है कि चिकित्सक अपने परिवार का पेट पालते हुए भी महामानव कैसे बना रह सकता है और कैसे गरीब तबके की सेवा कर सकता है। प्रस्तुत है उक्त संदेश-
'हे प्रभु! वास्तव में यह परिस्थितियों की विडंबना है कि मेरी जीविका दूसरों की बीमारियों पर िनर्भर करती है।
लेकिन फिर भी यह मेरा सौभाग्य है कि आपने मुझे उनके कष्टों का निवारण करने का उत्तम अवसर प्रदान किया है। आपने मुझे यह जिम्मेदारी पूरी करने की योग्यता भी प्रदान की है।
हे प्रभु! मुझे ऐसी शक्ति प्रदान करें कि मैं इस उद्देश्य को पूरी निष्ठा के साथ पूर्ण कर सकूँ।
वास्तव में तो आप ही कष्टों का निवारण करते हैं तथा सब सुखों के स्रोत हैं, मैं तो केवल एक माध्यम मात्र हूँ।
हे प्रभु! मेरे मरीजों पर दया-दृष्टि बनाए रखें।'
- निर्मला भुराड़िया
Nirmala jee... ye mahan aatma koon hai... enka pata milege....
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