नाम है उसका 'सुरसती' पर देवी सरस्वती से उसका कोई नाता नहीं है, वैसे ही जैसे उसकी बहन 'लछमी' का धन की देवी लक्ष्मी से दूर-दूर तक का कोई नाता नहीं। न लछमी स्कूल जाती है न सुरसती। हाँ छोटे भाई 'परकास' को दोनों बारी-बारी से संभालती हैं और घर में चौका-चूल्हा भी करती हैं जब माँ बरतन माँजने जाती है। और चूँकि सुरसती कुछ और बड़ी हो गई है इसलिए माँ के साथ काम पर भी जाती है। साल-दो साल और बड़ी होने पर वो भी काम पकड़ लेगी...।
फीसवाले स्कूल जाने का तो सवाल नहीं। वो तो 'परकास' के लिए है, उसके लिए पेट काट के फीस जमा हो रही है। सरकारी मे भी भेजा तो लछमी तो अँगूठा छाप ही लौट आई थी इसलिए सुरसती को काम का टेम बिगाड़ने नहीं भेजेगी माँ! झाडू-पौंछा, बरतन-बासन, रोटी-पानी कितना तो काम निपटा देती है दस बरस की सुरसती! लेकिन सुरसती के नाम ने एक िदन थोड़ा तो कमाल िदखाया। बरतन वाले घर की एक गृहिणी की दया-दृष्टि सुरसती पर पड़ गई। वह गृहिणी उसे दोपहर में अक्षर ज्ञान कराने लगी और गिनती सिखाने लगी। गृहिणी को पता है, अपने खुद के घरवालों से, सुरसती के घरवालों से और सुरसती की िस्थतियों से लड़कर वह 'सुरसती' को स्कूल नहीं भिजवा सकती। गृहिणी अपने पास से फीस भरकर सुरसती को स्कूल िभजवा दे यह भी कम से कम उसजैसी मध्यमवर्गीय गृहिणी के लिए तो कल्याण की एक हवाई योजना होगी। मगर इतना तो उसके बूते में है कि सुरसती को इतना िसखा दे िक सुरसती दुकानों के बोर्ड पढ़ ले, बाहर जाए तो स्टेशनों के नाम पढ़ ले, इतनी िगनती-पहाड़ा जान जाए कि िकराने वाले से ठगाए नहीं। सचमुच इस गृहिणी ने बहुत अच्छा काम किया। और भी गृहिणियाँ अपने आसपास की 'सुरसतियों' को ढ़ूँढकर ऐसे काम में लग जाएँ तो इन निर्धन बच्चों की बहुत मदद हो। गृहिणियाँ ठान लें तो ऐसे छोटे-छोटे काम भी क्रांति में बदल सकते हैं और बाकी समाज की सद्इच्छा भी वंचित बच्चों के साथ रहे तो उन्हें भी िशक्षा का उजाला मिल सकता है। क्योंकि सरकारें तो आती-जाती हैं और एक-दूसरे की नीतियाँ पलटने को ही 'डिटॉक्सीफिकेशन' समझती हैं। िशक्षा के व्यावसायीकरण या 'स्वार्थीकरण' को कौन रोकता है? और यदि सामाजिक सद्इच्छा न रही तो सरकारें कर भी क्या लेंगी? एक उदाहरण है मनोज का। वह गाँव में एक धनिक के यहाँ काम करता था। मनोज के िपताजी की इच्छा हुई उसको स्कूल में भर्ती कर दें। धनिक को लगा जम के काम करने वाला 'बैल' स्कूल चला जाएगा तो उसके काम का हर्जा होगा। तो उसने माट्साब को कहा- 'छोणे के अच्छे कान खींचना और झापड़े भी देना, अपने आप भूल जाएगा स्कूल जाना...' यह है हमारा स्वार्थी समाज। इसी तरह िनमाड़ के एक गाँव से दो बच्चे आए थे, उनसे पूछा माट्साब क्या पढ़ाते हैं तो एक बच्चे की कक्षा के माट्साब तो पढ़ाते थे, मगर दूसरे बच्चे के माट्साब कुर्सी पर सोते थे और बच्चे एक-दूसरे पर कागज के रॉकेट चलाते थे। और सरकार द्वारा निर्धारित मध्याह्न भोजन? तो बच्चों ने फट से कहा- दोपहर में सेंव-परमल देकर भगा देते हैं! सेंक्शन किया हुआ राशन कहाँ जाता होगा? माट्साब का दु:खड़ा भी अपनी जगह ठीक ही है कि सरकार मास्टर नाम के जीव को ही दुनियाभर के आलतू-फालतू काम में लगाती है। वे भी सही कहते हैं पर इसका फल िनर्धन बच्चे क्यों भुगतें! पहले क्या सरकारी स्कूलों से पढ़कर गुदड़ी के लाल नहीं निकले हैं?
- निर्मला भुराड़िया
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