दुनिया में तरह-तरह के मनुषय हैं। तरह-तरह की आस्थाएँ। और हर एक मनुष्य का यह जन्मसिद्ध अधिकार है कि वह जिसमें चाहे उसमें आस्था रखे और जिस भी चीज में आस्था रखे, उसे बेधड़क अपनाए। अपनी पूर्ण स्वतंत्रता से अपनी व्यक्तिगत आस्था का पालन कर पाए। जाहिर है दुनिया में कई तरह के धर्म हैं और आस्थाओं के अपने-अपने अलग केन्द्र भी। धर्म की तरह ही विभिन्न मनुष्यों की सामाजिकताएँ भी भिन्न हैं। अपने तरीके की सामाजिकता को िनभाया जा सके संभवत: इसलिए मनुष्यों ने इन्हें अलग-अलग समाजों की इकाई में भी बाँटा होगा, ताकि हर छोटी इकाई को सुचारु रूप से चलाया जाए तो कुल मिलाकर वृहद मनुष्य समाज को व्यवस्थितता प्राप्त हो। परन्तु काल के प्रवाह में ऐसी व्यवस्थाओं का मूल भाव हमेशा खो जाता है। नतीजा, जो बात सुचारुपन के िलए सोची गई थी वह संकीर्णता की जनक बन गई। आज आलम यह है कि धर्म और जातिवाचक संघों की बाढ़ सी आ गई है। फलाँ जाति महासभा का आज ये कार्यक्रम, फलाँ संघ के प्रतिभाशाली (?) बच्चों का स्वागत, फलाँ जाति के लोग अपनी जाति के ही निर्धनों को (कैमरे के सामने) फलाँ सहायता दे रहे हैं- वगैरह। हाल ही में एक नाम पढ़ा 'अ.भा. फलाँ जाति पत्रकार महासंघ'। यानी उनके सम्मेलन में उस जाति विशेष के पत्रकार इकट्ठे होंगे! जो संघ व्यवसाय के आधार पर बनना चाहिए उसे जाति के आधार पर कैसे बाँटा जा सकता है? चुनाव की राजनीति ने इस जातिवाद को और बढ़ाया है। इससे मनुष्य समाज सुचारु इकाइयों में नहीं, टुकड़ों-टुकड़ों में बँटा है। वह भी लड़ाकू, स्वार्थी और संकीर्ण टुकड़ों में। हमारे धर्मों और आस्थाओं के साथ भी कमोबेश यही हुआ है।
जो भी व्यक्ति यह विश्वास करता है िक इस अखिल ब्रह्मांड का संचालन करने वाली कोई सर्वोच्च सत्ता है वह उसे ईश्वर कहे, खुदा कहे या गॉड कहे- लक्ष्य सबका एक ही है बस नाम अलग हैं। मगर मुर्ख मनुष्य इन पवित्र लक्ष्यों के नाम पर भी लड़ता है और नाम देता है उसे 'धर्म' का! और बात जब हमारे भगवान, तुम्हारे भगवान से भी िनचले स्तर पर चली जाती है तो हमारे धर्मगुरु, तुम्हारे धर्मगुरु पर आ जाती है। अच्छा काम किसी भी गुरु ने िकया हो वह सभी का पूज्य और श्रद्धेय है और बुरा काम किसी भी गुरु ने िकया तो वह आलोचना का विषय होगा ही। हमारे धर्मगुरु को ही सजा क्यों? तुम्हारे को तो नहीं होती? वह बात यहाँ नहीं होना चाहिए। जिस व्यक्ति पर गर्व हो उसे तो इंसान अपना बताकर गर्व करता ही है। मगर बात जब बुरे काम की है तो उसे 'हम' में शामिल करने की बात कहाँ आती है? आती भी है तो यह कहकर आना चाहिए कि पहला त्याग 'हम' करेंगे, यदि गलती साबित होती है तो पहला सिर हम कटाएँगे एवं अन्य सम्प्रदायों का मार्ग प्रशस्त करेंगे कि जब न्याय की बात आए तो सब जन बराबर हों। धर्म-सम्प्रदाय की परिभाषा से ऊपर हों। गलत बात में हम उनके साथ 'हम' होकर क्या करेंगे? यह बात सही हो सकती है कि किसी संत पर कोई इल्जाम महज राजनतिक प्रतिशोध हो। मगर संतों को भी तो सीकरी से इतना काम पड़ने लगा है! कोई हिमालय से ढूँढकर तो लाया नहीं जाएगा किसी संत को राजनीतिक प्रतिशोध भांजने के िलए!
दरअसल मनुष्य के धार्मिक होने में और आध्यात्मिक होने में अंतर है एवं धार्मिक होने और धर्मांध होने में तो और भी अंतर है। आध्यात्मिक में सद्वृत्तियाँ और सदाचरण आते हैं। धार्मिकता में किसी खास किस्म के पूजा-पाठ आ सकते हैं। धर्मभीरूता में यह भय आ सकता है कि भई फलाँ तो संत है तो उनकी आलोचना करने से पाप लगेगा! हालाँकि कोई खास रंग का कपड़ा पहनने से कोई संत नहीं हो जाता न ही कपड़ा छोड़ने से कोई साधु होता है जब तक कि राग, द्वेष, अहंकार, पद लालसा, यशाकांक्षा आदि न छोड़े जाएँ। तो धर्मभीरू आदमी 'फैन्सी ड्रेस' वाले साधु तक की आलोचना करने से डरता है! और धर्मांध तो इससे भी आगे होता है। वह बेहद कट्टर होता है, तर्क की बजाय जड़बुद्धि से सोचता है। वह धर्म का संबंध मानव धर्म की बजाए कर्मकांड से अधिक मानता है।
जाहिर है उसके धर्मयुद्ध और िजहाद की सीमा में मानव के मानव के प्रति न्याय की लड़ाई नहीं, किसी भी खास धर्म का 'बिल्ला' आता है। दुनिया भर में राजनीति ने इस धर्मांधता को और बढ़ाया है। अत: इस वक्त दुनिया को उदार विचारों की सर्वाधिक और सबसे सख्त जरूरत है, ताकि हमें और अधिक युद्ध, गृहयुद्ध, राजनीतिक मार-काट, सामाजिक कलह न देखना पड़ें। भारत के एक बहुसंख्यक धर्म में घर-घर में आरती के पश्चात ये पंक्तियाँ कही जाती हैं- 'धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो।'
आशा है धर्म की जय से हमारा आशय मानव धर्म की जय रहा है और रहेगा। वर्ना सद्भावना और कल्याण की बात भी सिर्फ कर्मकांड से अधिक कुछ नहीं है।
- िनर्मला भुराड़िया