बचपन में एक चूहे की कविता पढ़ी थी, िजसमें चूहा राजा को ताना मारता है 'राजा भिखारी मेरी टोपी छीन ली।' मगर नए जमाने के कुछ राजा तो िभखारी बनने पर आमादा है, क्योंकि उन्हें िभखारी बनने का शौक चर्राया है। शौकिया भिखारी बनने के वे प्रतिदिन तीन हजार डॉलर यानी तकरीबन सवा लाख रुपए खर्च करते हैं। 'डीलक्स डेप्रिवेशन' यानी विलासी वंचन की कोई एजेंसी पैसे लेकर उनके लिए फटे-टूटे कपड़ों, भिक्षापात्र की व्यवस्था करती है और हाँ उनके लिए किसी गली-कूचे में जगह भी बुक करती है, जहाँ वे कृत्रिम भिखारी बनकर 'देने वाला सिरी भगवान' जैसा ही कुछ गाते हुए घूम सकें। रूस के कई अरबपति मास्को के गली-कूचों में इन दिनों भिखारीपन का आनंद लेते हुए सहर्ष घूम रहे हैं।
यह तो हुई रूस की बात, दुनिया के कई हिस्सों में, खासकर विकसित देशों में 'डीलक्स डेप्रिवेशन स्पा' खुल गए हैं, जहाँ लोग पैसा चुकाकर अपने आपको कष्ट देते हैं। इसमें बर्फ के होटल में ठहरकर ठिठुरने से लेकर स्लम एरिया में िकसी झोपड़पट्टी में रात गुजारने तक की बातें शामिल हैं। बॉडी एंड सोल स्पा में रईस लोग तथाकथित फिटनेस वेकेशन पर जाते हैं, जहाँ वे पुराने समय की तरह पड़े रहकर मसाज या फेशियल नहीं करवाते अपितु नए ट्रेंड के अनुसार, नंगे पाँव चलते हैं; इतना कि पैर में छाले पड़ जाएँ, पहाड़ चढ़ते हैं, अलूना खाते हैं। अतिविलासी जीवन जीकर, चक माल खाकर और रोज-रोज पार्टियाँ ले-देकर ये लोग अघा चुके हैं। अति सुख-सुविधा में बोरियत पाकर अब वे आत्म-प्रताड़ना की विधाओं में पैसा डाल रहे हैं। विलासी जीवन और अति तृप्ति के तोड़ के रूप में आत्म-प्रताड़ना व आत्म-वंचन चुन रहे हैं। इसीलिए ये स्पेशल बॉडी एंड सोल स्पा अस्तित्व में आए हैं। सिर्फ शरीर के िलए िफटनेस की बात होती तो वे डाइटिंग और व्यायाम पर ही रुक जाते, पर वे तो अनजाने में ही 'स्वेद-कण' में स्वर्ण ढूँढ रहे हैं।
इन रईसों का मानना है कि ये संघर्षमय छुट्टियाँ उन्हें अस्तित्व रक्षा के िलए निरंतर जद्दोजहद करने वाली इंसानी फितरत की याद दिलाती हैं, वो जद्दोजहद जो िक उन्हें यूँ तो करना नहीं पड़ती और अंतत: उनका मखमल ऊब के काँटों से भर जाता है और चुभने लगता है। कुछ डीलक्स डेप्रिवेशन प्रेमी रईसों का यह मानना होता है अपने आपको थोड़ी तकलीफ देने से वे पक्के हो जाते हैं अौर उनका आत्मविश्वास बढ़ता है। कुछ मानते हैं िक यह सब करके वे अपने भीतर की यात्रा करते हैं। कुछ रईस ऐसे भी होते हैं, जिन्हें 'कुछ' चाहिए होता है, मगर वह 'कुछ' क्या है यह उन्हें जीवन में 'सब-कुछ' पाकर भी नहीं मिलता तो वे 'गँवाने' के कृत्रिम क्षण निर्मित करते हैं, ताकि पुन: िवलासिता में लौटने पर उसका भरपूर आनंद ले सकें। कुछ सिर्फ परिवर्तन की खातिर भी यह सब करते हैं।
जो भी हो इससे यह तो स्थापित होता ही है िक जीवन का आनंद अंतत: परिश्रम, संघर्ष और चुनौतियों में है। िजस वक्त दुनिया की सब सुख-सुविधाएँ आपके कदमों में आ जाती हैं, आपको हाथ-पैर हिलाने की भी जरूरत नहीं रह जाती, उस वक्त नींद चली जाती है। अर्थात चुनौतियाँ खत्म और बोरियत शुरू। मगर ये रईस आत्मा की रिक्ती का जो उपचार अभी ढ़ूँढ रहे हैं वह कृत्रिम है, वह आत्मा तक नहीं पहुँच सकता, क्योंकि हमारी सोल सिंथेटिक नहीं है। बजाय इसके यदि ये सचमुच के वंचितों का सामीप प्राप्त करने की कोशिश करें और जनकल्याण की योजनाओं पर अपना समय लगाए तो शायद इन्हें सच्चा सुकून मिले। दुनिया के कई धनी-मानी लोग इस तरह के फाउंडेशन चला रहे हैं। उनकी मिसाल ली जा सकती है।
- निर्मला भुराड़िया
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जस वक्त दुनिया की सब सुख-सुविधाएँ आपके कदमों में आ जाती हैं, आपको हाथ-पैर हिलाने की भी जरूरत नहीं रह जाती, उस वक्त नींद चली जाती है। अर्थात चुनौतियाँ खत्म और बोरियत शुरू। ---- sahi baat hai...
जवाब देंहटाएंhakikat ka aaina dikhti post.... sahi aur sateek baat
जवाब देंहटाएंक्बया आप बचपन में पढ़ी -- राजा भिखारी मेरी टोपी छीन ली.. वाली कहानी को साझा कर सकती हैं।।।
जवाब देंहटाएंअयंगर, 8462021340.