रविवार, 12 सितंबर 2010

भोपाल-गंध

दुर्योग से दो और तीन दिसंबर 1984 की दरमियानी रात को हम लोग भोपाल में थे। बंगलोर जाने के लिए सुबह पाँच बजे जीटी एक्सप्रेस पकड़ना थी। पहले स्टेशन के वेटिंग रूम में ही समय काटने का सोचा, फिर लगा कुछ घंटों ही सही ठीक से नींद हो जाए तो अच्छा, अतः होटल पेगोड़ा आ गए। देर रात समय की बात होगी, महसूस हुआ रोशनदान से कोई तीखी गंध कमरे में आ रही है। लगा एक-दो मिनट में सेटल हो जाएगी। लेकिन नहीं हुई। तब सोचा दूसरी दिशा की खिड़की खोलकर साँस लें, शायद इस तरफ तो कुछ जल रहा है। मगर गंध तो उस दिशा में भी थी। धीरे-धीरे साँस लेना मुश्किल होने लगा तो दरवाजा खोला जो सीधे बालकनी में खुलता था। मगर राहत नहीं मिली, दम घोटने वाली हवा तो पूरी फिजाँ में थी। बुरी तरह दम घुट रहा था, साँस लेना मुश्किल था। हम लोगों ने एक अटकल यह लगाई शायद दंगा हो गया हो और पुलिस ने अश्रुगैस छोड़ी हो। पति को अस्थमा की शिकायत है तो एंटी हिस्टेमेनिक दवाएँ साथ रहती हैं। तो हम लोगों ने बाथरूम में जाकर नल के पानी से ही एक-एक एंटी एलर्जिक निगल ली थी ताकि एलर्जिक रिएक्शन से बच सकें। इसके अलावा पानी से खूब मुँह धोया और गीला रुमाल नाक-मुँह पर लपेटा इस तर्क के साथ कि गैस कोई भी हो पानी में घुलनशील होगी। मगर दम घुटना बढ़ता गया तो हमने सामान होटल में ही छोड़ दिया और कमरे का ताला लगाए बगैर ही होटल से निकल आए। यूँ कह सकते हैं कि जान बचाने के लिए भागे। सड़क पर आए तो पता चला कि हम अकेले ही नहीं हैं, चारों तरफ अफरातफरी मची हुई थी। सभी लोग जान बचाने के लिए भाग रहे थे। कोई पैदल, कोई स्कूटर पर, बस, कार जिसको जो भी मिला। बूढ़े, बच्चे, स्त्री, पुरुष, जवान सभी रात के आधे-अधूरे कपड़ों में। कोई दौड़ते-दौड़ते पटरियों पर ही मर गया था, कोई खाँस रहा था, कोई रो रहा था, चिल्ला रहा था। पता नहीं था कि यह गैस क्या है? कहाँ से आ रही है? तो कई बेचारे तो यूनियन कार्बाइड की दिशा में ही भाग रहे थे, मौत के मुँह में जाने के लिए। हम लोगों के पास भी अपना कोई वाहन तो वहाँ नहीं था अतः हम पैदल ही बस स्टैंड पहुँचे। वहाँ भी सभी बसें ड्रायवर सहित भाग चुकी थीं। सौभाग्य से एक बस बच गई थी जिसका ड्रायवर सिख था। उसकी बस स्टार्ट नहीं हो रही थी। हम पाँच-सात लोग थे, उन्होंने धक्का लगाया और जाने कैसे बस स्टार्ट हो गई, हम सब बैठ गए फिर बस ने सीहोर पहुँचकर ही दम लिया। उस बस में भी एक यात्री ने हमारे देखते ही देखते दम तोड़ दिया था। दूसरे दिन मेरी आँखें सूजकर बंद हो गई थीं, रोड भी हाथ पकड़कर क्रास करवाना पड़ा था। छाती में भी दर्द था, महीनों तक जिसका इलाज करवाना पड़ा। पता चला स्टेशन पर तो ताँगे के घोड़े तक मर गए थे, मनुष्य तो मनुष्य यानी हम वेटिंग रूम में रुके होते तो नहीं बचते। सो जान तो बच गई, मगर दिमाग में एक चीज रह गई वह थी "भोपाल की गंध"। उस घटना का यह असर हुआ कि अक्सर फैक्टरियों के प्रदूषकों, सड़क पर पड़े कचरे के ढेर आदि में से ऐसा एहसास होता है गंध आ रही है, वही दमघोंटू, जानलेवा गंध, मन ने जिसका नाम भोपाल-गंध रख दिया है।

भोपाल के यूनियन कार्बाइड के कचरे के निपटान की बात इंदौर के समीप पीथमपुर में करने की चल रही है। पीथमपुर के आसपास के रहवासी, ग्रामीण, इंदौर के शहरी स्वयंसेवी संगठन आदि इसके खिलाफ उठ खड़े हुए हैं। नागरिकों की यह जागरूकता और जनकल्याण संघों की यह सकारात्मक आक्रामकता और सक्रियता प्रशंसनीय है। यदि हम जागृत हैं तो हम पर कोई बुरी चीज ऐसे ही नहीं लादी जा सकती। मगर पीथमपुर के भस्मक से उठने वाले संभावित जहरीले धुएँ की तरह और भी चीजें हैं जिनका हम सबको सक्रिय विरोध करना चाहिए। वह है हमारे सभी छोटे-बड़े शहरों में फैला गंदगी का ढेर, जो दिन-रात हमारे आसपास "भोपाल-गंध" उगलता रहता है। हमको बीमार करता रहता है। सभी नागरिकों, नागरिक संघों, रहवासी संघों आदि को यह कचरा, गंदगी न फैलाने, नगरपालिकाओं को कचरा उठवाने, सफाई करवाने में इतनी ही सक्रियता और आक्रामकता दिखाना चाहिए जितनी पीथमपुर में यूनियन कार्बाइड का कचरा नष्ट करने वाले मामले में दिखाई जा रही है। रोजमर्रा की जिंदगी में हम लोगों द्वारा स्वयं फैलाई जाने वाली और न उठवाई जाने वाली गंदगी कितने बैक्टेरिया, कितनी बीमारियाँ, कितनी जहरीली गैसें धीरे-धीरे, न मालूम तरीके से उगल रही हैं यह मालूम रखना भी जरूरी है। नागरिक कल्याण संघों, गृहिणियों, कॉलोनियों के रहवासियों की सकारात्मक आक्रामक सक्रियता से यह भी संभव है।

- निर्मला भुराड़िया

1 टिप्पणी:

  1. सारा वृतांत पढते हुए सिहरन सी होने लगी .. खैर जान बची तो लाखों पाए !!

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