दुनिया शेर दिल लोगों को पसंद करती है। घिघियाहट तात्कालिक दया जरूर उत्पन्न कर सकती है, लेकिन लोगों का आपके प्रति विश्वास नहीं पैदा कर सकती, न ही आपका खुद के प्रति विश्वास। शायद इसीलिए शेर की प्रवृत्ति में से इस बात को हाईलाइट किया गया है कि 'शेर िकसी और का किया हुआ शिकार नहीं खाता!' यानी जंगल का राजा शेर सिर्फ सत्ता का ही नहीं साहस, स्वाभिमान और स्वावलंबन का भी प्रतीक है। मन ही मन में हर व्यक्ति चाहता है कि वह 'सिंह' हो।
सुनहरे अयालों वाले सिंह और बाघ को भी अमूमन आम आदमी शेर के नाम से ही पुकारता है। वह शेर बन नहीं पाता तो उसको बहुधा प्रतीक के रूप में चुनता है। आप दुनिया के िकसी भी हिस्से में रहते हों इंसानी मनोविज्ञान लगभग एक-सा ही होता है। शायद यही वजह है कि सांस्कृतिक या धार्मिक उत्सवों, जुलूसों, नाटको में 'शेर बनना' या शेर के मुखौटे प्रयुक्त करना पूरी रचनात्मकता के साथ शामिल है।
अमेरिका के फिलाडल्फिया में हर वर्ष 1 जनवरी को 'ममर्स परेड' निकाली जाती है, जिसमें शेर के बड़े-बड़े मुखौटे धारण िकए लोग सड़कों पर नाचते-गाते निकलते हैं। फिलाडल्फिया में यह प्रथा अप्रवासियों के साथ योरप से आई। भारत में भी नृसिंह जयंती जैसे उत्सव होते हैं जिसमें 'आधा सिंह-आधा मनुष्य' रूप वाले 'नृसिंह' ईश्वर के रूप में उपस्थित होते हैं और हिरणाकश्यप नामक राक्षस-राजा से अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा करते हैं। इंदौर के नृसिंह बाजार के नृसिंह मंदिर के ओटले पर हर वर्ष नृसिंह जयंती को इस कथा का नाट्यरूप बाकायदा मंचित िकया जाता है। जय नृसिंह के उद्घोष के साथ भगवान नृसिंह का जुलूस भी निकाला जाता है। इसी प्रकार मोहर्रम का शेर बनाने की मन्नत भी लेते हैं। लोग अपने बच्चे को मोहर्रम का शेर बनाने की मन्नत भी लेते हैं। उत्तरप्रदेश के बहुरूपिए शरीर पर पीली-काली धारियाँ पेंट करके शेर का रूप धारण करते हैं, फिर कुश्ती भी लड़ते हैं।
दरअसल इन सब बहानों से मनुष्य अपने मनोभावों को अभिव्यक्त करता है। फिर ऐस उत्सव, त्योहारों से उमंग और जोश भी तो बढ़ता है। मिलना-जुलना, सामूहिक रूप से नाचना-गाना भी तो होता है। ऐसे उत्सवों की तैयारी की भी अपनी रचनात्मक सक्रियता होती है। जैसे कि ममर्स परेड के लिए फिलाडल्फिया में लोग महीनों पहले पोशाकें तैयार करना, नृत्य के स्टेप्स सीखना, बैंड के साथ संगीत तैयार करना शुरू कर देते हैं। यही नहीं ऐसी तैयारियों में मानव रिश्तों की ऊष्मा भी होती है। टी.वी., इंटरनेट के जमाने में तो ऐसे सांस्कृतिक उत्सवों का महत्व और बढ़ जाना चाहिए ताकि लोग मशीनों से चिपके रहने के बजाए निकलें, रेडीमेड दृश्य देखने के बजाए दृश्य रचने का आनंद लें और जीवन का 'लाइव' मजा उठाएँ।
- निर्मला भुराड़िया
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