'किसी काम की नहीं थी' का क्या मतलब। पहली बात माँ-बाप को वही बच्चे प्यारे होते हैं, जो उनके िकसी काम के होते हैं। दूसरी बात निर्धारित िलंग का न होना मतलब यह नहीं िक व्यक्ति मुख्यधारा का कोई और कार्य नहीं कर सकता। यदि रेखा या कोई और िकन्नर सबके जैसे पढ़ती-लिखती या कोई सामान्य हुनर सीखती तो वह दुनिया का कोई भी सामान्य कार्य कर सकती थी। उसे नाच-गाकर और द्वार-द्वार जाकर लगभग भिक्षा की तरह शगुन माँगने की जरूरत नहीं थी। न ही अपने गाँव और परिवार से बिछुड़ने की यह कोई वजह थी िक वह लड़का या लड़की नहीं है। अत: वह समाज की मुख्यधारा में आखिर क्यों नहीं रह सकती थी? इस सदी में भी हमारे ये नागरिक कबीला बनाकर रहने को िववश होते हैं, क्योंकि बाहरी दुनिया उन्हें अपमान और वंचना ही देती है। उन्हें हँसी और दुत्कार का पात्र बनाती है। वही उनकी जीवन व्यवस्था है अत: वे भी कमाई के लिए कभी-कभार शगुन माँगते-माँगते रुपए ऐंठने या ध्यानाकर्षण के लिए फूहड़ हरकत करने पर उतर आते हैं। आखिर अपनी ही तरह के इंसानों को अपने ही समाज में बहिष्कृत, िनष्कासित, अलग-थलग कर देने वाली कुप्रथा कब तक चलेगी। क्यों नहीं वे मुख्यधारा में आ सकते? क्यों नहीं वे समाज में इस तरह घुल-मिल सकते हैं िक उनका व्यक्तिगत शरीर दोष उनका निजी सीक्रेट ही रहे। फिर आज तो इस तरह के ऑपरेशन और हरमोन ट्रीटमेंट भी होने लगे हैं, िजनके जरिए अनिश्चित लिंग को किसी एक िनश्चित लिंग तथा स्त्री या पुरुष में बदला जा सकता है। और ये ऑपरेशन सिर्फ विदेशों में ही नहीं होते, भारत में भी होते हैं। यहाँ भी सिर्फ मेट्रोज में नहीं, सामान्य शहरों में भी होते हैं। इस मामले में जानकारी, जागरूकता और जनचेतना का प्रसार होना निहायत जरूरी है।
स्वयं के ही लाभ की बात का विरोध निकन्नरों की बस्ती से आ सकता है। कई बार कुप्रथाओं का शिकार व्यक्ति भी परिवर्तन का िवरोध करता है, क्योंकि चेतना की रोशनी ही उस तक नहीं पहुँची। नतीजतन अँधेरा उसे रास आने लगता है, बल्कि कहें वही अँधेरा गड्ढा उसका कम्फर्ट जोन बन जाता है। व्यक्ति पुरानी व्यवस्था की सुविधा का अभ्यस्त हो जाता है और उस व्यवस्था को भंग करने से डरता है। पुरानी व्यवस्था में उसके 'आका' बन चुके लोग भी उस तक रोशनी की किरण नहीं आने देना चाहते, क्योंकि रोशनी पहुँचने के बाद वह उनका गुलाम नहीं रह जाएगा यह डर उन्हें सताता है। जैसा िक देवदासी प्रथा के सन्दर्भ में भी अक्सर होता आया है। किसी निर्धन, अशिक्षित परिवार द्वारा स्वयं ही अपनी कन्या दान में दे दी जाती है, क्योंकि स्वार्थी पुजारी व देह व्यापारी उन्हें समझाकर रखते हैं िक ऐसा करना मंगलमय है। देवदासी बनने की पात्र लड़की शादी करने से रुक जाती है, क्योंकि उनके िदमाग में यह अंधविश्वास कूट-कूटकर भरा गया होता है कि शादी कर लेने से उसके परिवार का अनिष्ट होगा।
दुनिया की अन्य जगहों पर ट्रांसजेंडर लोगों के ड्रेग शो वगैरह होते हैं, छिटपुट घटनाओं की तरह, पर यूँ भारत की तरह अनिश्चित लिंग वाले व्यक्ति समाज से छिटका कर नहीं रखे जाते। नई, मॉडर्न सदी में ठेठ पुरानी इन अमानवीय परंपराओं से पार पाने के बारे में कुछ सोचा जाना चाहिए। मगर इस बारे में कुछ सोचने, समझने, करने की सामाजिक इच्छाशक्ति कहाँ है? समाज और राजनीति ऐसे मुद्दों में उलझी हुई है िक जिसका इंसान के तात्कालिक जीवन से कोई वास्ता ही वहीं है।
- निर्मला भुराड़िया
आत्मना(आपका नाम नहीं मालुम)आपने भावपूर्ण आलेख लिखा है। आपको इस विषय से संबद्ध जानकारी दूँ कि दुनिया की पहली हिंदी की लैंगिक विकलाँग ब्लॉगर मनीषा नारायण काफ़ी कुछ लिख चुकी हैं। आप उन्हें किसी भी सर्च इंजन से तलाश सकती हैं। उनके ब्लॉग का नाम है अर्धसत्य(http://adhasach.blogspot.com)
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डॉ.रूपेश श्रीवास्तव