इन िदनों जल संकट की काफी बात हो रही है। पानी बचाना पर्यावरणविदों ही नहीं आम जनता के लिए भी एक बड़ा अभियान है। लेकिन एक और पानी है वो है आँख का पानी। हमारी सामाजिकता पर यह एक बड़ा जल संकट मँडरा रहा है कि आँख की शर्म की जगह खुली बेशर्मी ने ले ली है। हम एक 'मैं' केंद्रित संस्कृति की िगरफ्त में आ रहे हैं, जो समाज से कुछ भी साझा नहीं करना चाहती, सिर्फ अपनी जेब भर लेना चाहती है। संस्कृति जो लिहाज को ताक पर रखकर खुद को फिर-फिर रेवड़ी बाँटती है। यूँ छुपी हुई आत्मकेन्द्रितता हर वक्त मनुष्य में कुछ न कुछ रूप में रहती आई है। मगर सामाजिकता के नाते इंसान हमेशा इस आत्मकेन्द्रितता पर काबू पाने की कोशिश करता आया है और कुछ नहीं तो जमाने के लिए ही सही। संस्कारित व्यक्ति स्वयं की गरिमा की रक्षा के लिए भी स्वयं को बड़प्पन की दिशा में साधता रहा है। मगर आज टुच्चई नॉर्म बन गई है और बड़बोलापन बाजार का मूल मंत्र बन गया है। लिहाजा 'सिर्फ मैंने ही यह किया', 'सिर्फ हम में ही यह गुणवत्ता है', 'सबसे पहले हम पहुँचे' जैसी उक्तियाँ चलने वाले स्लोगन बन चुकी हैं। खुद के लिए झूठे श्रेय लेना, खुद की झूठी तारीफ करना, अपने बारे में बढ़-चढ़कर बोलना आज मार्केटिंग कहलाता है। 'मैं ये हूँ', 'मैं वो हूँ' तक भी ठीक था अब तो बात यहाँ तक आ गई है कि जो कुछ हूँ वो मैं ही हूँ। पहले आप वाली विनम्रता भी खो-सी रही है। दु:खद यह है कि यह सबकुछ बड़ी बेशर्मी से हो रहा है। गैंडे की खाल और बेशर्मी गुणों में गिनी जा रही है। सादगी, संवेदनशीलता, विनम्रता और आँख का पानी न रहा। यह सामाजिकता जल संकट है। इससे मानवता सूख रही है और करुणा प्यासी मर रही है।
इस पानी के लिए त्राहि-त्राहि हो उससे पहले ही अच्छा हो हम यह दोहा फिर याद कर लें- 'रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून, पानी गये न ऊबरे, मोती मानस चून।' यानी पानी है तो आब है। हमारी सामाजिकता यह आब खोने का जोखिम नहीं ले सकती।
- निर्मला भुराड़िया
सच कहा आपने.... जल ही जीवन है...
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