वे सज्जन इतनी-सी बात नहीं समझ पाए कि अब वह चीज उनकी नहीं है, अब उन्हें इस पर आसक्ति नहीं रखना है। कहते हैं डिटेचमेंट अथवा अनासक्ति को साधना एक बहुत बड़ी कला है और यह कला सुंदर, निर्द्वंद्व और जटिलता रहित जीवन जीने की कला है। अनासक्ति संसार से भागने का नुस्खा नहीं है, न ही संसार त्याग इसका ध्येय है। जिन चीजों पर हमारा इख्तियार नहीं है, उनका मोह न रखना पीड़ा से बचाता है। खुद को भी और दूसरों को भी। इसी तरह दूसरों से ज्यादा अपेक्षा करना गुलामी है। आत्म उत्थान के लिए दूसरों पर िनर्भर न रहना, अपने गुणों के साथ ही अपनी गलतियों की भी िजम्मेदारी लेना असली आजादी है।
मगर अनासक्त होने का मतलब अप्रासंगिक होना भी नहीं है। मान लीजिए बेचने वाले सज्जन गाड़ी के प्रति 'अब वह दूसरे की चीज है' मानकर अनासक्ति धर चुके होते, इस बीच गाड़ी खरीदने वाला युवक किसी िदन बीमार हो जाता तो अनासक्ति धर लेने वाले सज्जन यह नहीं कह सकते थे िक भई अब मैं गाड़ी को हाथ नहीं लगाऊँगा, युवक जाने युवक का काम जाने। उचित होगा िक ऐसे में वे स्वयं ड्राइव करके युवक को अस्पताल ले जाएँ।
दुनिया में किसी की भी मर्जी से चाँद और सूरज नहीं उगते। न हर चीज पर हम अधिकार जता सकते हैं, न दूसरों का अपनी मर्ची से चला सकते हैं। ऐसे में कई स्थितियों के प्रति स्वयं को अनासक्त करना उचित होता है, परंतु अनासक्त होने का मतलब न तो अप्रासंगिक होना है, न ही गैर जिम्मेदार होना है। अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता बनी रहे, परंतु आप मोहांध न हों, यह संतुलन साधना बाजीगरी है। एक ऐसी बाजीगरी, जो ताउम्र साथ देती है।
- निर्मला भुराड़िया
संतुलन साधना......
जवाब देंहटाएंअच्छी बात बताई आपने. परन्तु अपने व्यवाहर में लाना कठिन है. और ये साधना है जो अधिकार हम लोग (आम जन) कर नहीं पाते.