हममें से सभी कभी न कभी, किसी-किसी दिन खराब मूड में रहते हैं। जिंदगी है तो सुख-दुःख भी आता-जाता है। दुःखी होना किसी बुरी घटना का प्रभाव भी हो सकता है। आप "हैप्पी गो लकी' या खुशनुमा टाइप के हैं तो कभी-कभार आप बुझा हुआ-सा महसूस कर सकते हैं और आप सदा-विलापी या कुड़-कुड़ टाइप के हैं तो भी कोई न कोई बात तो आपको खुशी देती होगी। आप दोनों में से किसी प्रकार के भी हों, पर कभी-कभी उदासी भी आती होगी। मगर यह उदासी इतनी ठहर जाए कि व्यक्ति बिलकुल "निरानंद' या anhedonic हो जाएं। बोलना, गाना, फूल, चिड़िया, बच्चे या किसी चीज में उसकी रुचि न रहे। यहां तक कि पहले जिन चीजों में उसकी रुचि रही हो वे भी उसका मन न बहला पाएं। यहां तक कि सुबह बिस्तर से उठने का भी उसका मन न करे। मगर रात में नींद न आए। उसके नियमित कार्य भी ठप हो जाएं, क्योंकि उसमें ऑफिस जाना या घर की जिम्मेदारियां निबटाना तो दूर नहाने आदि की ही ऊर्जा नहीं बची है। तो यह अवसाद या डिप्रेशन हो सकता है।
डिप्रेशन के अन्य लक्षणों में हैं -
एकाग्रता की कमी, हीनभावना हो जाना, बेवजह ग्लानि महसूस होना, अपने आपको बिना कारण दोषी समझना, रुलाई आते रहना, छोटे-मोटे निर्णय तक लेेने की क्षमता खत्म हो जाना (जैसे कि दो में से कौन सी शर्ट पहनना है), वजन में अचानक कमी या बढ़ौतरी, भूख का खत्म हो जाना, बिना बात चिंतित और व्यग्र रहना, जीवन के प्रति किसी भी आशा का समाप्त हो जाना, बार-बार आत्महत्या के विचार मन में आना, बुरा-बुरा -सा लगना, सब कुछ उलटा सोचना, व्यर्थ महसूस होना, शरीर में जान ही नहीं ऐसा लगना। छोटी-छोटी बातों में गफलत होना या भूल जाना, आशा का समाप्त हो जाना, बार-बार आत्महत्या के विचार मन में आना इत्यादि। इसके साथ ही कई शारीरिक परेशानियां भी हो सकती हैं, क्योंकि डिप्रेशन एक साइकोसोमेटिक या मनोशारीरिक परिस्थिति है। इसलिए डिप्रेशन की अवस्था में बदन दर्द, पीठ दर्द, पेट की गड़बड़ियां हो सकती हैं। बढ़ी हुई धड़कन, तेज घबराहट महसूस हो सकती हैं, परंतु डिप्रेशन को सिर्फ इसलिए खारिज नहीं किया जा सकता कि इसका कोई ब्लड टेस्ट नहीं है या कोई थर्मामीटर नहीं है, जो यह बता दे कि व्यक्ति को डिप्रेशन है।
यहां तक कि घबराहट और धड़कन भी महसूस होगी, हृदय परीक्षण में नहीं आएगी। फिर भी यह रोग वास्तविक है, जिसे लक्षणों के जरिए आराम से चिह्नित किया जा सकता है। चिह्नित किए जाने के बाद इसका इलाज भी किया जा सकता है। या यूं कहे इलाज किया ही जाना चाहिए। इसे अनुपचारित नहीं छोड़ा जाना चाहिए। मगर डिप्रेशन की पहचान और इसके इलाज में सबसे बड़ी अड़चन है शरीर विज्ञान के प्रति अज्ञान, डिप्रेशन को कलंक मानने और छुपाकर रखने की वृत्ति, जबकि अवसाद एक जैविक शारीरिक स्थिति है, जो जैव रसायनों के स्तर के उठते-गिरने से संबंधित है। अतः जैसे बुखार में रोगी का दोष नहीं, वैसे ही अवसाद पर भी उसका जोर नहीं। इसे इच्छाशक्ति की कमी या व्यर्ंिक्त की कमजोरी मानना गलत होगा। हां इस रोग से बाहर निकलने में जरूर इच्छाशक्ति की जरूरत पड़ेगी। जैसे कि किसी भी बीमारी से लड़ने के लिए पड़ती है, बल्कि इसमें समाज और परिवार की इच्छाशक्ति और सदाशयता की भी जरूरत पड़ेगी, क्योंकि रोगी आपे में नहीं है। उसकी यह निश्र्चिंतता और अनमनापन उसके रोग का ही एक लक्षण मात्र है, उसकी कमजोरी नहीं। वैसे भी इच्छाशक्ति के बल पर उम्मीदें की जा सकती हैं। इच्छाशक्ति के बलबूते चुनौतियों ली जा सकती हैं, मगर जैव रसायन का संतुलन वाली शारीरिक स्थिति सुधारने के लिए सिर्फ भावनाएं नहीं, ठोस इलाज और औषधियां चाहिए, जो कि रोग को छुपाने से नहीं हो सकता।
जो यह सोचते हैं कि "अवसाद' होना शर्म की बात है या दिमागी कमजोरी, भावनात्मक दुर्बलता आदि की निशानी है, उन्हें यह ध्यान दिलाना होगा कि दुनिया के सबसे स्मार्ट, सबसे बेहतरीन, सबसे ज्यादा रणनीतिक और सबसे ज्यादा सृजनात्मक दिमागों का भी अवसाद से पाला पड़ चुका है। अब्राहम लिंकन और विंसटन चर्चिल जैसे संघर्षशील, चुनौतियों का मुकाबला करने की अपार शक्ति वाले राजनीतिज्ञ यदि डिप्रेशन के शिकार हुए तो वर्जीनिया वुल्फ, अर्नेस्ट हेमिंग्वे, वॉन गॉग पाल जैसे सृजनशील लोगों पर भी अवसाद का आक्रमण हुआ। कहने का तात्पर्य यही कि इसे दिमागी या व्यक्तित्व की कमजोरी समझकर दबाया-छुपाया न जाए। रोगी की खिल्ली भी कदापि न उड़ाई जाए, बल्कि अन्य किसी भी बीमारी की तरह इसका सामना किया जाए, अन्यथा रोगी निर्जीव होने की हद तक निराशा की गर्त में जा सकता है या आत्महत्या भी कर सकता है, जो कि वह कहत रहता है तो कोरी धमकी समझकर खारिज कर दिया जाता है।
क्यों होता है डिप्रेशन
किसी का बिछड़ना, किसी की मृत्यु, रिश्तों का टूटना, पीड़ाजनक बचपन की स्मृतियां, भय या दबाव में जिंदगी गुजारना आदि दुःख अवसाद को उभाड़ सकते हैं। वंशानुगत रूप से भी व्यक्ति अवसाद के प्रति संवेदनशील हो सकता है। महिलाओं में मेनुपॉज, प्रसूति पश्र्चात इत्यादि स्थितियों में हारमोन संबंधी गड़बड़ियों से भी डिप्रेशन हो सकता है। ये हारमोनल डिप्रेशन की विशिष्ट स्थितियां हैं, जो इतनी आम हैं कि इनके नामकरण भी हैं। जैसे प्रसूति पश्र्चात के डिप्रेशन को पोस्ट पार्टम (post-partum) डिप्रेशन कहा जाता है। बायोकेमिकली डिप्रेशन न्यूरोट्रांसमीटर्स के स्तर की गड़बड़ियों से होता है। यह क्लिनिकल डिप्रेशन ही होगा। इसे ठीक उसी तरह देखना-समझना होगा, जैसे मधुमेह की तरह की हारमोनल बीमारियां।
कई प्रकार हैं डिप्रेशन के -
बायपोलर या मोनिक डिप्रेशन - इस तरह का डिप्रेशन चक्र में आता है। एक बार हारमोन का स्तर बहुत ऊंचा होता है तो दूसरी बार यह एकदम नीचे चला जाता है। यह वैकल्पिक होता है। जब हारमोंस का स्तर ऊंचा होता है, तब व्यक्ति अपने आपको सामान्य से बहुत ज्यादा ऊर्जावान महसूस करता है और जब हारमोन्स का स्तर नीचे जाता है तो बिलकुल नीचे चला जाता है और व्यक्ति सुस्ती, अनमनेपन और निराशा के फेज में चला जाता है। हारमोन स्तर के छलांग लगाने पर यदि ऐसा व्यक्ति सृजनात्मक है तो अपरिमित ऊर्जा के साथ अद्भुत सृजनात्मकता को अंजाम देता है। यह क्रॉनिक हाइपोमेनिया की स्थिति होती है, जो कि अक्सर सामान्य व्यक्ति के बजाय बेहदत बुद्धिमान व्यक्ति को होती है। बस इसमें खतरा यह है कि हारमोन स्तर नीचे आने पर यहीं अति सक्रिय, अति सृजनात्मक व्यक्ति अवसाद से घिर जाता है।
क्रमश:
ज्ञानवर्धक आलेख .शुक्रिया आपका.डिप्रेसन अपना विस्तार करता जा रहा है ऐसे में इस आलेख की प्रासंगिकता बढ़ जाती है.
जवाब देंहटाएंअच्छा आलेख निर्मलाजी.... आजकल अवसाद एक बडी बीमारी बन रहा है.... आभार
जवाब देंहटाएंअवसाद एक खतरनाक बीमारी है , इन दिनों यह तेजी से बढ़ रही है . हल ही ने बढ़ी आत्महत्याओ से चिंता होती है .आपका लेख अवसाद की स्तिथियों पर सार्थक प्रकाश डालते हैं .
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