शनिवार, 28 अगस्त 2010

कुड़ियों का जमाना?


भई अब तो "औरतों का जमाना है, उन्हीं की चलती-हलती है' एक सज्जन कुछ शिकायती स्वर में फरियाद कर रहे थे। दरअसल उनके एक मित्र की बहू ने दहेज उत्पीड़न का मुकदमा ठोक रखा था, जो कि मित्र का कहना था झूठा आरोप है। इन सज्जन की बात में कुछ खास गलत नहीं है, कुछ स्त्रियों और उन्हें मोहरा बनाकर खेलने वालों ने नए जमाने के स्त्री समर्थक कानूनों का गलत इस्तेमाल करना शुरू किया है, मगर ये स्त्रियॉं स्त्रियों के उस बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करतीं, जिन्हें सचमुच कानून और समाज का सुरक्षा कवच चाहिए। दरअसल इन चंद स्त्रियों की कारस्तानी का रोना रोने से ज्यादा जरूरी है भोली-भाली और आम स्त्री की चेतना, उसकी जागरूकता बढ़ाना, ताकि कानूनों का इस्तेमाल सही बात पर, सही जगह और सही लोगों द्वारा किया जा सके। सिर्फ कानून बन जाने से आम स्त्री सशक्त नहीं होगी।


इसी तरह एक अन्य सज्जन यह शिकायत कर रहे थे "अब तो हर काम में लड़कियॉं आ गई हैं, यदि आप लड़की हों तो आपको काम मिल जाता है। वे लड़कों का रोजगार छीन रही हैं।' सर्वप्रथम तो इन सज्जन से यह पूछा जाना चाहिए कि यह किसने कहा कि रोजगार पर सिर्फ पुरुषों का ही हक है। दूसरी बात यह गणित जितना सीधा दिखाई पड़ता है, उतना है नहीं। मामूली से कामों में भले शक्ल चल जाए, मगर जहॉं योग्यता चाहिए वहॉं योग्यता ही चाहिए, बल्कि इसमें पेंच तो खालिस पुरानी उस पुरुष मानसिकता से है, जो अब भी सामंतवादी है। मुकाबला स्त्री और पुरुष के बीच हो तो अक्सर स्त्री की योग्यता पर संदेह किया जाता है। क्या इनसे होगा, क्या यह कर पाएँगी, का सवाल लोगों को परेशान करता है। स्त्री की पीठ यदि थपथपाई जाती है तो तब जब वह कद में छोटी हो और पुरुष को यह गुमान रहे कि पीठ थपथपाकर वह स्त्री के प्रोत्साहक, उन्नायक, उद्धारक की भूमिका में आ गया है। जब तक स्वयं की महानता का यह बोध कामय रहे तभी तक की शाबासियॉं हैं। स्त्री का कद निकला कि सामंतवादी सोच रखने वाले थ्रेट महसूस करते हैं, ईर्ष्या भी महसूस करते हैं। यानी स्त्रियॉं तो घर से बाहर आई हैं, पर बहुत से पुरुष अभी इस सोच से बाहर नहीं आए हैं कि स्त्री महज अनुगामिनी है। हालांकि जमाना सचमुच बदला है। स्त्री-पुरुषों को साथ घूमने-फिरने की स्वतंत्रता है, वेशभूषा में भी काफी ढील मिली है, वे स्वयं वाहन चलाती हैं और कई ऐसे काम करती हैं, जो पहले की स्त्रियॉं सोच भी नहीं सकती थीं। शादी-ब्याह इत्यादि में भी उनकी पसंद पूछी जाती है, घर-गृहस्थी और समाज के कई कार्यों में उनसे सलाह ली जाती है। फिर भी बड़े तौर पर उनके हाथ में निर्णय के अधिकार नहीं होते। भारतीय स्त्री में अंधी आज्ञाकारिता आज भी बड़ा गुण माना जाता है।


एक कस्बाई लड़की है पंद्रह बरस की। वह घर का काम करती है, छोटे भाई-बहनों को संभालती है, बड़े भाइयों को खाना खिलाती है, ढेर से काम उसके कंधों पर हैं। इसी चक्कर में उसे स्कूल नहीं भेजा गया, वह निरक्षर है, घर के बाहर की दुनिया से उसका कोई वास्ता नहीं है। उस पर कई प्रकार की रोक-टोक लागू है और सब करते-करते भी कई मामूली गलतियों के लिए वह झिड़की भी जाती है। वह भी हमारे भारत की ही लड़की है और वह सिर्फ एक नमूना भर है। उसके जैसी अनगिनत लड़कियॉं अभी हमारे हिन्दुस्तान में ही हैं, जिन्हें यह पता नहीं है कि "औरतों का जमाना' आ गया है! इस लड़की से जब यूँ ही पूछा गया कि अगले जनम में लड़का बनना चाहोगी या लड़की? तो लगा था या तो यह कहेगी लड़की ही ठीक हूँ या कहेगी अगले जनम में लड़का बनूँगी तो पढ़ने जा सकूँगी (क्योंकि उसके भाई पढ़ते हैं), मगर इस लड़की ने तीसरा ही जवाब दिया। उसने कहा- "आप कहोगे वही बन जाऊँगी!' यह जवाब सचमुच स्तब्ध करने वाला था। एक रबर की पुतली की तरह की आज्ञाकारिता उसमें ठूँस-ठूँस कर भरी गई है। उसने अपने माहौल से यही ताकीद मिली है। कहना मानो, सवाल मत करो, खूब काम करो। वह शिक्षा और चेतना के उजाले से वंचित है। वह निर्णय क्षमता और आत्मसम्मान की भावना से रहित है। जब तक यह बारीक बात नहीं बदली जा सकती, तब तक परिवर्तन का कार्य पूरा नहीं होता। नतीजतन अभी खुलकर यह घोषणा नहीं की जा सकती कि स्त्रियों का जमाना आ गया है। यह बदलाव हो रहा है, मगर अभी यह यात्रा है, मुकाम नहीं। अभी तो सुधिजनों का काफी सहयोग लगेगा।


- निर्मला भुराड़िया

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