मंगलवार, 24 अगस्त 2010

तावीज

श्रीमद्‍ भगवतगीता एक ऐसा ग्रंथ है, जो पलायन के बजाए कर्म की सीख देता है। एक ऐसा दा‍र्शनिक ग्रंथ ‍िजसे पढ़कर ग्रहण करने और चिंतन-मनन करने से जीवन को देखने के लिए नई आँख मिलती है। जब जीवन-दृष्टि बदलती है तो निश्चित ही जीवन के छोटे-मोटे सुख-दुख, चिंताएँ और तुच्छ अहं व्यर्थ नजर आते हैं। अत: इससे जो समभाव की प्राप्ति होती है, वही मनुष्य को शांति की ओर ले जाती है। यानी गीता से प्राप्त आत्मशांति गहन पठन-पाठन मनन की प्रक्रिया से जुड़ी है।

श्रीमद्‍ भगवतगीता कोई टोटका नहीं, जिसका तावीज पहनकर आत्मशांति को प्राप्त कर लिया जाए। लेकिन ऐसा भी होता है! पिछले ‍दिनों अखबारों में छपे ऐसे ही एक मसौदे पर नजर गई, जिसमें आत्मशांति के लिए श्रीमद्‍ भगवतगीता के अठारह अध्‍यायों और सात सौ श्लोकों का बना तावीज प्रदान किए जाने की सूचना है! हमारी यह पुरानी मानसिकता है। बगैर अर्थ समझे श्लोक रटने वाला भी अपने आपको गीता-ज्ञानी कहने में संकोच नहीं करता। पोथियों में पड़े ज्ञान को ग्रहण करने के बजाए हम 'पोथी-पूजा' नामक कर्मकांड को अंजाम देते हैं। पोथियों पर कूंकू, फूल, पैसा चढ़ाकर घर लौट आते हैं या पोथी घर में हो तो लाल कपड़ा लपेट कर उसे पूजा-घर में रखकर उसके सामने अगरबत्ती जला देते हैं! फल की इच्छा न रखने वाले निष्काम कर्मयोग की ‍िशक्षा देने वाली गीता को सुख, समृद्धि, स्वास्थ्‍य आदि फलों की इच्छा में (बगैर कर्म ‍िकए) तावीज बनाकर गले में डालना सचमुच स्तब्धकारी है। इंटरनेट पर गीता कई वेबसाइट्‍स पर उपलब्ध है यानी दुनिया गीता पढ़ेगी और हम उसका तावीज बनाकर पहनेंगे!

ज्ञान कोई घोलकर पी जाने की चीज नहीं ‍िक ‍िदमाग के दरवाजे बंद किए और हलक में उतार लिया। मगर कुछ हमारी पुरानी चली आ रही मानसिकता और कुछ आज की नकल संस्कृति हमें डिग्रियों के भी तावीज ही तो दे रही है, जो सिर्फ गले में लटकाए घूमने के लिए हैं। ऐसे खरीदी और जुगाड़ी गई डिग्रियों का योग्यता और ज्ञान से क्या वास्ता?

- निर्मला भुराड़िया

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें