'मीना का अपहरण हो गया है.... वो देखो वो सफेद मारुति कार वाले उसे जबर्दस्ती बिठा ले गए...' उनके ऑफिस का वह लड़का अपनी कार में से ही चिल्लाया। उसके चिल्लाने पर ऑफिस से दो लोग और उनकी कार में सवार हुए... और आगे वाली कार के पीछे लग गए। इस बीच एक ने अपने सेल्यूलर का इस्तेमाल करते हुए पुलिस को फोन कर दिया...।
अपहरणकर्ता पकड़े गए। पर इस फिल्मी किस्से की सनसनी तो किसी सनसनीखेज फिल्म से भी बढ़कर निकली। दरअसल मीना का अपहरण तो उसके पिता ने ही करवाया था! मीना के चचेरे भाई और उसके दोस्तों ने मीना के पिता द्वारा नियोजित योजना के तहत ऑफिस आ रही मीना को अपहृत कर लिया था। यह सारा कांड इसलिए किया गया था कि ठाकुर मीना ने अग्रवाल समुदाय के एक लड़के सुनील को जीवनसाथी चुनने का फैसला लिया था। वह तो बीच में पुलिस आ गई वरना मीना के पिता की इससे आगे की योजना सुनील पर जानलेवा हमला करवाने की थी! इतना गहरा पैठा है जात-पॉंत का विचार हिन्दुस्तान में। बाहरी लोग समझते हैं कि हमारा सम्प्रदायवाद हिन्दू-मुस्लिम जैसे दो बड़े खेमों में बॅंटा है। अब सोचिए क्या कोई बाहर वाला समझ पाएगा कि जब मीना और सुनील दोनों ही हिन्दू थे तो उनके विवाह में क्या अड़चन थी?हिन्दुस्तान में जातियों का यह गणित और भी कई जटिल खेल खेलता है। एक निर्धन व्यक्ति को हृदय का ऑपरेशन करवाना था। कुछ सहृदय लोगों ने इस हेतु मदद के लिए एक सेवाभावी संस्थान से सम्पर्क किया। पर "सेवाभावी' संस्थान ने इस बिना पर मदद से इंकार कर दिया कि वह निर्धन व्यक्ति उनकी जात का नहीं था!
इसी तरह घर में पुरखे का श्राद्ध है और किसी भूखे को भोजन की तृपित देकर पुरखे की आत्मा तृप्त करनी है तो उसके लिए "भूखा' आदमी नहीं ढ़ूँढा जाएगा! घरेलू सेवक दोपहर तक भूखा ही काम करता रहेगा और श्राद्धपक्ष होने की वजह से दो जगह और जीमकर आया ब्राह्मण सबसे पहले जिमाया जाएगा। और यह बात इतनी सामान्य बनकर हमारी परंपराओं में घुल-मिल गई है कि ऐसी विडम्बनाओं पर किसी का ध्यान ही नहीं जाता। ध्यान चला भी जाए तो वह ध्यान दिलाने का दुस्साहस नहीं कर पाएगा, क्योंकि ऐसी रूढ़ियों पर उँगली उठाना ब्लास्फेमी कुफ्र या ईश-निंदा की श्रेणी में रख दिया जाता है। और हमें नई समय-काल परिस्थिति के अनुसार अपने को बदलने की कोई चिंता नहीं है, भले फिर हमें उसके राजनीतिक खामियाजे ही क्यों न भुगतना पड़ें। जी हॉं, राजनीतिक खामियाजे! जातियॉं हमारे दिमाग में इस तरह ठसी हैं कि हिन्दुस्तान में बहुत बड़ा तबका जातियों के आधार पर वोट देता है। जातियों को ध्यान में रखकर उम्मीदवार तय किए जाते हैं। व्यक्ति के कार्य के आधार पर और देश के विकास की बुनियाद पर वोट पड़ने में जातियों का यह गणित भी यदि सबसे बड़ी नहीं तो बहुत बड़ी अड़चन तो है ही। अतः जब तक समाज नहीं बदलेगा देश कैसे बदलेगा?
जब हम धर्मनिरपेक्षता की बात करते हैं तो सिर्फ हिन्दू-मुस्लिम की बात ही नहीं होना चाहिए। हमारे फैसले समुदाय निरपेक्ष होने चाहिए। ब्राह्मण, कुर्मी, जाट बिरादरी की बात करने वाले नेता लोग धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देते हुए बड़े अजीब लगते हैं। और जब हम धार्मिक होते हैं, तब भी "हिन्दू हित' या "मुस्लिम हित' की बात क्यों करते हैं? "मानवहित' की बात क्यों नहीं करते? क्या सच्चा धर्म मानव धर्म नहीं है? क्या किसी के भी "अवतार' या "पैगम्बर' या "प्रोफेट' यही कुछ बताकर नहीं गए होंगे? केवल अपने "जात' के आदमी की ही मदद करना ऐसा शायद किसी ईश्वर ने नहीं कहा होगा। वैसे कहा यह गया है, "जात-पॉंत पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई।' मगर अब तो आलम यह है "जात-पॉंत पूछे सब कोई, होय आम जन या नेता होई।'
- निर्मला भुराड़िया
लोग सिर्फ ईश्वर को मान कर अपना धर्म निभा लेते हैं ईश्वर की बात को कौन मानता है। आज साधन को ही साध्य माना जाने लगा है। बहुत अच्छा आलेख शुभकामनायें
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