कहने को तो हम सबके पास एक-से माँस-मज्जा, एक-से हड्डी जोड़ हैं, मगर हम सब बेजोड़ हैं। यानी हमारा कोई जोड़ नहीं। हममें से हर व्यक्ति यूनीक और अनूठा है। एक-दूसरे से िभन्न है, गुण में भी और दोषों में भी। हथेलियों की छाप में भी, आवाज और सुर और शक्लो-सूरत में भी। हर एक की अपनी अभिरुचियाँ, स्वभाव और मनोविज्ञान भी होता है। शायद इसीलिए दार्शनिकों से लेकर आधुनिक मैनेजमेंट गुरुओं तक सभी कहते आए हैं- दुनिया से तालमेल बैठाना है तो खुद को पहचानो।
इन दार्शनिक बातों को छोड़ भी िदया जाए तो भी पहले स्वयं को पहचानो वाली बात व्यावहारिक सत्य भी है, जो जिंदगी की बेहद आम रोजमर्रा की भौतिक बातों से भी जुड़ सकती है। ये ख्याल आया हाल ही में एक ब्यूटी पार्लर उपकरण का विज्ञापन देखकर, जिसके जरिए अलग-अलग प्रकार की त्वचाओं की प्रकृति पहचानी जाती है। िफर त्वचा की प्रकृति के िहसाब से ब्यूटीशियन या त्वचा विशेषज्ञ द्वारा आपको वे प्रोडक्ट सुझाए जाते हैं, जो आपको अपनी त्वचा पर इस्तेमाल करने हैं ताकि त्वचा की प्रकृति से िभन्न प्रोडक्ट इस्तेमाल करने से आपकी त्वचा को नुकसान न हो। खैर, यह वर्गीकरण ऊँगलियों की छाप, जितना वृहद नहीं होता, थोड़ा मोटे तौर पर किया हुआ वर्गीकरण होता है, मगर जो भी हो खुद को पहचानने वाले मुहावरे में तो फिट बैठता है!
हममें से कइयों ने अपनी दादी माँओं को कहते सुना होगा िक फलाँ चीज तो मैं खाती नहीं क्योंकि फलाँ चीज मुझे 'सदती' नहीं। हममें से कइयों ने ही इस बात पर दादी माँ की खिल्ली भी उड़ाई होगी कि दादी माँ बड़ी वनस्पतिशास्त्री बनती हैं, तो कइयों पर दादी माँ ने पंजा भी कसा होगा कि फलाँ चीज मत खाओ इससे सर्दी हो जाती है, पेट खराब हो जाता है वगैरह। दोनों ही की बातें गलत थीं। यानी यह कि ट्रेडिशनल विस्डम से दादी माँ ने स्वयं की प्रकृति समझ ली थी कि फलाँ खाद पदार्थ उन्हें सूट नहीं करता, इस पर उनकी चुटकी लेना गलत था। मगर वे अपने पर आजमाई बात यदि दूसरे पर थोपना चाहतीं तो वह भी गलत था। और आधुनिक विज्ञान भी अपनी-अपनी प्रकृति के हिसाब से भोजन चुनने और न चुनने की ताकीद करता है। यदि छींक चलती है तो चिकित्सक कहेंगे- आप पता कीजिए आपको किस पदार्थ से एलर्जी है। और यह काम आपसे स्वयं से बेहतर कोई नहीं कर सकता, डॉक्टर भी नहीं। क्योंकि अपनी प्रकृति पहचानने का काम आप ही कर सकते हैं, चिकित्सक तो उसमें मदद भर कर सकता है। अपनी-अपनी शारीरिक-प्रकृति का यह अनूठापन सर्दी-गर्मी इत्यादि में भी चलता है। कहते हैं हरेक की अपनी तासीर होती है। किसी को ठंड ज्यादा लगती है, किसी को गर्मी ज्यादा लगती है। िकसी को भिंडी बेहद पसंद होती है तो िकसी को भिंडी से इतनी चिढ़ होती है िक वह उसे थाली में भी नहीं लेना चाहता। मगर हम लोग अक्सर देखा-देखी करते हैं या फिर कोई दूसरा हम पर फोर्स करता है अपनी पसंद को। आजकल कॉकटेल पार्टियाँ बहुत चलती हैं। कई लोग देखा-देखी हार्डड्रिंक ले लेते हैं, कुछ इस डर के मारे िक कहीं उन्हें पिछड़ा न समझ लिया जाए तो कुछ दोस्तों के अति आग्रह में। मगर ये 'पीलो यार!' के चक्कर में पीने वाले कभी उल्टियाँ करते नजर आते हैं तो कभी दूसरे दिन हैंगओवर के चलते सिर पकड़े बैठे होते हैं। फिर सोचते हैं (यदि सोचने वाले हुए तो) कि काश अपनी प्रकृति पहचानी होती। इसी तरह नींद इत्यादि के साइकल भी व्यक्ति-व्यक्ति के िभन्न होते हैं। गहरी नींद का दौर सबका अलग-अलग समय का हो सकता है। नींद के घंटे िकतने हों, यह भी व्यक्ति-व्यक्ति में बदल सकता है। किसी व्यक्ति को माइग्रेन हो तो उसे पता होना चाहिए कि उसे चॉकलेट, पनीर, कॉफी इत्यादि से परहेज करना है। यानी आप स्वस्थ जीवन चाहते हैं, तो आपका 'कॉन्स्टीट्यूशन' या संरचना क्या है, इसको आपको खुद को जानना बेहद जरूरी है। इसके िलए चिकित्सा िवज्ञान की डिग्री की जरूरत नहीं, बस थोड़ा-सा ऑब्जर्वेशन ही आपको बता देगा कि आपकी प्रकृति क्या है और इस िहसाब से आप अपने जीवन को िनयमित कर सकेंगे। यानी 'पहले खुद को पहचानो' पूरी तरह दार्शनिक वाक्या ही नहीं, भौतिक और व्यावहारिक सत्य भी है। न देखा-देखी न दबाव, आपको पता होना चाहिए आप क्या चाहते हैं।
- िनर्मला भुराड़िया
बिलकुल सही कहा. हमें अपनी अपनी तासीर पहचाननी होगी. सुन्दर आलेख. आभार.
जवाब देंहटाएंअपनी प्रकृति और तासीर समझ पाना एक निरंतर चुनौती है.आपकी बात फिर एक सोच को प्रेरित करती है.(यदि सोचने वाले हुए तो).
जवाब देंहटाएंव्यक्ति- व्यक्ति की तासीर भिंडी के माध्यम से स्वयं की पहचान एक सुंदर अभिव्यक्ति... यश
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