बुधवार, 15 दिसंबर 2010

एक गाथा

जिंदगी के पर्दे पर की

संजय भंसाली की फिल्म गुजारिश औंधे मुँह गिरी। खैर बॉक्स ऑफिस फिल्म के सफल या असफल होने का फैसला करता है, मगर अच्छा या बुरा होने का फैसला कई बार नहीं कर पाता। लिहाजा कुछ लोगों ने इस फिल्म को पसंद किया है, क्योंकि कुछ दृश्य इस फिल्म में बेहद कलात्मकता के साथ फिल्माए गए हैं, कुछ लोगों ने ऋतिक-ऐश्वर्या की जोड़ी पर फिल्माए दृश्यों में प्रेम की तीव्रता को भी देखा है। कतिपय लोग बिस्तर पर सीमित रोगी की घुटन को लेकर भी भावुकता में बह गए हैं, मगर कुल मिलाकर फिल्म असफल ही रही है। सिर्फ बॉक्स ऑफिस के लिहाज से ही असफल नहीं, बल्कि सही संदेश देने और फिल्म में उठाए गए उद्देश्यों को प्रतिपादित करने में भी। यह फिल्म उस समय, काल, परिस्थिति में बनी है, जब वृद्ध, दुःखी और रोगी तो छोड़िए सामान्य युवा जिसके सामने भविष्य खुला है, वह तक आत्महत्या की प्रवृत्ति अपनाने पर आमादा है। ऐसे समय में जीवन से घबराकर जीवन को त्यागने की फिल्म बनाना घोर नकारात्मकता है। सामान्य युवाओं के परिजन शायद ही चाहेंगे कि उनके बच्चे इस फिल्म को देखें। वैसे भी इस समय यूथनेशिया, दया-मृत्यु अथवा मर्सी कीलिंग की अनुमति भारत की ऐसी कोई ज्वलंत समस्या नहीं है कि इसके लिए लोग तख्तियाँ हाथ में लेकर जुलूस निकालें और रोगी जनमत बनाए, जैसा कि फिल्म में बताया गया है।

डिप्रेशन, एंक्जाइटी और तनाव के इस बढ़ते दौर में तो उत्साह, प्रयास और प्रबल जिजीविषा की जरूरत है। फिल्म इसलिए भी प्रेरित नहीं करती कि नायक के चेहरे पर रोग की कोई बेबसी, कोई झुर्री, कोई ऊब या विषाद नहीं है। नायक को ऐसा बुजुर्ग बताने की हिम्मत भंसाली नहीं कर पाए हैं, जिसके लिए जीवन में कोई मकसद नहीं बचा, जो असुंदर है, जिसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं है। यहाँ तो नायक तथा कथित रूप से जिंदादिल आदमी है, मगर दया मृत्यु चाहता है! उसके पास एक अदद सदा सजी-सँवरी शाश्वत युवा प्रेमिका भी है। माँ, मित्र मंडली, रेडियो जॉकी का जॉब, प्रशंसक वर्ग सब है। कुल मिलाकर वह बेबस होकर मरना नहीं चाहता, बिस्तर में पड़े-पड़े बोर होकर मरना चाहता है। बस इसीलिए उसकी अपील मार्मिक नहीं बन पाती। न दिल को छू पाती है। कुल मिलाकर लिजलिजी भावुकता की चाशनी और नकली रूमानियत का घोल बनकर रह जाती है। कोई भी किसी बीमार या अपंग व्यक्ति को यह फिल्म देखने की सलाह नहीं देगा, क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में पड़े व्यक्ति को नकारात्मकता नहीं प्रेरणा की जरूरत होती है। तो चलिए फिल्मी पर्दे को छोड़कर एक नायक की गाथा असल जिंदगी से ली जाए।

श्री राकेश वर्मा का पिछले हफ्ते निधन हो गया। राकेशजी की गाथा जमीं से उठकर आसमान छूने की गाथा है। मिलियन डॉलर वर्थ वाली अमेरिका की सॉफ्टवेयर कंपनी एजटेक के सीईओ व संस्थापक राकेशजी ने बहुत सामान्य परिस्थितियों में जीवन की शुरुआत की। अंग्रेजी मुहावरे का प्रयोग करें तो इसे हम्बल बिगनिंग कहा जा सकता है। पारिवारिक परिस्थितियों की वजह से अपनी पढ़ाई के लिए उन्होंने किशोरावस्था में ही कपड़े सिलना, किताब की बाइंडिंग करना जैसे कामों में भी दक्षता हासिल कर ली थी। रात में किताबों की बाइंडिंग का काम करके अतिरिक्त आय जुटाते थे। वे सामान्य स्कूलों में शिक्षित हुए, मगर एक बार राह बनाई तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। राकेशजी स्कूल में होनहार छात्र थे। उन्होंने समझ लिया था कि आगे बढ़ना है तो पढ़ना जरूरी है। वे भविष्यदृष्टि से भी सोचते थे, जैसे कि बीई इलेक्ट्रॉनिक्स में करने के बाद उन्होंने सोचा कि आगे कम्प्यूटर का ही जमाना आएगा और उन्होंने आईआईटी मुंबई में एमटेक के दौरान विषय बदलकर कम्प्यूटर साइंस कर लिया। फिर उन्होंने इंदौर में जीएसआईटीएस व कुछ प्रायवेट संस्थाओं में शिक्षण भी किया। उस दौरान मैंने भी उनकी कम्प्यूटर सॉफ्टवेयर की क्लास अटेंड की, जहाँ उन्होंने उस वक्त चलने वाली कम्प्यूटर की भाषा "बेसिक" पढ़ाई थी। इसके बाद राकेशजी स्टील ट्यूब्स ऑफ इंडिया से जुड़े तो उन्होंने अपने काम के अलावा बिजनेस, फायनेंस आदि भी समझा। हमेशा नया करने, नया सोचने वाले राकेशजी यहीं नहीं रुके। इसके बाद उन्होंने टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च जॉइन किया। यहाँ उन्होंने गाँव के टेलीफोन एक्सचेंज के लिए सॉफ्टवेयर लिखा। वे इंजीनियर, वैज्ञानिक एवं लेखक भी थे। अंग्रेजी के अलावा मातृभाषा हिन्दी में भी लिखते थे। सत्तर के दशक में धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं में भी उनके लेख प्रकाशित हुए थे। सॉफ्टवेयर के क्षेत्र में भी वे कुछ मौलिक और क्रांतिकारी करने में यकीन करते थे, ऐसा कुछ जो सुखद परिवर्तन लाए। बनी बनाई लीक पर चलने वाले प्रोग्राम्स का गुणन करके बाजार के लिए कंपनी खड़ी कर लेना ही उनका लक्ष्य नहीं था। लिहाजा उन्होंने अपने नाम पर चार पेटेंट भी कराए। बदकिस्मती से कुछ साल पहले उनके साथ एक हादसा हो गया था, तब से वे व्हील चेयर पर थे। वे स्वयं कुछ भी नहीं कर पाते थे, मगर उनकी पत्नी प्रेरणाजी निरंतर उनके साथ लगी रहती थीं। भंसाली साहब को प्रेम की तीव्रता और जोड़े के एक-दूसरे के प्रति समर्पण के लिए इधर देखना चाहिए था। खैर वर्माजी पत्नी के प्रेम से बेहद अभिभूत व आभारी थे और हिन्दी में आत्मकथा लिखने (बोलकर लिखवाने) की योजना भी बना रहे थे, जिसमें वे पत्नी के प्रति अपनी भावनाएँ भी अभिव्यक्त करना चाहते थे। वे नए क्रांतिकारी सॉफ्टवेयर लिखने (बोलकर लिखने) की योजना भी बना रहे थे। ऐसी शारीरिक परिस्थितियों के बावजूद वे कंपनी तो चला ही रहे थे, क्योंकि वे अदम्य जिजीविषा के स्वामी थे। दुर्भाग्य से पिछले दिनों उनका स्वास्थ्य बिगड़ गया और वे बच नहीं सके, मगर अंत तक भी उन्होंने कुछ अच्छा और परिवर्तनकारी करने की इच्छा को नहीं त्यागा। वे उसी जोश से कहते थे एक नया और क्रांतिकारी सॉफ्टवेयर लिखूँगा। असल मिसाल तो ऐसा जोश और ऐसा जज्बा है जो जमीं से हाथ बढाकर आसमान छूने की प्रेरणा दे।

- निर्मला भुराड़िया

5 टिप्‍पणियां:

  1. Guzarish movie was lacking in the depth of acting and emotions from the lead characters.. but still somewhere it was able to touch the heart and put forward a point.
    Ogden Nash said "Happiness is having a Scratch for Every Itch".. I don't think it would be wrong to say, "Frustration is- not being able to scratch an itch". Not being able to do any physical activity by oneself would be nothing less than a torture, I suppose. Wont be shocked if most of people choose to bid adieu when placed in such an hypothetical situation..

    This is a generation of fast food and materialism... and of impatience and of intolerance... respectable personal examples are also pretty rare around. Newspapers are completely filled with negativity, all the pages, all the time. No wonder, there is depression, anxiety and stress prevailing.

    Its nice to see some good, real examples in your article...

    Thanks,
    Pulak

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  2. गुजारिश के बारे में आपने बिलकुल सही कहा, हालाँकि मैंने यह मूवी देखी तो नहीं लेकिन जैसा आपने बताया, उस लिहाज़ से आपकी बात एकदम दुरुस्त है. राकेश वर्मा जी का उदहारण देकर उनके बारे में विस्तारपूर्वक बताने के लिए धन्यवाद!



    प्रेमरस.कॉम

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  3. निर्मला जी आपने बिल्कुल सही कहाँ है, रही बात आदरणीय राकेश वर्माजी की तो उनके सबसे करीब थी, श्रीमती प्रेरणा वर्माजी, जो उनके हर पल आसपास ही रहती थी, प्रेरणाजी का राकेशजी के साथ जो समर्पण भाव रहा, उसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता है, अविश्वासनीय, अद्‍भुत या ये कहें की उनके समर्पण भाव को किसी भी पैमाने पर मापा नहीं जा सकता हैं, हाँ उनसे प्रेरणा अवश्य ली जा सकती हैं। संजय लीला भंसाली जी ने तो आज यह फिल्म बनाई हैं, जबकि प्रेरणा मेम तो सालों से राकेशजी की सेवा में तल्लीन रही हैं। मैं भी उनके समर्पण को सादर प्रणाम करता हूँ।

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  4. श्री राकेश वर्मा के निधन से आघात लगा. जीनियस, मेहनती, सह्रदय और उद्यमी व्यक्ति थे राकेश जी. जितना उन्होंने काम किया, उतना काम शरीर से सक्षम लोग भी नहीं कर पाए. आप ने उनके कुछ और पहलुओं को छुआ. उनका जाना सभी के लिए दुखद है. उनकी धर्मपत्नी के योगदान की भी प्रशंसा की जानी चाहिए. जो निष्ठा, श्रम और मेघा . परिचय उन्होंने दिया वह स्तुत्य है.

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  5. श्री राकेशजी के लिए मेरी ओर से ये चार लाइने :-
    याद आएगें बहुत, तन्हाइयों में
    लोग देखा करेगें परछाइय़ो में 
    क्यों ढूढती है काय़नात हमें 
    खो गए हम दिल की गहराइयों में ......

    - राजेंद्र कुशवाह

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