एक ब्रिटिश मुस्लिम डॉक्टर क्वांटा अहमद की एक किताब आई है, 'इन द लैंड इनविजिबल वुमन।" इसे हिन्दी में हम कह सकते हैं 'अदृश्य औरतों के देश में।" डॉ. क्वांटा की स्वयं इस्लाम में बहुत श्रद्धा हैं, माता-पिता द्वारा दिए गए एक अच्छे और सच्चे मुस्लिम बनने के संस्कारों का पालन करती है। मगर सऊदी अरब में एक जॉब में जब वे रहीं और उन्होंने बुरके में शब्दश: कैद स्त्रियों का जीवन देखा, मनमानी और स्वार्थी व्याख्याओं के
चलते, स्त्रियों का दमन देखा तो उन्होंने बगैर परवाह किए कड़वी सच्चाइयाँ लिख डाली। आज उनकी यह पुस्तक इंटरनेशन बेस्ट सेलर्स में से है।
क्वांटा की पुस्तक में कुछ ऐसे सचमुच देखे गए दृश्य हैं। सत्तर वर्षीय एक मरीज मरणासन्ना है। वह इंटेन्सिव केयर यूनिट के बिस्तर पर है। उसने काला नायलोन का बुरका पहना हुआ है, उसके चेहरे पर नकाब डला हुआ है। बुर्के और पर्दे के आर-पार से उसने यत्र-तत्र कई ट्यूब्स डाली गई हैं, वैंटिलेटर भी लगा है। बिस्तर के आस-पास नर्स और फिजिशियन हैं। महिला खाँसती है, या जोर से साँस लेती है तो नकाब इधर- उधर हो जाता है। या नर्स चेहरे से कुछ पोंछती है तो नकाब को थोड़ा खिसकाती है। पर्दे के पार एक पुरुष बेचैन होकर टहल रहा है। बीच-बीच में वह ऊँचे, उत्तेजित स्वर में फिजिशियन से अरबी में कुछ कहता है। वह गुस्सा है। क्वांटा को मालूम होता है कि वह मरीज स्त्री का बेटा है। क्वांटा इस बेटे की माँ की बीमारी के ति चिंता देखकर खुशी होती है। मगर जब फिजिशियन उसे अनुवाद बताते हैं तो पता चलता है कि बेटा इसलिए गुस्सा हो रहा था कि माँ के चेहरे का नकाब बार-बार इधर-उधर हो रहा था। बेटे को माँ की बीमारी की अवस्था से अधिक घर की
तथाकथित मर्यादा की चिंता थी।
क्वांटा ने पाया कि सऊदी अरब में बगैर अबाया (बुर्का) पहने कोई भी महिला घर से बाहर नहीं जा सकती। चाहे वह गैर-मुस्लिम हो या उसका व्यक्तिगत विश्वास इसमें न हो। अबाया पहनना और अपने बालों को ढँककर रखना हर स्त्री के लिए वहाँ कानूनन जरूरी है। कहीं औरतें इसका उल्लंघन तो नहीं कर रही यह
देखने लिए शासन द्वरा अपॉन्ट्स किए गए मुत्तावा यानी धार्मिक पुलिस के लोग जगह-जगह पर नियुक्त
किए गए होते हैं। वहाँ महिलाओं को बगैर किसी पुरुष को साथ लिए कहीं जाने की इजाजत नहीं है। उन पर कानूनी प्रतिबन्ध है कि वे कोई वाहन नहीं चला सकतीं। वहाँ महिलाएं हेयर से सेलून , बुटिक आदि चलाने का काम भी करती हैं तो सीधे नहीं कर सकतीं, उन्हें पिता, भाई, पुत्र आदि किसी को अपने प्रतिनिधि के तौर पर आगे करना होता है, तभी इजाजत होती है। सऊदी अरब वैसे तो मुस्लिम राष्ट्र हमेशा से है लेकिन फिर भी वहाँ औरतों की स्थिति ऐसी नहीं थी। शाह फैजल की हत्या के बाद स्थितियाँ बदली और वहाँ कट्टरपंथी मुत्ताबीन की ताकत आ गई। उन्होंने मनचाही व्याख्याओं के जरिए औरतों पर ढेर सारे बंधन लाद दिए। उपरोक्त दृश्य से ठीक विपरीत खबर है फ्रांस से। वहाँ बुरका पहनने पर प्रतिबंध लगा दिया गया है। प्रतिबंध चीजों को हटाता नहीं है, जिद बना देता है। इस प्रतिबंध की वजह से मुस्लिम समुदाय बुरके को अपनी पहचान, अपनी
आइडेंटिटी के रूप में देखने लगा है। इससे उन महिलाओं का नुकसान हुआ है जो अपनी लड़ाई खुद लड़कर कभी न कभी कैद से मुक्त होती। बाहरी विश्व भी उस लड़ाई में सहयोग देता। मगर बाहरी विश्व कानून बनाकर प्रतिबंध लगा दे जो यह फिर बुरके पर नहीं अपने आपको अभिव्यक्त करने की आजादी पर प्रतिबंध हो जाता है। फिर व्यक्ति छटपटाता है और उसका विरोध करने लगता है। भारत में भी इससे मिलते-जुलते उदाहरण थोड़े बहुत रूप में, कभी-कभी देखने को मिल जाते हैं। कभी-कभी कट्टरपंथी लड़कियों के जींस पर प्रतिबंध लगाने की माँग करने लगते हैं। यह युवतियों को निश्चित ही नागवार गुजरता है। वहीं पिछले दिनों ऐसा भी हुआ है द बेडमिंटन वर्ल्ड फेडरेशन ने यह आदेश जारी कर दिया है कि आगामी ग्रांड टूर्नामेंट में सभी महिला खिलाडी स्कर्ट ही पहनेंगी, ताकि बेडमिंटन का प्रजेंटेशन आकर्षक हो। वे शॉर्ट्स पहनना चाहें तो वह उन्हें स्कर्ट के नीचे ही पहनना होगी। यह भी तो बाध्य करना हुआ। स्त्रियाँ क्या पहनें और कैसे रहें इसका फैसला दुनिया उन्हीं पर
क्यों नहीं छोड़ देती। स्त्रियों पर हर चीज लादी क्यों जाती है?