शुक्रवार, 10 जुलाई 2015

धीरज से सुलझाएं, उलझे मन के तागे

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डिप्रेशन यानी अवसाद के कई मामले रोजाना सुनने में आते हैं। डिप्रेशन से उबरने के लिए मरीज क्या करें, इस बारे में भी जानकारी यत्र-तत्र प्रकाशित-प्रसारित होती रहती है। मगर अवसाद एक ऐसी अवस्था है, जिसमें मरीज की मन:स्थिति जटिल हो जाती है, अत: मरीज के साथ ही उसके परिजनों, उसकी देखभाल करने वालों के लिए भी कुछ बातों को समझ लेना बेहद जरूरी है। माना कि अवसाद के रोगी की देखभाल करना हंसी-खेल नहीं है। रोगी के साथ ही केयरटेकर को भी इस दौरान कड़ी परीक्षा से गुजरना होता है।

यदि हम यहां दलदल के रूपक का प्रयोग करें तो यह कह सकते हैं कि मरीज दलदल में फंसा होता है। वह सिर्फ खुद के दम पर बाहर नहीं निकल पाता, जितना हाथ पैर मारता है, उतना ही भीतर धंसता जाता है। उसे कोई ऐसा चाहिए होता है, जो एक बार उसे खींचकर निकाल ले। किसी का बढ़ा हुआ हाथ और स्वयं की ठीक होने की इच्छा, यही मरीज को बाहर लाती है।

डिप्रेशन के मरीज के केयरटेकर्स को बेहद समझदारी और सब्र की जरूरत होती है। परिजन को यह समझकर चलना होता है कि मरीज का मन अभी बहुत कच्ची अवस्था में है, अत: अपनी तरफ से कुछ बातों का ध्यान रखें। जैसे मरीज को कभी भी उसकी बीमारी का ताना न दें, उपहास न करें। जैसे ऐसे न कहें, 'क्या आलसियों की तरह पड़े रहते हो, उठो काम पर लगो' या 'तुम सहानुभूति जीतने के लिए नाटक कर रहे हो' या 'हमने तो कभी इस तरह हिम्मत नहीं हारी।'

क्या आप पथरी के मरीज को कभी यह मिसाल देते हैं कि हमारा तो कभी पेट नहीं दुखता, तुम्हारा ही क्यों दुखता है! तो फिर अवसाद के मरीज को यह क्यों कहते हैं कि हमको तो इस तरह बात-बात पर रोना नहीं आता! यानी केयरटेकर खुद ही नहीं समझ रहा होता है कि मरीज एक जैविक स्थिति से जूझ रहा है, न कि जान-बूझ कर कुछ कर रहा है, न ही इस तरह बुझ जाने का मतलब मरीज में इच्छाशक्ति की कमी है। यह तो केमिकल लोचा है। ऐसी मन:स्थिति में मरीज थोड़ा 'टची' भी हो जाता है।

डिप्रेस व्यक्ति का दिमाग कई उलझनों से भरा होता है, मसलन उसे लगता है, 'कहीं मैं अपने स्वजनों पर बोझ तो नहीं हो गया हूं, कहीं मुझे मानसिक रूप से कमजोर तो नहीं समझा जा रहा, लोग मन ही मन मेरी इच्छाशक्ति पर सवाल उठाते होंगे। मन:स्थिति बिगड़ने को लोग सीधे पागलपन से जोड़ते हैं- मेरे लिए भी कोई ऐसा तो नहीं सोच रहा? मेरी वजह से सब परेशान हैं, इनको छुटकारा दिलाने का एक ही रास्ता है...!'

मन में आत्महत्या का विचार आना, बेवजह ग्लानि होना, जरा-जरा सी बात दिल पर ले लेना बीमारी का  ही एक हिस्सा है। यदि यह मरीज की मूल प्रवृत्ति नहीं है तो बीमारी ठीक होते ही वह सामान्य व्यवहार वाला हो जाएगा। अत: केयरटेकर में धैर्य और समझ होना और जरूरी हो जाता है। मरीज को कोसना, दोष देना, उसका मजाक बनाना बीमारी को और बढ़ा सकता है। उससे संभलकर व्यवहार करना ही ठीक होता है, अगर आप उसे ठीक करना चाहते हैं तो! क्योंकि यहां केयरटेकर की कर्त्तव्य भावना ही नहीं, उसका समर्पण, प्यार और अपनापन भी काम आता है। कभी मरीज को पटाकर दवा देनी होती है, कभी पुचकारना भी पड़ता है।

चिकित्सकीय इलाज के साथ ही अपनों का कोमल व्यवहार और समर्पण एक अवसाद के रोगी की सबसे बड़ी आशा होती है। केयरटेकर को यह समझना होता है कि रोगी की कैसेट तो उलझी है और केयरटेकर उसे सुलझाने बैठा है, अत: खुद उलझने के बजाए वह धैर्य से तागे अलग करे, इसी में समझदारी है।
                                                                                -निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 11 जून 2015

सिर्फ मैगी ही क्यों?

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टपट भोजन के रूप में लोकप्रिय मैगी नूडल्स इन दिनों बदनामी भोग रह हैं। कई राज्यों में मैगी के नमूनों की जांच में मोनोसोडियम ग्लूटामेट व अधिक मात्रा में सीसा पाए जाने बाद, जगह-जगह मैगी की जांच, प्रतिबंध, स्टॉक लौटाए जाने की खबरें जारी हैं। यहां तक कहा जा रहा है कि जिन सितारों-माधुरी दीक्षित, अमिताभ बच्चन, प्रिटी जिंटा- ने मैगी के विज्ञापन किए उनके खिलाफ भी प्रदूषित उत्पाद का समर्थन करने के लिए कार्रवाई की जाएगी।

कुछ लोग इस बात को गलत मानते हैं कि विज्ञापन करने वाले सितारों को किसी उत्पाद में कमी के लिए दोष दिया जाए। ऐसा मानने वाले यह तंज भी कर रहे हैं कि क्या सितारे प्रयोगशाला में जांच करवा कर किसी उत्पाद का समर्थन करें? तो इस बात का जवाब है कि हां जरूर! वे पूरा देख-परखकर ही किसी चीज का विज्ञापन करें। इससे उनकी और उत्पाद की दोनों की ही साख बढ़ेगी। जब सितारे व्यक्तिगत हवाई जहाज, याट (खुद का जहाजी बेड़ा) और जाने क्या-क्या खरीदने की कुव्वत रखते हैं तो क्या जिस उत्पाद का वे विज्ञापन करने वाले हैं उसकी जांच पर पैसा खर्च नहीं कर सकते?

ऐसा करना तो दूर, सैकड़ों करोड़ रुपयों के मालिक होने के बावजूद वे स्वयं विग लगाकर ऐसे तेल बेचते हैं जो बाल बढ़ाने का दावा करते हों। क्या विज्ञापन करने वाले सितारे को नहीं मालूम होता कि दो-चार हफ्तों में कोई क्रीम गोरा नहीं करती? मगर नहीं, वे सब तो सरासर झूठे दावों के आधार आटा, तेल, घी, साबुन, टूथपेस्ट, बिस्किट, नूडल सब कुछ बेच रहे हैं। सिर्फ पैसा कूटने के लिए। क्या इन सितारों की कोई जिम्मेदारी नहीं बनती कि वे देख-परखकर विज्ञापन स्वीकार करें।

दूसरा महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मैगी ही क्यों? बस मैगी हत्थे चढ़ गई तो मैगी और सिर्फ मैगी की थू-थू जारी है। मगर जरा नजरें उठाकर देखें तो आलम यह है कि हमारे आसपास खाने की लगभग हर चीज मिलावट के दायरे में आ चुकी है। दूध, घी, मसाले, और भांति-भांति की तैयार भोज्य सामग्री जो बाजार में बिकती है उनमें से अधिकांश मिलावटी है। जांच तो सभी की होना चाहिए चाहे देसी कंपनी का उत्पाद हो या विदेशी का। बड़ी ब्रांड की चीज हो या आसपास घरेलू उद्योगों में बनने वाली सामग्री। मैगी की जांच हर राज्य में करवाई जा रही है। सबने डर के मारे मैगी बेचने और खाने से अपने हाथ खींच लिए हैं। ऐसी ही जांच हर खाद्य सामग्री की हो तो मिलावट करने वालों को जनता और सरकार की ऐन नाक के नीचे यूं फलने-फूलने की हिम्मत न हो।
-निर्मला भुराड़िया

रविवार, 26 अप्रैल 2015

कट्टरपन नहीं, वात्सल्य बचाए- देसी गाय 

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हिन्दू गाय को पवित्र मानते हैं। धार्मिक मान्यता के अनुसार गाय में तैतीस करोड़ देवताओं का वास है। वैदिक काल की एक परंपरा के बारे में कुछ इतिहासज्ञ बताते हैं कि जब कोई विवाद होता और सुलझाने को पंच बैठते तो निर्णायक को गाय की खाल ओढ़ा कर बैठाया जाता, इस विश्वास के साथ कि गाय का चमड़ा ओढ़े बैठा व्यक्ति अन्याय नहीं करेगा। मरणासन्न व्यक्ति के अंतिम समय में मुंह में तुलसीदल और गंगाजल देने के अलावा यह परंपरा भी रही है कि उसका हाथ गाय की पूंछ से बांध दिया जाए ताकि मरने पर वह व्यक्ति सीधे स्वर्ग में जाए। इस सबको भोले लोक विश्वासों की श्रेणी में ही लिया जाना चाहिए।

मुझे अच्छी तरह याद है बचपन में एक मुनीमजी थे, रास्ते में जहां कोई गाय मूत्र त्याग करती दिखती, वे खट से आगे बढ़कर अपनी हथेली लगा देते और श्रद्धापूर्वक चुल्लू में आए द्रव्य का पान कर लेते। एक बुआजी थीं, ईश्वर की कृपा से वे जरा ठिगनी भी थीं, वे अक्सर गाय के नीचे से निकलती थीं इस भाव के साथ कि इससे उनका सब अमंगल धुल जाएगा। आज भी गोमूत्र से इलाज किया जाता है। यह उचित है और यह उचित नहीं है, दोनों ही बातें मानने वाले लोग हैं। हम यहां आज इस बात को विवेचना में शामिल नहीं कर रहे हैं।

वैदिक काल में गोधन बड़ी संपत्ति हुआ करती थी। गाय उपयोगी भी थी, पवित्र भी मानी जाती थी। मगर उस काल में गोवध अपराध नहीं था। पुराण काल में यह धारणा आई कि ब्रह्मा और गाय चूंकि एक ही दिन उत्पन्न हुए अत: गोहत्या का पाप ब्रह्म हत्या के बराबर है। और यह तो चौथी शताब्दी में हुआ कि गुप्तवंश के राजाओं ने गोवध हेतु प्राणदंड तय किया। महाराष्ट्र सरकार द्वारा गोवध के प्रतिबंध के पश्चात इस वक्त भारत में इस पर काफी वाद-विवाद और चर्चाएं हो रही हैं। इस विवाद के भी इस या उस पक्ष में हम नहीं जा रहे, क्योंकि हम तो यहां देसी गाय की जीतेजी होने वाली दुर्गति पर बात करना चाहते हैं।

प्रसिद्ध आहार विशेषज्ञ रुजुटा दिवेकर लिखती हैं कि ऊंचे कूबड़ और गले पर झूलती चमड़ी वाली अपनी देसी गाय के दूध में एक विशेष प्रकार का प्रोटीन होता है- ए2 टाइप का प्रोटीन। यह प्रोटीन इस दूध का सेवन करने वालों की मधुमेह, मोटापा आदि से रक्षा करता है। जबकि विदेशी संकर प्रजाति की जर्सी और होलस्टीन जैसी गाएं भले दूध ज्यादा देती हों पर उनके दूध में ए1 टाइप का प्रोटीन होता है जिससे पेट बिगड़ना (इरिटेबल बाउल सिंड्रोम), पेट फूलना (ब्लोटिंग) जैसी समस्याएं होती हैं, वहीं हृदय रोगों, मोटापा, मधुमेह का खतरा भी बढ़ जाता है। देसी गाय का कूबड़ उसे यह विशेषता देता है कि वह दूध में विटामिन डी की अधिक मात्रा छोड़े। वहीं इस दूध में एंटीऑक्सीडेन्ट्स, विटामिन बी-12, अमीनो एसिड्स की संख्या भी ज्यादा होती है। रुजुटा चिंता व्यक्त करती हैं कि हमारी यह प्यारी देसी गाय धीरे-धीरे लुप्त हो रही है।

कुछ समय पहले का एक किस्सा याद आता है। रात को कॉलोनी में एक गाय आकर जोर-जोर से रंभाती थी। उसका रंभाना इतना करुण होता था कि लगता था कि वह रो कर कुछ कह रही है। पशुओं की भी अपनी बोली और दुख-सुख तो होते ही हैं न! दो-तीन दिन के बाद किसी से पूछा कि यह गाय रोती क्यों है तो व्यक्ति ने बताया कि गाय के मालिक ने उसका बछड़ा बेच दिया है, उसी को ढूंढती फिरती है। सुनकर जी धक्क से रह गया था। गायों को अधिक दूध देने वाले इंजेक्शन भी लगाए जाते हैं।

बछड़ा मरने पर भी वह दूध देती रहे, इस हेतु बछड़े की खाल में भूस भरकर उसे सामने खड़ा कर दूध दुहा जाता है। गो पालक अक्सर गायों को खुला छोड़ देते हैं। वे शहर भर में प्लास्टिक खाती, मानवमूत्र पीती घूमती रहती हैं। दुनिया भर का कचरा-बगदा खाने वाली गाय आखिर किस प्रकार का दूध देती होगी? गुणवत्ता तो दूर, यह बेहद प्रदूषित दूध ही हुआ न! इन गायों के पालक? ये वही लोग होते होंगे जो दीवारों पर ''गोहत्या पाप है" लिखने वालों के साथ, नारा लिखने के लिए ब्रश और पेंट लेकर खड़े होते होंगे। यदि ये गाय के प्रति कट्टरता के बजाए गाय के लिए वात्सल्य रखें, गाय को अच्छा खिलाएं और प्यार से घर में पालें, हाईब्रीड गायों और बोवीन ग्रोथ हारमोन के इंजेक्शन का इस्तेमाल करने वाले दूध के लालची व्यापारियों में तब्दील न हों, तो अब भी समय है कि हमारी देसी गायें (Bos Indicus) और हमारी अगली पीढ़ी का स्वास्थ्य दोनों ही बच जाएंगे।
- निर्मला भुराड़िया 

शनिवार, 11 अप्रैल 2015

जिम्मेदार कौन?

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मैं एक ऐसे व्यक्ति के बारे में जानती हूं, जिन्होंने अपने बेटे की अकाल मृत्यु हो जाने पर अपनी सद्यविधवा बहू का मुंह देखना बंद कर दिया था। बहू सामने पड़ जाती तो वे पलटकर चले जाते। ऐसा वे इसलिए कर रहे थे कि उन्हें लगा कि बहू अपशगुनी है और उसकी किस्मत से ही उनका बेटा चला गया।

अंधविश्वास ने इन ससुर महोदय को इतना क्रूर बना दिया था कि वे समझ नहीं पा रहे थे कि ऐसा करके वे अपनी पहले से ही दु:खी पुत्रवधु के दु:ख को और बढ़ा रहे हैं। या शायद वे उसे दु:खी करके ही खुश हो रहे हों क्योंकि अंधविश्वास की जीत हमेशा से ही हृदय की कोमलता और सहज करुणा पर होती आई है।

अंधविश्वास की रौ में आदमी अच्छा-बुरा भी भूल जाता है। अब इन्हीं ससुर महोदय के बारे में सोचिए। ये मान रहे थे कि बहू के दुर्भाग्य से उनका बेटा गया, मगर वे ये नहीं देख पा रहे थे कि यह उनका स्वयं का भी तो दुर्भाग्य था। तो क्या वे स्वयं अपशगुनी हो गए थे? नहीं, न। मगर कुछ लोगों की आदत होती है, अपनी तोहमतें वे हमेशा दूसरों के सिर ही थोपते हैं।

एक और व्यक्ति थे। उनके दो बेटे थे। बाद में दो बेटियां हुईं। सज्जन व्यापारी थे। जब पहली बेटी हुई, उस वक्त उनको व्यापार में घाटा लग गया था। उन्होंने इसे बेटी के इस जन्म और उसके अपने लिए अशुभ होने से जोड़ लिया।

दो साल बाद दूसरी कन्या हुई। संयोग कुछ ऐसा बैठा कि छोटी बेटी के जन्म के समय काल में उनको व्यापार में फायदा हुआ। इसे भी उन्होंने इस बेटी के अपने लिए शुभ होने से जोड़ लिया और इस बेटी पर प्रसन्न हो गए। अपनी खुद ही की दो बेटियां, मगर एक पर वे हमेशा चिड़चिड़ाते रहे, रूखा व्यवहार करते रहे और दूसरी पर हमेशा लाड़-प्यार लुटाते रहे। एक-दो दिन नहीं पूरे जीवनभर उन्होंने अपनी दोनों कन्याओं के बीच सिर्फ इस वजह से भेदभाव किया कि दोनों के जन्म के शगुन अलग-अलग थे!

हमारे समाज में सदियों से यह चला आया है और आज भी चल रहा है कि हम किसी और के दुर्भाग्य में उसका सहारा बनने, उसके प्रति इंसानियत का भाव रखने के बजाए, अपने अंधविश्वासों के चलते, उस इंसान का अपमान करते हैं। कई लोग हैं जो किसी विधवा, अपंग, एक आंख वाले व्यक्ति आदि को अपशगुनी मानते हैं। और कई लोग तो मुंह पर ही उनका अपमान कर देते हैं कि उनके सामने आने से काम बिगड़ गया। विधवा स्त्रियों को लोग मंगल कार्यों जैसे शादी-विवाह आदि में शामिल नहीं होने देते, खासकर जब मांगलिक रस्में हो रही हों। यह अपमानजनक और अन्यायपूर्ण दोनों ही है।

आज भी भारत के कई गांवों में, जिनमें बिहार, उड़ीसा, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ असम, आंध्र, पश्चिम बंगाल आदि कई राज्य शामिल हैं, औरतें डायन बताकर मार दी जाती हैं। चालाक महाबली यह सब किसी स्त्री की संपत्ति हड़प करने के लिए करते हैं। मगर इस षड्यंत्र में उनको गांव वालों का साथ प्रचलित अंधविश्वासों के चलते मिल जाता है और वे षड्यंत्रकारी डायन के नाम पर सरेआम कत्ल करके भी बच निकलते हैं। किसी के यहां कोई बच्चा मर गया, गांव में किसी बीमारी का प्रकोप या कोई और बात हो गई तो चिह्नित स्त्री को डायन या टोनही बताकर इस दुर्भाग्य के लिए जिम्मेदार ठहरा दिया जाता और उसे प्रताड़ित करने के बाद अंतत: मार दिया जाता है।

मगर सिर्फ ग्रामीण ही नहीं, हम शहरों में रहने वाले, कहने को पढ़े-लिखे, सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग भी कम अंधविश्वासी नहीं हैं। पनौती जैसे शब्दों का इस्तेमाल तथाकथित आधुनिक लोग भी करते हैं और हार का विश्लेषण करने और जिम्मेदारी लेने या उसे खेल भावना से स्वीकार करने के बजाए ठीकरा किसी तथाकथित 'अपशगुनी" के सिर फोड़ने में यकीन करते हैं। न सिर्फ यकीन करते हैं बल्कि पूरी बेशर्मी से इसे घोषित करते हैं। जैसे कि अभी क्रिकेट वर्ल्ड कप वाले मामले में हुआ। लोगों ने विराट कोहली की मित्र अनुष्का शर्मा को भारत की हार के लिए जिम्मेदार बना दिया! यह दु:खद ही नहीं आश्चर्यजनक भी है। आखिर हम कब अपने ही बनाए अंधेरों से बाहर निकलेंगे?
-निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 19 मार्च 2015

भारत की बेटियां चाहें बंदिश नहीं, बंदोबस्त सुरक्षा का

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इन दिनों 'इंडियाज डॉटर'  नामक एक डॉक्यूमेंट्री बहस का केन्द्र बनी हुई है। यह वृत्तचित्र दिल्ली में हुए निर्भया बलात्कार कांड के बारे में है, जिसने पूरे देश को हिला दिया था, जिसके खिलाफ लोग सड़कों पर उतर आए थे। इसे एक ब्रितानी फिल्मकार लेसली उडविन ने बनाया है। इस डॉक्यूमेंट्री पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया है। हालांकि यूनाइटेड किंगडम में एवं अन्य देशों में इसे दिखा दिया गया और दिखाया जा रहा है।


इस वृत्तचित्र में उस कांड के एक बलात्कारी मुकेश सिंह से बातचीत है, जिसमें वह पूरी बेशर्मी से यह कहता हुआ पाया गया है कि हमारे द्वारा बलात्कार की चेष्टा के समय लड़की अपने बचाव में लड़ी न होती, खामोशी से खुद को हमें सौंप देती तो हम भी 'अपना काम" करके उसे बस से उतार देते। बलात्कारी यहीं नहीं रुका, उसने यह नैतिक शिक्षा भी दे डाली कि एक अच्छी लड़की रात को नौ बजे घर से बाहर नहीं घूमती। बलात्कारी के वकीलों ने भी यही कहा कि लड़की शिकार नहीं बल्कि आमंत्रणकारी है। इस तरह के बयानों से हमारे यहां के लोग स्तब्ध नहीं होंगे क्योंकि वे अपने नेताओं, तथाकथित आध्यात्मिक गुरुओं, पुलिस, खाप पंचायतों और कई आम पुरुषों के मुंह से ऐसी बातें सुनते आए हैं। फिर भी डॉक्यूमेंट्री पर प्रतिबंध तो लगा दिया गया है और गुस्सा भी प्रदर्शित किया गया है।

इस बारे में लेखक व सांसद श्री जावेद अख्तर ने जो कहा वह गौर करने लायक है। जावेदजी कहते हैं, 'गुस्सा इस बात पर है कि उस आदमी का इंटरव्यू क्यों हुआ? गुस्सा इस बात पर है कि उस आदमी ने इतनी गलत बातें क्यों कीं? गुस्सा इस बात पर है कि ये दुनिया को क्यों बताया जा रहा है कि रेपिस्ट इतनी गंदी बातें कर रहा है; पर सर, ऐसी बातें तो मैं इस हाउस (संसद) में सुन चुका हूं कि अगर एक औरत इस तरह के कपड़े पहनेगी, अगर रात को सड़क पर घूमेगी तो वो ट्रबल इनवाइट कर रही होगी।'  श्री अख्तर ने आगे यह भी कहा, 'अच्छा हुआ कि यह डॉक्यूमेंट्री बनी, इसलिए कि हिन्दुस्तान के करोड़ों आदमियों को मालूम हुआ कि वे किसी रेपिस्ट की तरह सोचते हैं। अगर ये गंदा लग रहा है तो उन्हें अपनी सोच बदलना चाहिए।'

एक हिंदुस्तानी बंदे हरविंदर सिंह ने लेसली के जवाब में एक डॉक्यूमेंट्री बनाई है- 'यूनाइटेड किंगडम्स डॉटर्स"। यह भी सही है कि बलात्कार सभी जगह होता है। पर हमें तो फिलहाल अपने दाग देखने हैं क्योंकि हमारे कपड़े तो हमें ही धोना है। 'इंडियाज डॉटर' पर प्रतिबंध लगना चाहिए या नहीं, इसके अपने-अपने कारण हो सकते हैं। दोनों ही पक्षों के कुछ तर्क सही हो सकते हैं। मगर यहां हम इसकी चर्चा नहीं कर रहे।

बात है कि क्या बलात्कार की वजह कपड़े होते हैं? क्या लड़कियों की आजादी पर बंदिश लगाने से मामला हल हो जाएगा? तो कहा जा सकता है ऐसा बिल्कुल नहीं है। बलात्कार पहले भी होते थे, जब औरतें घर की चारदीवारी में कैद होती थीं। घर के बाहर घूंघट रखती थीं या बुर्का पहनती थीं। उसे छलने वाले अक्सर अपने ही होते थे, जिनकी वे घर की झूठी इज्जत के डर से शिकायत भी नहीं कर सकती थीं।

आज भी जो स्त्रियां सिर्फ घरों में रहती हैं वे क्या महफूज हैं? दो, चार, छ:, चौदह साल की बच्चियों के साथ बलात्कार हो जाते हैं, क्या वे इन राक्षसों को आमंत्रित करती हैं? हमारे यहां किसी स्त्री को किसी तथाकथित अपराध की सजा देने के लिए पंचायतों के आदेश पर भी सामूहिक बलात्कार हुए हैं। इस नृशंसता का स्त्री के कपड़ों से क्या संबंध? बलशाली लोग उसे घर से उठाकर भी ले जा सकते हैं। किसी पुरुष रिश्तेदार से कोई गलती होने पर उसकी मां, बहन, बेटी, पत्नी पर बलात्कार की घटनाएं भी होती हैं। कभी-कभी किसी स्वावलंबी, निर्णयक्षम स्त्री को दबाने और उसकी औकात दिखाने के लिए भी उस पर बलात्कार किया जाता है।

नारीद्वेषी पुरुषप्रधानता चाहती है कि स्त्री दबकर रहे, उनकी पाबंदी में रहे। ऐसे मामलों में भी स्त्री को कुचलने के लिए, उसका मान मर्दन करने के लिए बलात्कार जैसा कदम तक उठा लिया जाता है। सेना, पुलिस, दंगाई ये सब अराजकता के वक्त में स्त्रियों पर बलात्कार करने से नहीं चूकते। यह भारत ही नहीं, सब जगह होता है। योरप में युद्धकाल में क्या-क्या नहीं हुआ। मंटो की कहानी 'खोल दो' इस तरह की मानसिकता का बहुत उपयुक्त उदाहरण है। यानी अधिकांश मामलों में किसी खास पुरुष का दंभ, विकृत मानसिकता या समाज में उत्पन्न हुई अराजकता बलात्कार का कारण बनती है। फिर स्त्री की आजादी को दोष क्यों देना।

पुराने समय में चालीस साल के आदमी की शादी चौदह साल की बच्ची से भी आसानी से कर दी जाती थी। यह वैवाहिक बलात्कार तो स्त्रियों की परनिर्भर, गुलाम वाली स्थिति की वजह से होता था। विधवाओं के सिर मुंड़ाने और श्रृंगारहीन रहने वाले समयों में क्या उनका शोषण नहीं होता था? आकर्षित न करने के भरसक प्रयास के बावजूद भी कहीं न कहीं कोई भेड़िया उन्हें दबोचने को तैयार रहता था। तो इसके लिए जिम्मेदार तो भेड़िए की वृत्ति ही थी। उस पर नजर रखना और अंकुश रखना जरूरी था, न कि स्त्री को सती बना कर जला देना। पर एक समय पर सती प्रथा के पक्ष में भी ऐसी ही बातें की जाती थी जैसे आज औरत के कपड़ों और आजादी को लेकर दक्षिण एशियाई मुल्कों में की जाती है।

यह  भी एक गलतफहमी है कि आज बलात्कार बढ़ गए हैं। अब वे प्रकाश में आने लगे हैं क्योंकि आज की शिक्षा और स्वावलंबन की ओर बढ़ रही स्त्री को अपने न किए अपराध की झूठी शर्म नहीं, न्याय चाहिए। निर्भया कांड में जिस तरह समाज और मीडिया ने साथ दिया, उससे भी नजरिया बदला है और लड़कियां छुपने के बजाए सामने आने लगी हैं।

युद्ध, दंगे आदि के समय बलात्कार बहुत होते हैं। यानी अमूमन अराजकता इसके लिए जिम्मेदार होती है। शर्म की बात तो यह है कि हमारे यहां सदा यानी रोजमर्रा में ही ऐसी अराजकता की स्थिति रहती है। स्त्रियां पुलिस के साए में महफूज होने के बजाए वर्दी से डरती हैं, क्यों? यह सब जानते हैं।

इन स्थितियों से बचने के लिए स्त्री की आजादी पर प्रतिबंध नहीं, अराजकता का जाना और समाज में कानून, व्यवस्था का आना और राष्ट्रीय सुरक्षा का इंतजाम होना जरूरी है। भारत सरकार ने दस अरब का निर्भया फंड भी बनाया है जो कि महिलाओं के सशक्तिकरण और सुरक्षा के लिए है। इस योजना पर सचमुच काम हो और फंड का सही और योजनाबद्ध तरीके से उपयोग हो तो स्त्री की आजादी की बलि लिए बगैर उसे सुरक्षित बनाया जा सकता है। मगर पहली बात यह है कि हम अपना सोच तो बदलें। व्यवहार भी तभी बदलेगा।
- निर्मला भुराड़िया

गुरुवार, 12 मार्च 2015

आत्मा सोई हो तो धर्म कैसे जागे?

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श्वर एक विश्वास है जिसके सहारे अधिकांश लोग जीते हैं। हम से ऊपर कोई है, यह अवधारणा इंसान के अहं को गलाती है। धर्म पहले-पहल अस्तित्व में क्यों आया होगा?  शांति और करुणा के लिए ही न! भक्ति सिर्फ समर्पण का दूसरा रूप ही रहा होगा। पूजा और ध्यान निश्चित ही दिव्य आभास को पाने के मार्ग रहे होंगे। मगर आज क्या मनुष्य शर्तिया यह कह सकता है कि धर्म सिर्फ और सिर्फ हमारी आत्मा के सुकून के लिए है? नहीं। धर्म में दुनियाभर की राजनीति घुस आई है; भक्ति में पाखंड, पूजा में अंधविश्वास, कर्मकांडों का ऐसा बोलबाला है कि इसमें अध्यात्म ढूंढना मुश्किल काम हो गया है। बहुत थोड़े लोग हैं जो आध्यात्मिक आनंद में अपनी पूजा, अपना ईश्वर और मनुष्यता में अपना धर्म देख पाते हैं। जो अपने को आस्तिक कहते हैं, उनमें ईश्वर के प्रति प्रेम के बजाय एक अज्ञात सत्ता के प्रति भय अधिक दिखाई देता है। लगता है लोग 'विश्वास ही है आस्था का आधार' के बजाय, 'भय बिनु होय न प्रीति' के हामी  हैं।
वैसे तो अपने आसपास फैली अंधश्रद्धा,  रूढ़िवाद, कर्मकांड के हम रोज किसी न किसी रूप में दर्शन करते ही रहते हैं मगर फिलहाल उपरोक्त विचार आए एक मंदिर में घी के चढ़ावे वाला समाचार पढ़कर। इस मंदिर में अखंड ज्योति जलती है, इस हेतु भक्तों ने इतना घी चढ़ाया है और चढ़ा रहे हैं कि यहां घी के कुएं बनाने पड़े। और अब शुद्ध घी से नौ कुएं भर गए हैं! शुद्ध घी...! भारतीय परंपरा में इसे स्वाद और पौष्टिकता का राजा माना गया है। मगर यह दिव्य आहार निम्न आर्य वर्ग तो छोड़ो मध्यमवर्ग को भी सीधे से कहां नसीब होता है। आज के जमाने में जलेबियां और पूरियां तक तेल की खाकर लोग संतोष कर लेते हैं। मगर इलेक्ट्रिसिटी के जमाने में भी मंदिर में दिए जलाए जाते हैं, वह भी शुद्ध घी के। प्रथा में परिवर्तन करने से लोग डरते हैं, क्योंकि वे धार्मिक नहीं धर्मभीरू होते हैं। सही और तार्किक कदम भी नहीं उठाते क्योंकि अनिष्ट की आशंका से डरते हैं। जबकि समय-समय पर नई स्थितियों के अनुसार बदलाव हर रूढ़ हो चुकी चीज में होना चाहिए, चाहे वह धर्म से जुड़ी  हुई ही क्यों न हो। मगर जो कट्टरपंथी हैं, वे धर्म के नाम पर कुछ नहीं सुनना चाहते, बदलाव तो दूर की बात है। हो सकता है हिन्दुस्तान में किसी वक्त घी-दूध की नदियां बहती हों। तब ऐसी कोई प्रथाएं विकसित हुई हों। मगर आज भी मूर्तियों पर दूध बहाया जाता है और मंदिर के बाहर बैठा नन्हा ईश्वर बिलखता है। एक पर्वत की परिक्रमा लोग दूध की धार बहाते हुए करते हैं, इतना कि परिक्रमा पथ पर दूध का कीच हो जाता है। क्या आपका ईश्वर इससे खुश होता होगा? जरा सोचकर देखिए। गर्मियां आ रही हैं नींबू महंगे हो जाएंगे, मगर क्या व्यापारीगण अपनी दुकानों के आगे नींबू मिर्ची के टोटके लगाना बंद कर देंगे? खाने वाले को चाहे चीजें न मिले, मगर हमारा अंधविश्वास दिन ब दिन और पुष्ट होता रहे, यही व्यवस्था हम निभाते हैं।
कुछ दिनों पहले ही एक खबर पढ़ी थी कि मुरैना के एक कस्बे में एक दूध-फैक्टरी पर छापा मारा गया। वहां नकली दूध बन रहा ता। नकली भी ऐसा कि पढ़कर आपकी सांसें ऊपर की ऊपर और नीचे की नीचे रह जाएं। यहां दूध के नाम पर जहर बनाया, बेचा और पिलाया जा रहा था। फैक्टरी में ग्लूकोज पॉवडर में टॉयलेट क्लीनर, साइट्रिक एसिड व हाइड्रोजन पेरॉक्साइड आदि मिलाकर दूध के रंग का द्रव्य बनाया जा रहा था और उसे दूध कहकर बेचा जा रहा था! ऐसा दूध बनाने-बेचने वालों की आत्मा जाने कैसे ऐसा करने की गवाही देती है। क्या उन्हें इस दूध का सेवन करने वाले हजारों अनजान बच्चों के स्वास्थ्य के लिए डर नहीं लगता? नहीं, क्योंकि हममें से कई हैं जो व्यावहारिक जीवन में इंसान के प्रति बड़ी से बड़ी गलती करते हुए भी नहीं डरते, मगर मामला तथाकथित धर्म का हो तो पाषाण प्रतिमा के प्रति भी गलती करने से डरते हैं।
ऊपर शुद्ध घी के जिन कुंओं का वर्णन हुआ है, वहां नौ-नौ कुएं भर घी में भी न कोई मिलावट, न बेईमानी, न कोई चोरी होती है क्योंकि लोग मानते हैं कि घी के चढ़ावे में किसी भी प्रकार की गड़बड़ी करने पर उन्हें श्राप लगता है। कुष्ठ, चर्म रोग आदि बीमारियां हो जाती हैं। मगर असल जीवन में बेईमानी करने में उन्हें डर नहीं लगता। खूब मजे से चोरी, भ्रष्टाचार, मिलावट होता है और किसी श्राप का डर नहीं लगता क्योंकि हमने आम जीवन की संवेदना और मनुष्यता को धर्म के दायरे से बाहर खदेड़ दिया है।
-निर्मला भुराड़िया

बुधवार, 7 जनवरी 2015

कराची से संदेश है- हिरानी साहब डटे रहें!

www.hamarivani.com रफ़्तार


निर्देशक राजकुमार हिरानी कृत फिल्म 'पीके' ने इन दिनों काफी हलचल मचा रखी है बॉक्स ऑफिस पर भी और कुछ लोगों के दिमागों में भी। वे दिमाग चूंकि दायरे में तंग हैं, अत: यह हलचल उनके सिरों को फोड़ कर बाहर आ रही है और लाठियां लेकर तोड़-फोड़ मचा रही है? ऐसा क्या है फिल्म में कि दर्शक तो हाल में बैठे हिलक-हिलक कर तालियां बजा रहे हैं मगर चंद अन्य लोग तक-तक कर गालियां दे रहे हैं? फिल्म को सराहने वाला आम दर्शक है। वह उसे इसलिए सराह रहा है कि आम आदमी अपनी साधारण समझ से भी यह देख पा रहा है कि फिल्म में धर्म के नाम पर फैले पाखंड को उजागर किया गया है। फिल्म को कोसने वाला खास आदमी है। वो खास आदमी जो सोचता है कि धर्म पर उसका कॉपीराइट है। अत: वह अपनी 'खास समझ' के चलते यह नहीं देख पा रहा है कि फिल्म धर्म पर नहीं, धर्म के नाम पर हो रही विसंगतियों, कुरीतियों और पाखंड पर चोट करती है। वह यह भी नहीं देख पा रहा है कि इसमें किसी खास धर्म को नहीं बल्कि सभी धर्मों को लपेटा गया है। वैसे वो खास आदमी देख भी क्या पाएगा जिसने विरोध करने के पहले फिल्म ही नहीं देखी होगी! जी हां विरोध करने वाले इन खास मनुष्यों में से अधिकांश ने फिल्म नहीं देखी है, वे सिर्फ सुनी-सुनाई बातों के आधार पर विरोध कर रहे हैं, या शायद सिर्फ विरोध करने के लिए विरोध कर रहे हैं, क्योंकि जहां धर्म का नाम आ जाए, वहां लाठियां भांजना इन्हें जरूरी लगता है। ये लाठीभांजू खास आदमी हर धर्म में हैं, किसी एक धर्म में नहीं। इनकी संकीर्णता धर्मनिरपेक्ष है। इनकी कट्टरता का एक ही धर्म है- 'कट्टरता।' इस मायने में ये बंटे हुए नहीं मालूम होते, एक ही थैली के चट्टे-बट्टे लगते हैं।
फिल्म बगैर देखे विरोध करने वालों के कुछ मुगालते साफ कर दिए जाने चाहिए। जैसे यह कि यह फिल्म हिन्दू धर्म का विरोध करती है। तो पहली बात तो यह किसी भी धर्म का विरोध नहीं करती। हां धर्म के नाम पर पनपी कुरीतियों पर जरूर चोट करती है, मगर सिर्फ हिन्दु धर्म की कुरीतियों पर ही नहीं, हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई सभी की विसंगतियां इसके व्यंग्यबाणों के निशाने पर हैं। उदाहरण के तौर पर वह दृश्‍य जिसमें यह बताया जाता है कि कुछ भी शाश्वत सत्य नहीं, सब की अलग-अलग मान्यताएं हैं, उसी के आधार पर हरेक का सच बदल जाता है। इसमें नायक को एक सफेद साड़ी वाली स्त्री मिलती है तो बताया जाता है कि वह विधवा है। वह चर्च के द्वार पर सफेद ड्रेस पहने दुल्हन को देखता है तो पूछता है आप विधवा हैं तो चांटा खाता है और उसे कहा जाता है शोक का रंग तो काला होता है। तभी उसे काले बुर्के में तीन स्त्रियां दिखती हैं। वह उनसे पूछता है, 'क्या आपके पति मर गए हैं', इस पर एक आदमी बल्लियां चमकाते हुए आगे आता है, 'मैं हूं इनका पति!' यहां एक आदमी की तीन पत्नियां होने पर तंज किया गया है। हम सब जानते हैं कि यह तंज किस समुदाय पर हुआ। विरोधियों को एक शिकायत और है कि फिल्म में ईश्वर और धर्म का अपमान किया गया है। मगर हम अपनी संकीर्णता परे रखकर देखें तो पता चलेगा कि ऐसा नहीं है। नायक कहता है उसे ईश्वर पर विश्वास है। साथ ही वह एक कमर्शियल टाइप बाबा की ओर इशारा करके कहता है, मैं ईश्वर को मानता हूं मगर उस ईश्वर को जिसने मुझे बनाया है, उस ईश्वर को नहीं जिसे इन्होंने बनाया है। एक दृश्य में अंतरिक्ष से आया भोला नायक एक नवजात, वस्त्रहीन बच्चे को उठाकर उलट-पलट कर देखता है कि क्या इस पर कोई ठप्पा लगा है जिससे पता चलता हो कि यह किस धर्म का है? इसी तरह के हल्के-फुल्के अंदाज में फिल्माए गए दृश्यों से इस फिल्म में गहरे संदेश दिए गए हैं।
धरती पर, मनुष्यों में धर्म की अवधारणा क्यों आई होगी? निश्चित ही मानसिक शांति के लिए। निश्चित ही दया, करुणा, धीरज, सहिष्णुता, सेवा, सहायता, मनुष्यता जैसे सदगुणों के लिए।
 मगर धीरे-धीरे धर्म के नाम पर हिंसा और असहिष्णुता ही प्रबल हो गई। धर्म की मूल प्रकृति तो छूट ही गई। राम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध, पैगम्बर मुहम्मद, नानक, ईसा सभी अपने-अपने जमाने के सुधारवादी थे। मगर इनके ही चेले आज अपने जमाने में पनपी कुरीतियों पर चोट नहीं करने देते। निहित स्वार्थी पाखंडों को उजागर नहीं करने देते क्योंकि यह बना रहे तो कुछ की दुकान चलेगी और कुछ की राजनीति। कट्टरपंथियों के भेजे से टकराकर हर तर्क लौट आता है और संकीर्ण सोच वाला व्यक्ति तर्क जैसी चीजों के लिए अपने दिमाग में जगह ही नहीं रखता।
सोशल मीडिया पर संकीर्णतावादियों का एक नारा लगातार चल रहा है- 'कराची में पीके बनाओ तो जानें।' तो जवाब यह है कि भई कराची में क्यों बनाएं हम? हमें तो गर्व है कि हम एक प्रजातांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष देश के वासी हैं और इसीलिए चंद लोगों के लाख विरोध के बावजूद हम ऐसी फिल्में बना और चला पा रहे हैं। पाकिस्तानी, बीबीसी संवाददाता, वुसुतुल्लाह खान ने कराची में यह फिल्म देखी और अपने ब्लॉग में लिखा, 'पीके देखनी है तो उसके मैसेज पर ध्यान दें। यानी असली भगवान या खुदा की लोकप्रियता को कैश कराने के लिए जिन पुरोहितों और मौलावियों ने फ्रंट कंपनियां खोलकर 'यहां असली खुदा और भगवान मिलता है' का बोर्ड लगा रखा है उनसे बचें।' वुसुतुल्लाह कहते हैं जब शो खत्म हुआ तो भी तो मैंने कई दर्शकों को यह कहते सुना, '...ईमान से... हमारा मौलवी भी तो यही कर रहा है...।' वुसुतुल्लाह आगे कहते हैं, 'हिरानी साहब, आप डटे रहें, आपका हौसला बंटते-बंटते एक दिन यहां (पाकिस्तान)  भी पहुंच ही जाएगा।'
-निर्मला भुराड़िया