धीरज से सुलझाएं, उलझे मन के तागे
डिप्रेशन यानी अवसाद के कई मामले रोजाना सुनने में आते हैं। डिप्रेशन से उबरने के लिए मरीज क्या करें, इस बारे में भी जानकारी यत्र-तत्र प्रकाशित-प्रसारित होती रहती है। मगर अवसाद एक ऐसी अवस्था है, जिसमें मरीज की मन:स्थिति जटिल हो जाती है, अत: मरीज के साथ ही उसके परिजनों, उसकी देखभाल करने वालों के लिए भी कुछ बातों को समझ लेना बेहद जरूरी है। माना कि अवसाद के रोगी की देखभाल करना हंसी-खेल नहीं है। रोगी के साथ ही केयरटेकर को भी इस दौरान कड़ी परीक्षा से गुजरना होता है।
यदि हम यहां दलदल के रूपक का प्रयोग करें तो यह कह सकते हैं कि मरीज दलदल में फंसा होता है। वह सिर्फ खुद के दम पर बाहर नहीं निकल पाता, जितना हाथ पैर मारता है, उतना ही भीतर धंसता जाता है। उसे कोई ऐसा चाहिए होता है, जो एक बार उसे खींचकर निकाल ले। किसी का बढ़ा हुआ हाथ और स्वयं की ठीक होने की इच्छा, यही मरीज को बाहर लाती है।
डिप्रेशन के मरीज के केयरटेकर्स को बेहद समझदारी और सब्र की जरूरत होती है। परिजन को यह समझकर चलना होता है कि मरीज का मन अभी बहुत कच्ची अवस्था में है, अत: अपनी तरफ से कुछ बातों का ध्यान रखें। जैसे मरीज को कभी भी उसकी बीमारी का ताना न दें, उपहास न करें। जैसे ऐसे न कहें, 'क्या आलसियों की तरह पड़े रहते हो, उठो काम पर लगो' या 'तुम सहानुभूति जीतने के लिए नाटक कर रहे हो' या 'हमने तो कभी इस तरह हिम्मत नहीं हारी।'
क्या आप पथरी के मरीज को कभी यह मिसाल देते हैं कि हमारा तो कभी पेट नहीं दुखता, तुम्हारा ही क्यों दुखता है! तो फिर अवसाद के मरीज को यह क्यों कहते हैं कि हमको तो इस तरह बात-बात पर रोना नहीं आता! यानी केयरटेकर खुद ही नहीं समझ रहा होता है कि मरीज एक जैविक स्थिति से जूझ रहा है, न कि जान-बूझ कर कुछ कर रहा है, न ही इस तरह बुझ जाने का मतलब मरीज में इच्छाशक्ति की कमी है। यह तो केमिकल लोचा है। ऐसी मन:स्थिति में मरीज थोड़ा 'टची' भी हो जाता है।
डिप्रेस व्यक्ति का दिमाग कई उलझनों से भरा होता है, मसलन उसे लगता है, 'कहीं मैं अपने स्वजनों पर बोझ तो नहीं हो गया हूं, कहीं मुझे मानसिक रूप से कमजोर तो नहीं समझा जा रहा, लोग मन ही मन मेरी इच्छाशक्ति पर सवाल उठाते होंगे। मन:स्थिति बिगड़ने को लोग सीधे पागलपन से जोड़ते हैं- मेरे लिए भी कोई ऐसा तो नहीं सोच रहा? मेरी वजह से सब परेशान हैं, इनको छुटकारा दिलाने का एक ही रास्ता है...!'
मन में आत्महत्या का विचार आना, बेवजह ग्लानि होना, जरा-जरा सी बात दिल पर ले लेना बीमारी का ही एक हिस्सा है। यदि यह मरीज की मूल प्रवृत्ति नहीं है तो बीमारी ठीक होते ही वह सामान्य व्यवहार वाला हो जाएगा। अत: केयरटेकर में धैर्य और समझ होना और जरूरी हो जाता है। मरीज को कोसना, दोष देना, उसका मजाक बनाना बीमारी को और बढ़ा सकता है। उससे संभलकर व्यवहार करना ही ठीक होता है, अगर आप उसे ठीक करना चाहते हैं तो! क्योंकि यहां केयरटेकर की कर्त्तव्य भावना ही नहीं, उसका समर्पण, प्यार और अपनापन भी काम आता है। कभी मरीज को पटाकर दवा देनी होती है, कभी पुचकारना भी पड़ता है।
चिकित्सकीय इलाज के साथ ही अपनों का कोमल व्यवहार और समर्पण एक अवसाद के रोगी की सबसे बड़ी आशा होती है। केयरटेकर को यह समझना होता है कि रोगी की कैसेट तो उलझी है और केयरटेकर उसे सुलझाने बैठा है, अत: खुद उलझने के बजाए वह धैर्य से तागे अलग करे, इसी में समझदारी है।
-निर्मला भुराड़िया