बुधवार, 27 नवंबर 2013

पुरुष जात का नाम खराब करने वाले

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पचास के पार के एक अधेड़ व्यंग्यकार ने अपनी रचना प्रकाशनार्थ भेजी है। व्यंग्य एक साहित्यिक गोष्ठी के बारे में है। इन गोष्ठियों की हास्यास्पद विसंगतियों पर, शिरकत करने वाले लेखकों की फितरत पर इसमें तक-तक कर शब्दों के तीर मारे गए हैं, लेकिन इसमें वर्णित लेखिकाओं और महिला श्रोताओं पर जो कटाक्ष किए गए हैं वे उनके आचरण के अटपटेपन पर नहीं बल्कि उनकी देह को लेकर किए गए हैं। गोया वे गलती करने वाली और कटाक्ष के निशाने पर आने वाली इंसान नहीं, सिर्फ एक देह हों। जहां पुरुषों को अपनी ही रचना पढ़-पढ़कर बोर करने, हार-फूल का अनंतक्रम चलाने, कार्यक्रमों की अध्यक्षता करने के लिए लार टपकाने, स्वयं द्वारा स्वयं को शॉल औढ़ाने और प्रशस्ति-पत्र देने के मजे लिए गए हैं, वहीं महिलाओं पर व्यंग्य इस तरह है कि फलां की कमर, कमर नहीं कमरा हो गई, फलां ने ढलते हुए पेट को साड़ी में ऐसे छुपा रखा था, फलां सिर पर बचे चार बालों को ब्यूटी पार्लर से सजवाकर आई थी वगैरह। जहां बर्ताव पर व्यंग्य होना चाहिए वहां शरीर पर व्यंग्य क्यों? दूसरे, किसी का बर्ताव व्यंग्य का विषय हो सकता है मगर ढलती उम्र व्यंग्य का विषय क्यों? और क्या लिखने वाला पुरुष स्वयं के उड़ते बाल, बढ़ता पेट, झुकते कंधे, भूल गया था? शायद दोष व्यक्ति का नहीं हमारी सामाजिकता का है जो पुरुष की अधेड़ावस्था को ज्यादा तवज्जों नहीं देता, मगर स्त्री की अधेड़ावस्था को लगभग गुनाह मानता है और गाहे-बाहे उसकी खिल्ली भी उड़ाता है।
खुद के भीतर ही यह भ्रम बनाए रखने के लिए कि वह बूढ़ा नहीं हुआ है, इस प्रकार का पुरुष अपने से बेहद कम उम्र की लड़कियों से देह संबंध बनाने को लालायित रहता है। इसमें वासनाओं से ज्यादा बड़ा हाथ इस अहंकार का होता है कि पुरुष भी भला बूढ़ा होता है? कम उम्र की लड़कियों से संबंध बना सकने में वह अपना पौरुष देखता है। डींग हांकने का मौका देखता है। निश्चित ही सभी पुरुष ऐसे नहीं होते, पर जो होते हैं उनके शब्दकोष में उम्र की मर्यादा नाम का शब्द नहीं होता। आखिर किसी किसी बिंदु पर आकर तो मनुष्य को यह मानसिकता बना ही लेना चाहिए कि अब मैं इस उम्र का हो गया हूं। यह स्वीकार करना कठिन जरूर है पर असंभव नहीं। उम्र की मर्यादा और रिश्तों की गरिमा नाम की भी कोई चीज होती है। नहीं होती तो हम इंसान नहीं पशु होते। अपनी जो भी उम्र है उसे गरिमा से स्वीकार करना स्त्री हो या पुरुष हर एक के लिए जरूरी है ताकि हमारी सामाजिकता आदिम वहशीपन में बदले। स्त्री और पुरुष के बीच देह का ही रिश्ता हो यह जरूरी नहीं। मां, बहन, बेटी, दोस्त-वह कुछ भी हो सकती है। रिश्तों की भावनाओं में देह को घसीटना और रिश्तों की पवित्रता का सम्मान करना यह भी इंसानी गुण ही है। गुरु-शिष्या और बॉस-मातहत के संबंध हैं तो उनकी भी अपनी गरिमा है जिसकी रक्षा किया जाना जरूरी है। गुरु, बॉस या मेंटर होना बहुत बड़ी जिम्मेदारी है, इसे छिछलेपन में कतई नहीं धकेला जा सकता। क्या लेखक-पत्रकार तरुण तेजपाल ने यह भी नहीं सोचा होगा कि कोई लड़की उनकी पुत्री की सहेली है तो उनकी भी पुत्री समान हुई। ऐसा सोचने में तो मानो लोगों की मर्दानगी को ठेस पहुंच जाती है। ऐसा भी देखा गया है कि कुछ लोग अपनी पोती की उम्र की लड़की को भी 'बेटा" संबोधन से पुकारने से बचते हैं, शर्माते हैं। इधर एक अधेड़ कवि ने भी अपनी कविता भेजी है जो एक षोडषी के अंग-प्रत्यंग का वर्णन है। यह जवान थे तब भी लड़की की देह गंध पर कविता लिखते थे, अब भी उन्होंने विषय परिवर्तन नहीं किया है। यह हास्यास्पद और शर्मनाक दोनों ही है। क्या पुरुष स्त्री के लिए सिर्फ एक भोगी है और कुछ नहीं? अक्सर ये खबरें आती हैं कि सौतेले पिता ने बेटी के साथ दुष्कर्म किया। क्या रक्त संबंध होते हुए भी, वह उसकी मां के साथ शादी करके लड़की का पिता नहीं हो गया? इस तरह के पुरुष अपने साथी पुरुषों का भी नुकसान करते हैं। समाज में अविश्वास का वातावरण बनने पर सचमुच गरिमामय पुरुषों पर भी जमाना विश्वास नहीं करेगा। लंपट पुरुष, पुरुष जात का ही नाम खराब करते हैं।


रफ़्तार

शनिवार, 23 नवंबर 2013

बू

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इत्र और फूल में खुशबू होती है, यह कोई सूचना नहीं। खुशबू खुद अपने होने की सूचना दे देती है। यह तो हुई सचमुच की खुशबुओं की बात, जो वस्तुत: होती है, हमारी नासिका भी जिसे पकड ही लेती है। मगर क्या विचारों, भावनाओं और आचरण की भी खुशबू होती है? भावनाओं की खुशबुओं को कवियों ने हमेशा से पकडा है भले वह पहले प्यार की खुशबू हो या बकौल गुलजार साहब आंखों की महकती खुशबू जिसे हमें हाथ से छूकर रिश्तों का इल्जाम नहीं देना है! ये वे खुशबुएं हैं जो नहीं होतीं, पर होती हैं, जिन्हें हमारे इंद्रिय तंत्र नहीं आत्मा की तरंगों द्वारा कैच किया जाता है। इसी प्रकार आचरण की भी गंध होती है जो नाक से नहीं पकडी जाती पर उसकी उपस्थिति महसूस हो ही जाती है। प्यार की खुशबू, मैत्री की खुशबू, अपनेपन की खुशबू होती है। उसी तरह मदद, न्यायप्रियता और अच्छाई की भी खुशबू होती है। जिसके पास अच्छाई को समझने, उसकी कद्र करने का एंटिना हो, वही इस खुशबू का आनंद ले पाता है। इंसानियत की खुशबू उस व्यक्ति को तो महकदार व्यक्तित्व का स्वामी अथवा स्वामिनी बनाती ही है उसके घेरे में आने वालों को भी मन: शांति का वरदान देती है।
यदि अच्छे आचरण की खुशबू हो सकती है तो बुरे आचरण की दुर्गन्ध भी होती ही होगी। नाजी जर्मनी के दौर को बताने वाली कई किताबें समय-समय पर आई हैं। ऐसी ही एक किताब है 'हिटलर्स फ्यूरीज : जर्मन विमन इन नाजी किलिंग फील्ड्स।" नाजियों ने यहूदियों के प्रति जातिवादी घृणा आम जर्मनों के मन में भी भर दी थी। अत: नाजी सैनिक, शासक तो छोड़िए आम जर्मन पुरुष और स्त्रियां भी यहूदी आबादी के प्रति क्रूर और हिंसक व्यवहार करने लगे थे। बहुत थोड़े जर्मन थे जो आत्मा से सोचते थे और जाति के आधार पर की जाने वाली इस अमानवीयता से बहुत दु:खी थे। इन्हीं में से एक एनट शकिंग ने दु:खी होकर अपने घर पर यह पत्र लिखा था, 'पापा सही कहते हैं कि जिन लोगों को कोई नैतिक संकोच नहीं होता वे अजीब प्रकार की दुर्गन्ध छोड़ते हैं। मुझे अब जल्दी ही पकड में जाता है कि मेरे आस-पास कौन है जो दुष्ट हैं, क्योंकि उनमें से खून की बू आती है।" इस किताब के जरिए वेंडी लोअर ने एक महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाया है जो बाकी इतिहासकार भी कहते आए हैं, वह यह कि आम जनता के शामिल हुए बगैर इतने बड़े पैमाने पर मास मर्डर किए जाना संभव नहीं था। भारत में भ्रष्टाचार के लिए भी हम यह कह सकते हैं। दूसरे यह किताब, यह भी याद दिलाती है कि यह मानना गलत होगा कि जर्मन औरतें दुष्टता की राजनीति से कोई संबंध नहीं रखती थीं। सच तो यह है कि इस जातिगत घृणा और हिंसा में उस समय की जर्मन स्त्रियां भी शामिल थीं। उन्होंने भी किसी भी प्रकार की मानवीय संवेदना और कोमलता का प्रदर्शन नहीं किया था। भ्रष्टाचार के संदर्भ में ही हमारे यहां के लिए भी हम यह कह सकते हैं कि स्त्रियां भी कोई दूध की धुली नहीं हैं। रोजमर्रा के सामाजिक जीवन में जो भ्रष्टाचार व्याप्त है उसमें पुरुषों के साथ स्त्रियां भी शामिल हैं। अत: सिर्फ राजनीति के बदलने से देश और समाज नहीं बदलेगा। हम सबके बदलने से बदलेगा।
हम सबको नैतिकता की खुशबू की जरूरत है ताकि हम सुख-शांति से अच्छा जीवन जिएं। अनैतिकता हमारा सबका ही जीना मुश्किल करती है। वैसे भी व्यक्ति कृत्य छुपा सकता है पर कृत्य की गंध नहीं! वह कभी कभी प्रकट हो ही जाती है।

रफ़्तार

गुरुवार, 7 नवंबर 2013

अब यह न हो शोषक और शोषित का रिश्ता

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एक-दो साल पहले की बात होगी, इंदौर के पास के किसी कस्बे में रहने वाले एक व्यक्ति अपने लिखे एक खंड-काव्य की पाण्डुलिपि लेकर मेरे पास आए, इस आग्रह के साथ कि मैं उस पुस्तक की प्रस्तावना लिख दूं। मैंने उनसे उनके काव्य की विषयवस्तु के बारे में पूछा। तब उन्होंने जो बताया उसके बाद मैंने इंकार कर दिया कि मैं आपकी भावनाओं का आदर करती हूं पर विषयवस्तु से मैं सहमत नहीं हूं अत: मैं प्रस्तावना नहीं लिख पाऊंगी। इस साफ इंकार से उन्हें निश्चित ही बुरा लगा होगा। पर कभी-कभी स्पष्ट कह देना भी अच्छा होता है ताकि शरमा-शरमी में आप सामने वाले व्यक्ति के उस नजरिये को, जो आपको गलत लग रहा है, पुष्ट करने में सहयोग दें। बल्कि हो सके तो साफ बात करके यह बता दें कि आपको इसमें क्या गलत लगा। इससे सामने वाले को भी दूसरे कोण से बात समझने में मदद मिलेगी। यह सज्जन जो खंड-काव्य लाए थे वह मेवाड़ की पन्नाा धाय की कहानी पर था।
हममें से अधिकांश लोग पन्नाा-धाय की कहानी जानते हैं। हममें से कुछ लोगों के कोर्स में 'दीपदान" नामक एकांकी भी था जो यह बताता था कि किस तरह एक बागी, मेवाड़ के राजकुमार उदय का कत्ल करना चाहता था, मगर पन्नाा धाय ने राजकुमार को जूठी पत्तलों के टोकरों में चुपके से रवाना कर दिया और राजकुमार की जगह अपने बेटे चंदन को सुला दिया। बागी आता है, तलवार उठाता है और राजकुमार समझकर धाय-पुत्र चंदन का सिर धड़ से अलग करके चला जाता है। एकांकी का यह दृश्य बेहद हृदय विदारक है, रोंगटे खड़े कर देने वाला है। हम लोगों ने अपने बचपन में इस एकांकी को स्कूली बाल-सभा में मंचित भी किया है। मगर अब बड़े होने पर बात एक भिन्ना कोण से समझ में आती है।
कोई एक बात एक समय-काल-परिस्थिति में प्रसंगवश हो सकती है, मगर जरूरी नहीं कि वह दूसरे समयकाल में जस की तस प्रासंगिक रह जाए। उस समय के मेवाड़ घराने के लिए उन स्थितियों में पन्नाा धाय का बलिदान बहुत महान रहा होगा, मगर आज हम उसका महिमामंडन नहीं कर सकते क्योंकि अब हम एक नई सदी के प्रजातांत्रिक समय में रह रहे हैं। अब कोई भी निष्ठा एक तरफा नहीं हो सकती। निष्ठा को जवाब निष्ठा से देना होगा। अब तो श्रेष्ठिजनों और सामंतों द्वारा पन्नाा धायों का बलिदान चुकाने का समय गया है। अब कोई पन्नाा किसी धनिक मालिक के लिए अपने पुत्र को कुर्बान क्यों करे? और हम ऐसी कुर्बानी को महिमा मंडित क्यों करें? माना कि वात्सल्य भेदभाव नहीं करता पन्नाा के लिए शायद राजकुमार जिसे उन्होंने दूध पिलाया होगा और अपना बेटा बराबर वात्सल्य का अधिकारी रहा होगा। मगर बेटे का बलिदान तो उन्होंने इसलिए किया कि राजा के खून की कीमत उनके खून से ज्यादा थी। राजवंश के खून को बचाना जो था।
अब हम नए समय में रह रहे हैं। एक का खून खून और दूसरे का खून पानी नहीं है। सबका खून एक है। निष्ठा एक अच्छा गुण है। मगर इस गुण की जरूरत तो सबको है श्रेष्ठिजनों को ही क्यों? एक-दूसरे की निष्ठा के सहारे ही हम मजबूत होते हैं। अत: अपने घरेलू मददगारों से निष्ठा की जितनी उम्मीद हमें हैं, उतनी ही निष्ठा उनके और उनके बच्चों के प्रति हमारी भी होना चाहिए। उनके बच्चे जिंदगी की बलि चढ़ जाएं और हम देखते रहें इससे अच्छा है कि हम जिंदगी के ऊंचे शिखरों पर जाने में उनकी मदद करें। सबको शिक्षा का अधिकार है, सबको अच्छे जीवन का अधिकार है। नमक का कर्ज जैसे मुहावरों की अब जरूरत नहीं है। नमक बहुत सस्ता है। अब तो रामू काका के उस स्नेह का कर्ज चुकाने का समय है जो उन्होंने आपको अपने कंधे पर बैठाकर दशहरा दिखाने के वक्त आप पर लुटाया था।


रफ़्तार