शुक्रवार, 20 सितंबर 2013

धर्म और स्त्रियां

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 धर्म क्या है इसकी लंबी-चौड़ी व्याख्या हो सकती है। मनुष्य जीवन में धर्म कब क्यों और कैसे आया होगा इस बारे में भी सिर्फ अनुमान ही लगाए जा सकते हैं। मगर इतना तय है कि जब दुनिया के झगड़ों-टंटों से घबरा कर इंसान ने शांति चाही होगी तो धर्म अस्तित्व में आया होगा। एक ऐसे एंकर के हाथों अपनी कमान सौंप देना जो सर्वशक्तिमान है, जो सब संभाल लेगा, निश्चित ही एक सुकूनदायी एहसास रहा है और रहेगा। उस सर्वशक्तिमान के प्रति भोला विश्वास रखने वाला व्यक्ति धार्मिक कहलाया। धीरे-धीरे सिर्फ मन:शांति ही नहीं न्यायप्रियता, नैतिकता, कर्त्तव्य परायणता, उदारता आदि भी धार्मिक-गुण माने जाने लगे या कहें भक्ति के साथ ही न्यायप्रिय और नैतिक व्यक्ति धार्मिक भी कहलाने लगा होगा ऐसा अनुमान है। मगर कालांतर में यह प्रक्रिया उल्ट गई और यह समझा जाने लगा कि फलां व्यक्ति धार्मिक है यानी न्यायप्रिय और नैतिक तो होगा ही होगा। यानी धार्मिक होना अच्छा व्यक्ति होने का ठप्पा बन गया। भले वह व्यक्ति अच्छा हो या हो। इस भावना की वजह से ढोंगियों द्वारा धर्म का चोंगा पहनकर ठगने की घटनाएं भी होने लगीं। सोचिए रावण ने साधुवेश धारण किया होता तो क्या सीताजी भिक्षा देने आतीं? अपहरण की वजह लक्ष्मण रेखा लांघना नहीं साधुवेश धारी व्यक्ति पर भोला विश्वास करना था। दुनिया में ऐसा होता रहा है कि बहुरुपिए धार्मिक व्यक्ति का वेश बनाकर विश्वासियों को लूटते आए हैं इसीलिए तो बगुला भगत, मुंह में राम बगल में छुरी, राम-राम जपना पराया माल अपना जैसी कहावतें अस्तित्व में आई हैं। मगर सवाल यह है कि इतना सब होने के बाद भी लोग जागरुक और चौकन्नो क्यों नहीं होना चाहते?
वक्त के साथ दुनिया का रुप-रंग बदलता रहता है। जो चलन कल अच्छा रहा हो वह आज भी उसी के इसी रुप में प्रासंगिक हो यह जरुरी नहीं। समय, काल, स्थान, परिवेश के हिसाब से जीवन को सुंदर और निष्कंटक बनाने के लिए नए-नए  प्रयोग होना चाहिए, नई रीतों का जन्म होना चाहिए,पुरानी को भी जरुरत हो तो खंगाला, परिवर्तित किया जाना चाहिए। मगर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई कोई भी धर्म हो देखा यह गया है कि धर्म के ठेकेदार उसे जड़ता प्रदान करने में सारा जोर लगाए रहते हैं और आम व्यक्ति धर्म में गई किसी बुराई की तरफ ऊंगली उठाने में डरता है क्योंकि वह इस पाप बोध के साथ बड़ा होता है कि यह तो धर्म की निंदा करना हुआ। ठेकेदार उसकी इस भावना को लगातार ब्रेनवॉश करके पोषित करते रहते हैं। इसके बावजूद भी धर्म के घोल में किसी को कोई किरकिरी दिख रही है और वह इस तरफ इशारा करना चाहे तो धर्म के निहित स्वार्थी, अंधविश्वासी, कट्टरपंथी और ठेकेदार तूफान मचा देते हैं। गोया धर्म का दूसरा नाम असहिष्णुता हो।
धर्म ने स्त्रियों को कुछ मुठ्ठी उल्लास, आजादी और थोड़ी मन:शांति भी अवश्य दी है। घर में सीमित स्त्रियों के लिए वार-त्योहार मनाना, मंदिर आदि जाना, उत्सवों में नाचना-गाना, खाना-पीना, सखियों से मिलना जैसे कई मौके धर्म ने हमेशा उपलब्ध कराए हैं। मगर धर्म के नाम पर पाबंदियां भी सबसे ज्यादा स्त्रियों ने ही झेली हैं। लिपि का आविष्कार होने के बावजूद भी लंबे समय तक हमारे यहां धर्म शास्त्रों एवम् अन्य ज्ञान का एक दिमाग से दूसरे दिमाग तक ही हस्तांतरण होता रहा, वह भी एक खास जाति के लोगों के बीच ही। अत: यह ज्ञान स्त्रियों और शूद्रो के बीच पहुंचा, पहुंचने दिया गया। फिर शुरु हुई धर्मशास्त्रों की स्वार्थी व्याख्याएं जिन्होंने स्त्री को दासी बनाकर रखा। किसी भी चीज में ऐसा कह दिया जाता कि यह तो धरमशास्त्र में लिखा है और स्त्री दमन को जायज ठहरा दिया जाता। कारण पूछने की आज्ञा स्त्री को नहीं थी। उसे तो जो कहा गया वो करना था। खुद उसकी भी कंडीशनिंग ऐसी की जाती कि उसे दमन में भी अपनी धार्मिकता और नैतिकता दिखाई देती। जैसे शास्त्रों का हवाला देकर स्त्री के सती होने को महिमामंडित किया जाता था। ताकि उसे लगे वह कोई महान धार्मिक कार्य करने जा रही है और पुरुषों को स्त्री को सती बनाने के लिए इस तरह समझाया जाता था कि इससे उसे स्वर्ग मिलेगा। धर्म के नाम पर एक इंसान को जिंदा जलाने की यह प्रथा लंबी चली और इसे खत्म करने की पहल का धार्मिक कर्मकांडियों ने बहुत विरोध किया था। धर्म के नाम पर बहुत सा भेदभाव आज भी जारी हैजिसे खत्म करना इसलिए मुश्किल होता है चूंकि वह धर्म के नाम पर होता है। एक संप्रदाय में धार्मिक रिवाज के तहत स्त्रियों के जननांग को किया भंग यिा जाता है। धर्म के नाम पर किसी में पर्दा प्रथा है, तो किसी में एक से अधिक पत्नी रखना जायज। एक संप्रदाय विशेष में नन्ही बच्चियां दीक्षा ले लेती हैं। कोई कुछ नहीं कर सकता, बल्कि इस बात का महिमामंडन होता है।
आज स्त्रियां घर से बाहर निकल रही हैं, शिक्षा ले रही हैं, दुनिया को देख समझ रही हैं, उनका एक्सपोजर पहले जितना सीमित नहीं है तो फिर उन्हें अपनी आंखें और दिमाग भी खुला रखना सीखना चाहिए। बात कोई भी हो उसका न्याय और तर्क समझना जरुरी है। चाहे वह धर्म संबंधी बात ही क्यों हो। विश्वास अच्छा है मगर अंधविश्वास नहीं।
निर्मला भुराड़िया

रफ़्तार

शुक्रवार, 13 सितंबर 2013

कुछ इधर की, कुछ उधर की

www.hamarivani.com रफ़्तार
पिछले दिनों इंदौर में एक हत्याकांड हो गया। एक व्यक्ति ने अपनी पत्नी और सास-ससुर की हत्या कर स्वयं को फांसी लगा ली। पुरुष ने एक सुसाइड नोट भी छोड़ा है जिसके अनुसार, उसकी पत्नी ने : माह की पुत्री को गला दबा कर मार डाला था। इससे उपजे गुस्से ने बाकी हत्याएं करवाईं। प्रकरण की जांच अभी जारी है, अत: पूरे तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता कि घटनाक्रम वस्तुत: क्या था। मगर इस घटना ने हमारी परिवार-समाज व्यवस्था पर कई प्रश्न उठाए हैं। कहा जा रहा है कि चूंकि पति-पत्नी दोनों कामकाजी थे अत: बच्ची को कौन रखे इस पर भी तनाव था। कुछ लोग यह बात भी कह रहे हैं कि संयुक्त परिवार बेहतर होता है क्योंकि वह पति-पत्नी के बीच बफर का काम करता है अत: मामला अक्सर ऐसे विस्फोटक स्तर पर नहीं पहुंचता। संयुक्त परिवार में बच्चे की परवरिश इतनी बड़ी समस्या नहीं होती। वहीं दूसरी तरफ यह विचार भी है कि संयुक्त परिवार स्त्री की आजादी की बलि लेते हैं अत: बहुएं इनमें होने वाली सुविधा के बावजूद इन्हें पसंद नहीं करतीं। इनमें से कौन सही है? दरअसल ये दोनों ही बातें सही हैं। बहू और परिवार दोनों का अपना-अपना पक्ष है। दोनों ही देखें जाएं-
कुछ इधर की- संयुक्त परिवार में एक दूसरे का साथ मिल जाता है। हारी-बीमारी, रोजमर्रा के तनाव में इंसान अकेला नहीं पड़ता। बच्चों का लालन-पालन, बुजुर्गों की देखभाल, टूर पर जाना हो तो घर की जिम्मेदारी हर चीज हो जाती है। मगर हमारे संयुक्त परिवारों में बहुओं को दबा कर रखने का इतिहास रहा है। उन पर तरह-तरह के प्रतिबंध रहते आए हैं। सास-ससुर के सामने सिर पर पल्लू लेना आज भी कई घरों का कायदा है। इसमें जहां ढील आई है वहां भी बहू का साड़ी पहनना आवश्यक है। जहां इसमें भी ढील आई है वहां भी खास तरह का सलवार-कुर्त्ता। यानी किसी भी रूप में मनपसंद परिधान पर प्रतिबंध जारी है। ससुराल वाले यह भी तय करते हैं कि बहू को सुबह कितने बजे उठना चाहिए। देर से उठने वाली 'बुरी बहू" मानी जाती है। भले उम्र और बुजुर्गियत के कारण सास-ससुर की नींद कम हो गई हो, मगर वे अपने पैमाने से ही बहू का सोना-उठना तय करेंगे। उसने क्या खरीदा है, वह कहां जाती है, उससे मिलने कौन आता है संयुक्त परिवार में हर वक्त यह बातें विवेचना का विषय होती है। पूजा-पाठ, उपवास तक उसको ससुराल वालों की मर्जी से ही करने होते हैं। निश्चित ही संयुक्त परिवार बहुओं के लिए प्रतिबंधों का इतनना बड़ा पुलिंदा रहा है कि आज की लड़कियां इसके नाम से ही घबराती हैं। पति के मां-बाप और रिश्तेदारों का जीवन में हर पल दखल उन्हें खलता है।
कुछ उधर की- समाज व्यवस्था बदली है। अधिक लड़कियां अब कामकाजी हुई हैं। इसमें कुछ भी बुरा नहीं है। आखिर कोई भी इंसान अपनी योग्यता के अनुकूल विकास करेगा। जेंडर के हिसाब से कार्य तय क्यों हो। फिर आर्थिक सशक्तिकरण भी तो जरुरी है। उसके बगैर पारंपरिक भूमिका में रहने वाली स्त्रियों ने बहुत दमन और दासता सही है। अत: कामकाजी या स्वतंत्र विचारवान होना गलत नहीं है। मगर स्वतंत्र विचार वाला होने का मतलब पति के परिवार से घृणा करना बिलकुल नहीं है। कुछ लड़कियां पति के परिवार के प्रति पूर्वाग्रह लेकर ही विवाह संस्था में प्रवेश करती हैं। ससुराल के लोगों का व्यवहार अच्छा हो, तब भी वे अलगाववादी रुख ही रखती हैं। वे हमेशा अपने मां-बाप के संपर्क में रहती हैं मगर सास-ससुर से भावनात्मक जुड़ाव स्थापित करने का प्रयास नहीं करतीं। यदि परिवार एकल है तो पत्नी के मां-बाप का दखल बढ़ता चला जाता है। यहां तक देखा गया है कि उनके बच्चे पति के मां-बाप से घुलें-मिलें तो उन्हें अच्छा नहीं लगता। दादा-दादी को अपने पोते-पोतियों से कैसे पेश आना चाहिए इसका लंबा पुलिंदा वह थमाती है, गोया बच्चे दादा-दादी के कुछ लगते ही हों। वहीं नाना-नानी को अपने ममत्व वात्सल्य को कैसे भी प्रकट करने की छूट होती है।  तब उनका बच्चा नहीं बिगड़ता ही संक्रमित होता है! इस दूसरी वाली स्थिति में सास-ससुर कई प्रतिबंधों से गुजरते हैं,बहू नहीं। बहू को कब उनकी क्या जीवनचर्या और कौन से दोस्त अखरने लगेंगे उन्हें पता ही नहीं चलता। साथ रहती है तो आजादी में दखल देती है, दूर रहती है तो मिलने नहीं फटकती अपने बच्चों में दादा-दादी के प्रति प्यार पनपने देती है।
इधर की हो या उधर की। दोनों हीस्थितियां अत्यांतिक  हैं। दोनों ही पक्ष अपनी-अपनी गलतियां देखें तभी संतुलन संभव है। यदि हम एक दूसरे को प्यार करें, साथ रहते हुए भी एक दूसरे को स्पेस दें, एक दूसरे की स्वतंत्रता का सम्मान करें, एक दूसरे की भावनाओं का आदर करें, संयुक्त परिवार का फायदा तभी है। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व एक महान अवधारणा है मगर यह असंतुलन, स्वार्थ, टुच्चेपन,रोक-टोक आदि कारकों के चलते फलीभूत नहीं हो पाती।
निर्मला भुराड़िया